कलम गही नहिं हाथ
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बापू के संसार में
पिछला सप्ताह अहमदाबाद के गुजरात
विद्यापीठ में बीता। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की
विचारधारा को कौन नहीं पढ़ता, जानता और समझता लेकिन उसको समीप से
जानने का इस बार यह अमूल्य अवसर मिला।
सुबह के धुँधलके में सैर के लिए
अतिथि-गृह में अपने कमरे से बाहर आई तो सड़कों को साफ़ करते हुए समान आकारों को देखकर आश्चर्य हुआ। एक से वस्त्र, एक सी कद-काठी,
बाद में पता चला कि विद्यापीठ में कोई नौकर नहीं, कोई शासक नहीं,
सभी काम छात्र और प्राध्यापक मिलकर करते हैं।
सफ़ाई, भोजन की व्यवस्था, अतिथि सत्कार में तो वे हिस्सा
बँटाते ही हैं विद्यापीठ के साहित्य संगीत, कला और फ़िल्मों में
सहयोग करने के साथ साथ वे वाहनों को ड्राइव करने का काम भी करते
हैं। विद्यार्थियों में भारतीय संस्कृति के अनुरूप विनम्रता और
अपनापन देखकर मन नई पीढ़ी के प्रति आश्वस्ति से भर गया। इस विद्यापीठ की स्थापना
१९२० में गाँधी जी द्वारा उन
छात्रों के लिए की गई थी जो स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के
कारण पढ़ाई पूरी नहीं कर सके थे। बापू का विचार था कि अँग्रेज़ों
द्वारा बनाए गए शिक्षा संस्थान प्रशासकों का निर्माण कर रहे हैं,
इनमें से पढ़कर निकले हुए विद्यार्थी जन सामान्य को हीन दृष्टि
से देखते हैं और स्वयं को शासक समझते हैं, जबकि देश को
शासकों के निर्माण की नहीं समाज के निर्माण की आवश्यकता है।
यहाँ के विद्यार्थियों को देखकर यह विश्वास तो निश्चय ही होता है
कि वे भारतीय समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देंगे।
समय के साथ आज जब भारत स्वतंत्र हो
गया है बड़े शहरों के नामी शिक्षा संस्थानों में पढ़नेवाले छात्र
कितने भारतीय हैं और भारत के विकास में कितने सहायक हैं यह
अध्ययन का विषय हो सकता है। संदेह इस बात का भी व्यक्त किया जाने
लगा है कि आधुनिक संस्थानों में सिर्फ अँग्रेजी़ भाषावाले देशों
इंग्लैंड, अमेरिका और आस्ट्रेलिया आदि के लिए नौकरों का निर्माण
हो रहा है जो पढ़ाई पूरी करने के बाद विदेशों की ओर पलायन कर
जाते हैं। ऐसी स्थिति में गाँधीवादी विचारधारा का यह
विश्वविद्यालय समांतर शिक्षा की उस व्यवस्था का दायित्व निभा रहा
है जिसमें भारतीय भाषाओं, संस्कृति, कला और जनजीवन के जुड़ाव को
महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है और जिसका सपना लेकर किसी समय में
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शांति निकेतन और मदन मोहन मालवीय ने बनारस
हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी।
कुछ विचारधाराएँ जो समाज के
संरक्षण और विकास के लिए अति आवश्यक होती हैं अपने प्रवर्तकों के
चले जाने के बाद हरी भरी नहीं रह पातीं- ठीक नदियों की तरह।
साबरमती का चौड़ा पाट देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि उसकी
धारा कैसी समृद्ध रही होगी लेकिन आज यह नदी लुप्त हो चुकी है।
नदी के तल में नर्मदा नदी की एक नहर लाकर पानी बहाया जा रहा है
लेकिन वह किसी समृद्ध नदी के सौंदर्य और सामर्थ्य की बराबरी करने
योग्य नहीं है। गंगा, यमुना और सरस्वती में से भी सरस्वती का बस
नाम बचा है। शिक्षा की वे सनातन विचारधाराएँ जो हमारी मिट्टी को
सींचती हैं क्या समस्त विश्व को पवित्र कर पाएँगी या पूँजीवादी
पश्चिमी सभ्यता के व्यावसायिक कचरे से भर कर समाप्त हो जाएँगी यह
केवल समय बता सकता है।
पूर्णिमा वर्मन
१४ दिसंबर २००९
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