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कलम गही नहिं हाथ  
 

 

 

वर्तनी का वर्तमान

कंप्यूटर के साथ बनना पड़ता है कंप्यूटर, वर्ना वह हमें चैन से जीने नही देता। अगर संस्कृत कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है तो हिंदी शायद सबसे अनुपयुक्त। तभी तो वेब पर इसे लेकर तरह-तरह के भ्रम और बहस हर जगह चलते ही रहते हैं। क्या सही है और क्या गलत कुछ भी साफ़ और निश्चित नही है। हमारी शिक्षा प्रणाली भी इसके लिए दोषी है जहाँ कविता कहानी तो हिंदी में पढ़ाए जाते हैं लेकिन सामान्य लेखन हिंदी में करने की उचित शिक्षा नहीं मिलती। अनेक मामलों में शिक्षकों के पास अपनी बुद्धि से निर्णय लेने के अतिरिक्त कोई ऐसा आधार नहीं है जिसको मानक बनाकर वे हिंदी सिखा सकें। कुछ चीज़े समय के साथ बदलती भी हैं तो एक नागरिक कैसे जानेगा कि आज की तारीख में किसे सही मानें और किसे गलत?

क्या भारत के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागाध्यक्षों, स्कूलों के अध्यापकों, समाचार पत्रों के संपादकों, प्रकाशन संस्थाओं और हिंदी संस्थान की प्रतिवर्ष कोई ऐसी गोष्ठी होती है जिसमें नए शब्दों की वर्तनियाँ निश्चित की जाएँ? क्या कोई ऐसा प्रकाशित मानक ग्रंथ है जिसके आधार पर सही गलत का निर्णय हो सके?  अगर है तो इसका क्या नाम है और कहाण उपलब्ध है। क्या इसको प्रति वर्ष अद्यतन किया जाता है? वेब पर बहुभाषी प्रकल्पों का साथ काम करते समय इसके बिना हिंदी के विकास में बड़ी अराजक स्थित उत्पन्न होती है।

हिंदी की वर्तनियाँ भी कुछ कम उलझी हुई नहीं हैं। हूँ की वर्तनी कहीं हूं है तो कहीं हूँ। कहीं ग़ज़ल है कहीं गजल है तो कहीं गज़ल। कहीं चलिए है तो कहीं चलिये, कहीं जायें है तो कहीं जाएँ। कहीं किसने है तो कहीं किस ने। क्या ही अच्छा हो कि इसका सरलीकरण कर के सब जगह अनुस्वार को स्वीकृति दे दी जाए और नीचे की बिंदी को हटा दिया जाए। सुंदर, चंचल, कहां, गजल आदि लिखने को स्वीकृत माना जाए तो कम से कम सार्वजनिक स्थलों (जैसे विकिपीडिया या बलॉग में) हिंदी सही लिखने की आदत को किसी न किसी तरह रास्ते पर लाया जा सकता है। लिखने वाले को भी संतोष हो कि मैंने सही लिखा है। उच्चारण में नीचे की बिंदी का प्रयोग इच्छानुसार लिया या छोड़ा जा सकता है। वैसे भी आजकल के अधिकतर अभिनेता अभिनेत्रियाँ या टीवी कलाकार खूबसूरत, खुशी के नीचे की बिन्दी का उच्चारण नहीं करते। इसी तरह को ने आदि शब्दों को अलग कर दिया जाए तो तकनीकी दृष्टि से बहुत आसानी हो जाए। पर इस विषय में तकनीकी समुदाय और साहित्यिक समुदाय में समन्वय होना आवश्यक है वर्ना हम एक दूसरे पर दोष मढ़ते ही रहेंगे।

अगर ऐसा ठीक न भी समझा जाए तो कुछ विकल्प रखे जाएँ जिसका पालन समाचार पत्र-पत्रिकाएँ तथा प्रकाशन-ग्रह दृढ़ता से करें ताकि सही हिंदी और गलत हिंदी की पहचान बने। इसकी एक किताब प्रकाशित हो और वह किताब हर महत्वपूर्ण स्थान और वेब पर उपलब्ध हो ताकि सही हिंदी लिखने के इच्छुक व्यक्ति को दिशा मिल सके।

इसके अतिरिक्त हमें कुछ विदेशी शब्दों की भी सही वर्तनियाँ तय करनी होंगी। उदाहरण के लिए फ़ाइल या फ़ाईल, विदेशी देशों, नगरों और गाँवों की वर्तनी पर भी काम करना ज़रूरी है। उदाहरण के लिए इलाहाबाद की अँग्रेजी वर्तनी Allahabad है, जो सर्वस्वीकृत है, लेकिन Scott Land की हिंदी वर्तनी क्या है?  कहीं स्कौटलैंड है,  कहीं स्कॉटलैंड है, कहीं स्काट लैण्ड है तो कहीं इनके कुछ और संयोजन। इस तरह के शब्दों की वर्तनियाँ निश्चित कर के एक कोष बनाना चाहिए और इसको वेब पर भी किसी सम्मानित संस्था द्वारा अपलोड किया जाना चाहिए ताकि देश-विदेश, वेब, विश्वविद्यालय सब जगह, सब लोग उसका पालन कर सकें। कभी-कभी एक ही व्यक्ति दो जगह एक ही शब्द को दो तरह से लिखता है, जैसे एक जगह हिन्दी और दूसरी जगह हिंदी। ऐसी स्थिति एक विकसित भाषा के लिए सम्मानजनक नहीं है। विश्व के लगभग सभी देश अपनी भाषा में आए इस प्रकार के शब्दों को किसी न किसी नियम से बाँधकर उनका मानकीकरण कर चुके हैं। सब कुछ चलता है सब कुछ ठीक है जैसी भावना के साथ हम हिंदी के विकास का सपना नहीं देख सकते।

कंप्यूटर का युग आने के बाद हमें निश्चित रूप से वर्तनियों के मानकीकरण की सख्त ज़रूरत है। इसके अभाव में वर्तनी जाँचक निष्क्रिय हो जाएँगे, लिंक ठीक से नहीं जुड़ेंगे और ऑटो सुविधाओं का वैसा लाभ नहीं मिलेगा जैसा मिलना चाहिए। इन कमियों के रहते हिंदी का विकास तकनीकी विषयों के लिए करना और भी दुष्कर हो जाएगा।

पूर्णिमा वर्मन
 ६ अप्रैल २००९

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