कलम गही नहिं हाथ
प्रकृति से भयभीत उड़ानें
अधिक समय नहीं हुआ है जब मानव ने एक एक कर
प्रकृति के हर तत्त्व को जीतना शुरू किया और उसका स्वामी बन बैठा। उसने
सारी पृथ्वी जीती, हवा में उड़ना सीखा, पृथ्वी की सीमाओं को पार कर चाँद,
मंगल तक पहुँचा। नदियों को बाँधा, समुद्र को लाँघा, हवाओं को मोड़ा और
पहाड़ों को तोड़ा। इस सबके बावजूद प्रकृति ने जब चाहा उसे अपनी उँगलियों
पर नचाया।
आँधी, तूफ़ान, भूकंप, बाढ़, दावाग्नि और
ज्वालामुखी ने संसार की सबसे शक्तिमान ताकतों को ऐसी चुनौती दी जिसे वे
सालों साल नहीं भूल सके। हाल ही में फटे ज्वालामुखी ने इस सप्ताह ऐसी ही
एक और चुनौती दी जब संसार भर की हवाई उड़ानों के कार्यक्रम अस्तव्यस्त हो
गए। कुछ हवाई अड्डों पर सन्नाटा पसरा पड़ा है तो कुछ हवाई अड्डों पर
फर्श पर सोते यात्री रेलवे प्लेटफार्म की याद दिला रहे हैं।
उत्तर अटलांटिक महासागर में स्थित आइसलैंड द्वीप में लगभग दो सौ साल से
सोया हुआ एक ज्वालामुखी अचानक फट पड़ा। यह ज्वालामुखी अंतिम बार १८२१ में
फटा था। उसके बाद पिछले महीने २० मार्च को इससे लावा निकलने लगा। लगभग २२
दिन तक सुलगने के बाद यह ठंडा पड़ गया। लेकिन १४ अप्रैल को इसके पास ही
एक अन्य स्थान से उजली भाप के साथ काले धुएँ की राख आकाश पर छा गई। इस
बार ज्वालामुखी का मुँह बर्फ से ढंके पर्वत के दो सौ मीटर नीचे था। इसके
कारण ग्लेशियर पिघलने लगा और नदियों का जलस्तर बढ़ने से बाढ़ की स्थिति
पैदा हो गई।
यद्यपि बाढ़ की स्थिति नियंत्रित है मगर
ज्वालामुखी से निकली राख और भाप पूरे योरोप के आकाश में फैल रही है।
विश्लेषकों ने चेतावनी दी है कि ज्वालामुखी से निकल रही इस राख के साथ
मिले हुए कंकड़, शीशे और बालू के कणों से हवाई जहाज़ों के इंजिन
क्षतिग्रस्त हो
सकते हैं। इससे पता चलता है न, कि मानव स्वयं को कितना भी होशियार समझे,
प्रकृति उसे उसकी औकात याद दिलाने से बाज़ नहीं आने वाली।
पूर्णिमा वर्मन
१९
अप्रैल २०१०
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