कलम गही नहिं हाथ   
           
           
            
          
            
          
            
          
            
          
          दौड़ से दूर 
          अयोध्या सिंह उपाध्याय एक 
          रचना में कहते हैं-  
          लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते, जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर 
          किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें, बूँद लौं कुछ और ही देता है कर। घर का छोड़ना अक्सर 
          फ़ायदेमंद होता है। आरामगाह से निकलकर ही तो हम दुनिया से लड़ने के लायक 
          बनते हैं। पर आजकल की छोटी सी दुनिया में प्रतियोगिता और स्पर्धा के लिए 
          दौड़ने-भागने की प्रवृत्ति संक्रामक रोग की तरह फैलने लगी है। फिर दौड़ 
          भी साधारण नहीं, सही-गलत को भूलकर जैसे-तैसे आगे निकलने की प्रवृत्ति से 
          मन-मस्तिष्क तो थकता ही है, चरित्र और संवेदना भी छले जाते हैं। हम जहाँ 
          भी है वहाँ की कोई खुशी नहीं, जो हमारे पास है उसका उपभोग करने तक का 
          समय नहीं बस एक दौड़ है, दौड़ते जाना है, आगे... और आगे, और आगे... इस दौड़ से 
          हमें मिलना क्या है उसकी परवाह किए बिना। इस दौड़ के अंत में कितनी और 
          कैसी थकान होने वाली है उसकी चिंता किए बगैर। 
          ऐसे समय में यह 
          सोचना असीम मानसिक शांति देता है कि जहाँ हम हैं वहाँ ठहरे रहने में 
          कितना सुख है! कितने लाभ, प्रतिष्ठा और शांति है! 
          विस्तार हमेशा गहराई को कम करता है। विस्तार रुकता है तो गहराई बढ़ती है 
          रिश्तों की और अपने विकास की। किसी विषय का विशेषज्ञ बनाने के लिए भी 
          अध्ययन की गहराईयों की ओर मुड़ना पड़ता है। हम जहाँ तक पहुँचे हैं वह 
          इसलिए कि पहले ही एक लंबा सफ़र तय हो चुका है तो फिर अब दौड़ कैसी? 
          अनेक दौड़नेवाले लौटकर यही कहते हैं कि दौड़ का कोई सार्थक फल नहीं मिला। 
          हमारा अपना स्थान चाहे वह घर हो या कार्योलय, जिसका चप्पा चप्पा हम जानते 
          हैं, मालिक की तरह हमारा आदर करता है, माँ की 
          तरह हमें प्यार करता है। नई जगह उस सम्मान और स्नेह को पाने और नए परिवेश 
          में अपने को स्थापित करने में अथक श्रम और समय की आवश्यकता होती है। इस 
          श्रम और समय को बचाकर किसी अन्य महत्वपूर्ण कार्य में लगया जा सकता है। 
          दौड़ते हुए हमें अपनी जगह, अपना रंग-ढंग अपनी आदतें बार बार बदलनी पड़ती 
          हैं। अक्सर तो हम भूल ही जाते हैं कि हम थे क्या। अपनी पहचान को बनाए 
          रखने के लिए दौड़ से बचना बेहतर है। आखिर यह दुनिया गोल है, हम जहाँ से 
          चले थे लौटकर वहीं पहुँच जाते हैं फिर दौड़ का फ़ायदा?
           
          इसलिए- कुछ पल 
          शांति से बैठें, प्रकृति का आनंद लें, मज़ेदार खाना पकाएँ, पासवाली परचून 
          की दूकान के बूढ़े मालिक से उसके स्वास्थ्य या परिवार का हाल पूछें, सड़क 
          पर लगे हुए पेड़ों से दोस्ती करें, किसी पुराने दोस्त से फ़ोन पर बात 
          करें, संगीत सुनें, दूसरों को दौड़ता हुआ देखें और महसूस करें कि दौड़ से 
          बाहर निकलकर चिंतामुक्त हो आराम करना कितना सुखदायक है।  
          
          पूर्णिमा वर्मन 
                         ४ 
          मई २००९ 
              
        
 
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