किसी श्रीमान जमींदार के महल के
पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोपड़ीं थी। जमींदार साहब को अपने
महल का हाता उस झोपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई। विधवा से
बहुतेरा कहा कि अपनी झोपड़ी हटा ले। पर वह तो कई जमाने से वही
बसी थी।
उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोपड़ी में मर गया था।
पतोहू भी एक पांच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थीं। अब यही
उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब कभी उसे अपनी
पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दुख के फूट-फूटकर रोने लगती
थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना,
तब से वह मृतप्राय हो गयी थी।
उस झोपड़ीं में उसका मन ऐसा लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह
निकलना ही नहीं चाहता थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए।
तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले
वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत से झोपड़ी पर अपना कब्जा
कर लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी
ही, पास पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।
एक दिन श्रीमान उस झोपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम
बतला रहे थे कि इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ
पहंुची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे
यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली कि "महाराज, अब तो यह
झोपड़ी तुम्हारी ही हो गयी है। मैं उसे लेने नहीं आयी हूँ।
महाराज क्षमा करें तो एक बिनती है।" जमींदार साहब के सिर
हिलाने पर उसने कहा कि "जब से यह झोपड़ी छूटी है तब से मेरी
पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत कुछ समझाया पर वह
एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल, वहीं रोटी
खाऊँगी। अब मैंने यह सोचा है कि इस झोपड़ी में से एक टोकरी भर
मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है
कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज, कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस
टोकरी में मिट्टी ले जाऊँ।" श्रीमान ने आज्ञा दे दी।
विधवा झोपड़ी के भीतर गयी। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का
स्मरण हुआ और उसकी आँखों से आंसू की धारा बहने लगी। अपने
आन्तरिक दुख को किसी तरह सम्हालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से
भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आयी। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से
प्रार्थना करने लगी कि "महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ
लगाइए जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।"
जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए, पर जब वह बार-बार हाथ
जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ
गयी। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े।
ज्योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्यों ही देखा कि यह
काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत
लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्थान पर टोकरी रखी थी वहाँ
से वह एक हाथ-भर ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे कि
"नहीं, यह टोकरी हमसे न उठायी जावेगी।"
यह सुनकर विधवा ने कहा, "महाराज नाराज न हों, आप से तो एक
टोकरी भर मिट्टी नहीं उठायी जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों
टोकरियाँ मिट्टी पड़ी है। उसका भार आप जन्म भर क्यों कर उठा
सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए!"
जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गये थे, पर
विधवा के उपरोक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गयीं। कृतकर्म
का पश्चाताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा मांगी और उसकी झोंपड़ी
वापस दे दी।
१ अप्रैल २००२ |