कलम गही नहिं हाथ
श्रद्धांजलि
इस सप्ताह दो अत्यंत प्रतिभाशाली, कर्मठ व
लोकप्रिय रचनाकर
विष्णु प्रभाकर और नईम हमारे बीच नहीं रहे। दोनों ही
रचनाकारों ने अपने विषयों के समाज के हर कोने से कच्ची मिट्टी की तरह आदर
से उठाया और सोने की तरह चमका कर साहित्य की दीर्घा में सजाया। जहाँ
विष्णु प्रभाकर को लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाला साहित्य का
गांधी कहा जाता है वहीं नईम आंचलिक शब्दों के अनुपम चितेरे होने के कारण
भाषा के सुकुमार कवि हैं। विष्णु प्रभाकर ने हिंदी गद्य को अपनी साधना का
आधार बनाया तो नईम ने नवगीतों को। फिर भी दोनों में बहुत कुछ समान है क्यों
कि दोनों ने ही भारतीय समाज की अभिलाषाओं और असंगतियों को अपनी रचनाओं
में मुखरित किया है।
विष्णु प्रभाकर ने कर्मठता की पराकाष्ठा तक
लेखन किया है। उनके कहानी संग्रहों, उपन्यासों, नाटकों, संस्मरणों,
बाल साहित्य और
बांग्ला साहित्य की पुस्तकों की संख्या सैकड़ों में हैं। उनकी पहली कहानी
'दीवाली के दिन' १९३१ में प्रकाशित हुई थी, तब से आठ दशकों तक लेखन में निरंतर सक्रिय
वे, इतनी लंबी और निरंतर लेखन यात्रावाले हिंदी
के एकमात्र लेखक होंगे। एक ओर वे प्राचीन संस्कृति और इतिहास के गहन
अध्येता थे वहीं दूसरी ओर आधुनिकता और प्रगतिवाद के प्रबल समर्थक। उनकी
यही विशेषताएँ उन्हें हिन्दी साहित्य में दूसरे रचनाकारों से अलग करती
हैं।
नईम के गीतों में छन्द का परंपरिक अनुशासन
न होते हुए भी लय का ऐसा अनोखा बहाव है जो पाठकों को अनायास बहा ले जाता
है। सामाजिक सरोकार नईम के गीतों को प्रासंगिक बनाते हैं। उनके गीतों में
प्रयुक्त बिंब सामान्य होते हुए भी अत्यंत आकर्षक दृश्य उपस्थित करते
हैं और लय की कारीगरी पर रची कविता को कलाकृति जैसी संपूर्णता प्रदान
करते हैं। उन्होंने नवगीत, गज़ल, मुक्तक, सॉनेट सभी कुछ लिखे हैं पर उनकी
लोकप्रियता सबसे अधिक नवगीतों के कारण ही है। उनकी संवेदनशीलता उनकी
रचनाओं को जन समान्य के लिए सहज-ग्राह्य बनाती है।
दोनों वरिष्ठ रचनाकारों को टीम अभिव्यक्ति
की भावभीनी श्रद्धांजलि।
पूर्णिमा वर्मन
१३ अप्रैल २००९
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