कलम गही नहिं हाथ
अमरीकी गोली-बारूद
सोचा था मेरा भारतीय कमांडो इस बार महाकड़क फ्लू पर अकेला ही विजय प्राप्त कर
लेगा। कुछ काढ़े पिए, होमियोपैथिक गोलियाँ भी आज़माईं मगर चार दिन की
पिटाई के बाद अमरीका की शरण में जाना ही पड़ा। आज थरमोमीटर पारा तो नीचे दिखा रहा
है, लेकिन अमरीकी गोली-बारूद के दुष्परिणाम दिखने लगे हैं। गला सूखा सूखा सा
है, सिर कुछ भारी है और पेट में बेचैनी।
इस हफ़्ते इमारात की सर्दियों ने एक नया
नियम पकड़ा है। हर दूसरे हफ़्ते दो दिन तेज़ बारिश होती है फिर बादल साफ
हो जाते हैं। दो दिन कड़क सर्दी रहती है। एक हफ़्ता मज़ेदार सर्दी---
और आ मिलते हैं वही पुराने वसंती दिन, बस इतना हुआ नहीं कि फिर बारिश।
पहले ऐसा नहीं था। सर्दियों में तापमान बीस डिग्री के आसपास बना रहता था
जो बड़ा मनभावन लगता था। दिसंबर के अंत या जनवरी के प्रारंभ में कोई एक
सप्ताह बारिशवाला निकलता था तो मौसम बार-बार ठंडा गरम नहीं होता था। इस
गर्मी सर्दी की अठखेलियों के कारण पिछले हफ़्ते से बुखार में हूँ।
मेरी सहायिका श्रीलंका
की
है। वह कहती है कि आतंकवादी शातिर हो तो अमरीकी सहायता में बुराई नहीं
मगर वैद्य धन्वंतरि को याद रखो। वह बड़े प्याले में एक कड़वा मीठा काढ़ा
बनाकर लाई है और कुछ घूँट पीने के बात मुझे भी आराम महसूस हो रहा है।
कमाल है! यह लंका की कन्या राजनीति में इतनी
गुरू निकली और मैं चाणक्य के देश की चेला ही रह गई!
पूर्णिमा वर्मन
१९ जनवरी २००९
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