पंच तत्व और ऊर्जा के कोण
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विमल झाझरिया
वास्तुशास्त्र की रचना
प्राचीन काल में भारतीय ऋषि मुनियों ने मानव कल्याण के लिए
की थी। जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में जब आत्मा वास करती
है तभी यह शरीर किसी कार्य को करने में सक्षम होता है। इसी
प्रकार से जब किसी भवन का निर्माण वास्तु के नियमों के
अनुरूप किया जाता है तभी वह भवन आपके लिए कार्यकारी सिद्ध
होता है।
ध्यान रखने योग्य बात यह है कि विश्व में अरबों मनुष्य हैं
परन्तु आसानी से दो शक्लें एक जैसी नहीं मिलतीं जबकि सबके
नाक, कान, आंख, मुंह, हाथ–पैर आदि उसी स्थान पर होते हैं।
यही नियम भवनों पर भी लागू होता है।
जो पांच मूल तत्व हैं – भूमि, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश –
इन सबके स्थान निर्धारित हैं और वे इस प्रकार हैं कि इनका
आपस में सही सामन्जस्य रहता है। उदाहरण के लिए भूमि एवं जल
का साथ है, अग्नि और वायु का साथ है। अग्नि और जल का साथ
नहीं होता, परन्तु एक दूसरे की उपयोगिता को बढ़ाने अथवा
घटाने में उनकी मदद ली जा सकती है। उदाहरण के लिए अग्नि से
पानी गर्म किया जा सकता है, चाय बनायी जा सकती है और पानी
को भाप बनाकर उड़ाया भी जा सकता है। इसी के विपरीत पानी से
अग्नि को बुझाया जा सकता है, पानी को विखण्डित करके
हाइड्रोजन और आक्सीजन के रूप में अलग किया जा सकता है।
उक्त बातों को लिखने का केवल आशय यह है कि एक ही तत्व के
विभिन्न सहयोगों से अलग–अलग परिणाम प्राप्त किए जा सकते
हैं।
वास्तु में ये तत्व बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
जब ये अपने सही स्थान पर होते हैं, तब निवासी को तन, मन,
धन का लाभ पहुंचाते हैं।
वास्तुशास्त्र मुख्य रूप से दो प्रमुख ऊर्जाओं पर आधारित
है – एक सूर्य ऊर्जा और दूसरी चुम्बकीय ऊर्जा। सूर्य ऊर्जा
हम को उगते हुए सूर्य से प्राप्त होती है जिसकी दिशा पूर्व
है। चुम्बकीय ऊर्जा हमको उत्तर दिशा से प्राप्त होती है।
इस प्रकार ये दोनों धनात्मक ऊर्जाएं हैं और इनके विपरीत
डूबता सूर्य यानी पश्चिम दिशा और दक्षिण दिशा ऋणात्मक
दिशाएं हैं। नीचे दिए गए चार्ट में इन दिशाओं से एवं उनके
विभिन्न मिलन बिन्दुओं के ऊर्जा के परिणाम दिखाए गए हैं।
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उत्तर (+) |
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उत्तर पश्चिम (+) |
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उत्तर पूर्व (++) |
पश्चिम () |
पूर्व (+) |
दक्षिण पश्चिम () |
दक्षिण पूर्व (+) |
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दक्षिण () |
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उपरोक्त चित्र
में ऊर्जा का प्रभाव स्पष्ट रूप से समझ में
आता है। उत्तर पूर्व में दो धनात्मक ऊर्जाओं
का सहयोग हो रहा है और दक्षिण पश्चिम में दो
ऋणात्मक ऊर्जाओं का सहयोग हो रहा है अतः जिधर
से धनात्मक ऊर्जा आ रही है, उस हिस्से को अगर
मकान में खोला जाय और जिधर से यानी दक्षिण
पश्चिम से ऋणात्मक ऊर्जा आ रही है उस हिस्से
को बन्द कर दिया जाय, तो वांछित परिणाम
प्राप्त हाते हैं।
अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह है कि वास्तु के
सिद्धान्तों का उपयोग गलत बने हुए भवनों में
भी बिना किसी तोड़ फोड़ के बखूबी लागू किए जा
सकता हैं।
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