क्योंकि उसके चेहरे पर एक गहरी आशा की दृढ़ता थी, यद्यपि वह आशा इसी बात की थी कि उसका बाप अभी आ जाएगा। इसलिए मैंने पूछा नहीं, पर थोड़ा और पास आकर उसे देखता रहा। मुझे डर था कि प्रैम को हाथ लगाते ही वह रो पड़ेगी, लेकिन एक बार मन हुआ कि उसे ज़रा-सा और पीछे हटाकर फुटपाथ पार कर दूँ, डीजल-इंजिन वाली भौंडी बसों की दहशत मेरे दिल में बचपन से बैठी हुई है, पर फिर यह सोचकर रुक गया कि हालाँकि कोई ड्राइवर कम कुशल होता है कोई ज़्यादा और कोई अपनी बीवी को पीटता है कोई नहीं, पर ऐसा कोई नहीं होगा जो उसे बचाकर नहीं निकल जाएगा।

लड़की ने एक बार मुझे बड़ी घृणा से देखा फिर अपने बाप को देखने लगी। वह सड़क के पार ज़मीन पर कोई चीज़ ढूँढ़ रहा था। मुझे देखकर वह शायद मन में हँसना चाहती थी कि आप यहाँ खड़े संवेदना लुटा रहे हैं पर वह बहुत कमज़ोर थी और उसके चेहरे पर भाव एक अजीब लक्षणा के साथ आते थे जैसे कमज़ोर व्यक्तियों के आते हैं और इसलिए उसका चेहरा और सख़्त हो गया। अब सोचता हूँ कि उसने अपना ध्यान तुरंत मुझ पर से हटाकर खोई हुई चीज़ के मिल जाने पर लगा दिया होगा।

यह स्वाभाविक ही था कि मैं अपमानित अनुभव करता कि मैं तो जैसा कि मुझे बचपन से सिखाया गया है दुखी जनों के प्रति आर्द्र होना- उसपर तरस खा रहा हूँ, और वह मेरी अनदेखी कर रही है, परंतु मुझे इसमें कोई अपमान नहीं मालूम हुआ क्योंकि मुझे उसका स्वाभिमान अच्छा लगा। इस बार मैंने ग़ौर किया तो देखा कि वह बहुत मैले कपड़े पहने थी, कमीज़ के कालर पर मैल की लहरदार धारियाँ थीं मगर चेहरा साफ़ था जैसे उसका बाप लड़की को मुँह धुलाकर बाहर ले गया हो। लगता था जैसे धुलकर उसका मुँह और भी निकल आया है। कमीज़ पर उसने स्वेटर पहन रक्खा था जो चिपककर बैठता था, पूरी बाँह की कमीज़ थी, कफ के बटन बाकायदा लगे हुए थे और इस बार मैंने ग़ौर किया तो देखा कि कलाइयों में बहुत-सी नई चूडियाँ थीं।

मैंने सोचा संसार में कितना कष्ट है। और मैं कर ही क्या सकता हूँ सिवाय संवेदना देने के। इस गरीब की यह लड़की बीमार है, ऊपर से कुछ पैसे जो अस्पताल की फीस से बचाकर ला रहा होगा, उन्हीं से घर का काम चलेगा, यहाँ गिर गए। किसी गाड़ी से टक्कर खा गया होगा। वह तो कहिए कोई चोट नहीं आई वरना बीमार लड़की लावारिस यहाँ पड़ी रहती, कोई पूछने भी न आता कि क्या हुआ। मैंने सचमुच उसके बाप को वहीं से आवाज़ दी, ''क्या ढूँढ़ रहे हो? क्या खो गया है?''
उसने वहीं से जवाब दिया, ''कुछ नहीं, गाड़ी की एक ढिबरी गिर गई है।''

उसकी खोज खतम हो गई थी। वह बिना ढिबरी के इधर चला आया। उसके साथ मैंने परेंबुलेटर के नीचे झाँककर देखा जहाँ गाड़ी की बॉडी और धुरी का जोड़ होता है, जहाँ धुरी हिलगी रहती है, वहाँ का एक बोल्ट बिना नट के था।

मैंने सोचा, बस! मगर इसे ही काफी अफ़सोस बात होनी चाहिए, क्योंकि एक तो गा़ड़ी वैसे ही ढचरमचर हो रही था, ऊपर से इस नट के गिर जाने से वह बिलकुल ठप हो जाएगी, क्या कहावत है वह- गरीबी में आटा गीला- कितना दर्द है इस कहावत में, और कितनी सीधी चोड है, आटा ज़रूरत से ज़्यादा गीला हो गया और अब दुखिया गृहिणी परात लिए बैठी है, उसे सुखाने को आटा नहीं है मगर रोटियाँ नहीं पक सकतीं।

मैंने अपनी तार्किक चतुराई दिखाई, पूछा, ''मगर ढिबरी गिरी कहाँ थी? क्या तुमको ठीक मालूम है यहीं गिरी थी?''
लड़की की मरी-मरी आवाज़ आई, ''गिरी तो यहीं थी, अभी मुझे दिखाई पड़ रही थी, अभी एक मोटर आई उससे वह छिटककर उधर चली गई।''

मोटर के गुदगुदे पहिये से छोटा-सा नट छिटककर कहाँ जाता, पर वह लड़की अपने स्वास्थ्य से दुःखी थी इससे उसका यह गलत अनुमान मैंने क्षमा कर दिया और सड़क के पार गया, उसी जगह मैंने भी ढिबरी को खोजा।

जब खाली हाथ मैं लौट कर आया तो बाप ने कहीं से एक छोटा-सा तार का टुकड़ा खोज निकाला था और बड़ी दक्षता से बोल्ट को छेद में बैठा रहा था और उसे बाँधने की कोशिश कर रहा था। गाड़ी को उसने ज़रा-सा हुमासा तो लड़की जाने क्यों खिसिया गई, पर जैसा कि मैंने पहले बताया, उसके चेहरे पर भाव वैसे नहीं आ सकते थे जैसे तंदुरुस्त बच्चों के आते हैं, इसलिए उसने जल्दी से अपने बाप का कंधा पकड़ लिया और नीचे झाँकने लगी- जैसे अपनी गाड़ी ठीक करने में मदद देना चाहती हो।
मैंने पूछा, ''अब कैसे जाओगे? ऐसे तो यह ठीक न होगी?''

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