ऐसे में एलोपैथिक दवाएँ बड़ी
कामगार साबित होती हैं। जैसे ही शरीर में तकलीफ हो
एलोपैथिक दवा खाओ और देखो, झट से आराम भी आ जाता है। है ना
एक जादुई इलाज। एलोपेथी नाम होमियोपेथी के जनक सेम्युल
हेनीमेन ने सुझाया था। जो कि बाद में अमेरिकन मेडिकल
एसोसिएशन ने भी अपना लिया। एलोपेथी में बीमारी का इलाज
होमियोपेथी से भिन्न प्रकार से किया जाता है, इसी विचार को
ध्यान में रखते हुए हेनीमेन ने ‘ग्रीक’ के शब्द ‘एलो’
(भिन्न) से एलोपेथी नाम की उत्पत्ति की, वहीं होमियो शब्द
का अर्थ ग्रीक में ‘समान’ होता है।
१९वीं शताब्दी में एलोपैथिक दवाओं का प्रचलन इस कदर बढ़
गया कि घर घर में छोटी छोटी तकलीफों से संबंधित ढेरों
दवाओं ने अपनी जगह बना ली। चिकित्सा जगत में एलोपेथी की
तरफ हुए इस झुकाव का कारण यही रहा होगा कि इन दवाओं का
सकारात्मक असर तुरंत दिख जाता है। इससे लोगों को तुरंत तो
आराम मिल जाता है परंतु इसके विपरीत प्रभाव कुछ समय बाद ही
दिखते हैं। लंबे समय तक इन दवाओं को खाने से शरीर की
प्रतिरोधक क्षमता पर खास असर दिखने लगता है। पिछली पूरी
पीढ़ी जो अधिकतर एलोपैथिक दवाओं की छत्रछाया में पली, आज
शरीर में प्रतिरोधक क्षमता की कमी, लंबी बीमारियों में
एलोपैथिक इलाज के कुप्रभाव, आपरेशन के बाद स्वास्थ्य में
गिरावट, तनाव, नींद न आना इत्यादि रोगों के लिए आज दूसरी
चिकित्सा पद्धतियों की ओर दौड़ लगा रही है।
प्राचीन भारत में आयुर्वेद
चिकित्सा पद्धति अत्यंत लोकप्रिय थी, चरक संहिता के अनुसार
आयुर्वेद का अर्थ ‘दीर्घायु बनने का ज्ञान है। चिकित्सा की
इस पद्धति में औषधीय गुणों वाली वनस्पति, धातु आदि का
उपयोग कर विभिन्न प्रकार की दवा बनाई जाती है। सभी किसी न
किसी हद तक यह मानने लगे हैं कि प्रकृति में ही मौजूद
वनस्पति का इस्तेमाल रोग को दूर करने में किया जाए तो शरीर
के लिये लाभदायक रहेगा। आयुर्वेद की तरह पंचकर्म की भी खास
लोकप्रियता है। पंचकर्म में पाँच प्रक्रियाओं द्वारा शरीर
को साफ किया जाता है। जिसमें थोड़े समय के लिये नियमानुसार
खान पान का सेवन है साथ ही साथ मालिश, जड़ी बूटी, स्नान,
औषध युक्त एनिमा तथा नास्य (नाक में दवा डालकर इलाज करना)
है। आयुर्वेदिक मालिश से दर्द, थकान से तो मुक्ति मिलती ही
है इसके साथ तनाव, अवसाद भी दूर होता है। जो नींद न आने की
वजह से परेशान हैं उन्हें भी मसाज से ख़ास फ़ायदा देखा गया
है। आयुर्वेदिक मालिश माँसपेशियों में सूजन कम करते हुए
हड्डियों के जोड़ों तथा टिश्यूज़ में मौजूद विषैले पदार्थ
को शरीर से प्राकृतिक रूप से बाहर निकालती हैं।
इसके अतिरिक्त कुछ लोगों
का होमियोपैथी पर बहुत विश्वास होता है। विशेष रुप से पथरी
और टॉन्सिल्स की सूजन में होमियोपैथी द्वारा बिना ऑपरेशन
ठीक हो जाने वाले अनेक लोग मिलते हैं। इसका आविष्कार
अट्ठारहवीं शताब्दी में जर्मनी के चिकित्सक सेम्युल
हेनीमेन ने किया था। इनकी छोटी डोज़, मीठी गोलियों तथा
किफ़ायती दाम बहुत से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
आज लोकप्रिया के क्रम में एलोपेथी के बाद लोग होमियोपैथी
को ही दूसरे नम्बर पर रखते हैं। आमतौर पर यह भी माना जाता
है कि इन दवाओं के विपरीत प्रभाव नहीं होते। बहुत से लोगों
पर इन दवाइयों का असर जल्दी होता हैं, इसलिये भी लोग
होमियोपैथी में यक़ीन करते हैं। दमा, पथरी, चर्म रोग आदि
कुछ बीमारियाँ ऐसी हैं जिनमें होमियोपैथिक दवाओं की सफलता
के दावे अन्य दवाओं की अपेक्षा अधिक है। सर्दी, जुकाम, मिज़िल्स, चिकनपौक्स आदि कुछ ऐसी तकलीफ़ें हैं जो कि ख़ास
मौसम या बदलते मौसम में परेशानी का सबब बन जाती हैं और
होमियोपैथी में ऐसी दवाएँ भी हैं जो शरीर की प्रतिरोधक
क्षमता बढ़ा कर इन बीमारियों से लड़ने में मदद करती हैं वो
भी बिना नुकसान पहुँचाए। एक समय ऐसा था जब होमियोपैथिक
दवाएँ ग़रीबों का इलाज समझी जाती थीं। परंतु
समय के साथ साथ होमियोपैथी के क्लिनिक से लेकर डाक्टर की
फीस में भी खासा परिवर्तन आया है। रोग को जड़ से मिटा देने
वाली यह छोटी छोटी मीठी गोलियाँ बड़ों के साथ बच्चों के
लिये भी बहुत फायदा करती हैं।
प्राकृतिक दवाइयों की श्रेणी में युनानी दवाओं की
लोकप्रियता भी कम नहीं। सम्पूर्ण एशिया में युनानी दवाएँ
बहुत आज़माई जाती हैं। युनानी दवाओं को स्वास्थ्य के सुधार
के लिए स्थापित करने वाले हकीम इब्न सिना थे। कई युनानी
दवाएँ आयुर्वेद में भी काम आती हैं। आयुर्वेदिक दवा और
युनानी पद्दति में फर्क सिर्फ इतना ही है कि चिकित्सा की
युनानी पद्धति इस्लाम से प्रभावित है तथा आयुर्वेदिक
पद्धति प्राचीन वैदिक संस्कृति से सम्बन्धित है। घर घर में
गर्मी के दिनों में पिया जाने वाला ‘रूहअफ्ज़ा’ और सर्दी
दूर करने वाला जोशांदा युनानी पद्धति की सबसे अधिक बिकने
वाली दवाओं में से है। युनानी दवाओं के प्रचार के लिए
हक़ीम हाफ़िज़ अब्दुल मजीद ने १९०६ में ‘हमदर्द’ कम्पनी की
स्थापना की थी। हमदर्द के जोशांदा तथा रूहआफ्ज़ा के साथ
बादाम रोगन भी काफी लोकप्रिय है।
नेच्युरोपेथी या प्राकृतिक चिकित्सा भी एक असर कारक
चिकित्सा पद्धति हैं। प्राकृतिक चिकित्सा में किसी भी रोग
अथवा तक़लीफ को दूर करने के लिये प्राकृतिक तरीका अपनाया
जाता है। जिसमे मालिश, जोड़ों को सही रूप में सेट करना, जल
क्रियाओं का उपयोग कर दर्द से निजात पाना, हल्के व्यायाम,
मिट्टी का लेप, एनिमा आदि शामिल है।
ढेरों प्रकार की दवाएँ बाज़ार में हैं और इनके बहुत से
डाक्टर भी हैं। स्वास्थ्य व सुन्दरता में इजाफा करने के
लिये तरह तरह के विज्ञापनों से आकर्षित करने में कसर नहीं
रखते। सभी स्वस्थ रहना चाहते हैं लेकिन दवाइयों की दौड़
में समझ में नहीं आता कि क्या करें और क्या न करें। कोई भी
उन दवाओं के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता जिनके दूरगामी
प्रभाव झेलने पड़ें। दर्द, थकावट और नींद नहीं आने जैसी
दिक़्क़तों के लिये आजकल लोग सीडेटिव खाने की बजाय एरोमा
मसाज, स्पा या पंचकर्म ज्यादा पसंद करते हैं। चीनी
चिकित्सा में अपनाया जाने वाला एक्यूप्रेशर तथा एक्यूपंचर
अब विश्व के अन्य भाग में भी लोकप्रिय हो रहा है। १९वीं
शताब्दी में जो आकर्षण एलोपैथिक दवाइयों की तरफ हुआ था अब
उसने धीरे धीरे दूसरी ओर रुख करना शुरु किया है। वज़न
घटाने, मधुमेह, उच्च रक्त-चाप, अवसाद और तनाव आदि से
मुक्ति के लिए योगासन और प्राणायाम के प्रति भी लोगों की
रुचि बढ़ रही है। इतना ही नहीं कमर दर्द तथा रीढ़ की हड्डी
से सम्बन्धित बीमारियों में भी इससे आश्चर्यजनक परिणाम
मिले हैं।
कुल मिलाकर यह कि जान है
तो जोखिम भी हैं और जोखिम हैं तो उसके इलाज भी। दौड़ हर
तरफ़ है, किसी भी बीमारी का इलाज रसोईघर से ही शुरु हो
सकता है। विश्वास के बिना दुआ और दवा फ़ायदा नहीं करती, सो
जीवन पर विश्वास रखें, स्वस्थ जीवन पद्धति अपनाएँ और सही
इलाज के लिए खोज जारी रखें। |