कलम गही नहिं हाथ
अपनी तो पाठशाला
आजकल मैंने फिर से पाठशाला का रुख़ किया
है। अब यह न पूछें कि क्या पढ़ा जा रहा है क्यों कि जो कुछ पढ़ा जा रहा
है उसमें खास कुछ समझ में नहीं आ रहा है। पढ़ने का वातावरण ही दिखाई नहीं
देता। लगता है पूरा पाठ्यक्रम समाप्त होने तक यह मौसम बदलने वाला नहीं।
कुछ समझ में नहीं आ रहा है तो फिर पाठशाला जाने का फ़ायदा?
अरे, पैसे चुकाए हैं तीस पाठों के, वो तो वसूलने ही हैं और फिर
ऐसी आरामगाहनुमा पाठशाला भारत में सात जनम नहीं मिलने वाली। यह समझकर
मुझे तो सातों जन्मों के ऐश इसी पाठशाला में पूरे करने हैं। शाम को आराम से कपड़े बदलो, जो मन आए पहनो और निकल पड़ो।
पाठशाला के शानदार भवन में प्रवेश करो। आलीशान बरामदे में लगी कोल्ड
ड्रिंक की मशीन से एक बीब्सी (बीप्सी का मतलब जानते हैं जनाब?
नहीं जानते तो फेसबुक पर पूछ सकते हैं।) निकालो और हाथ में लिए हुए कक्षा में चले
जाओ। छोटी छोटी कक्षाएँ जिसमें मुश्किल से १० कुर्सी मेज़ें होती हैं।
बाहर का तापमान १५ डिग्री सेल्सियस होने के बावजूद स्प्लिट एसी फर्राटे
से चल रहा होता है। मन करे कक्षा में बैठो या फिर बरामदे में शाम की सैर
का कोटा पूरा करो- कोई रोकटोक नहीं। कक्षा में अध्यापक से पहले पहुँचने की ज़रूरत नहीं। वह
आ जाए तो भी बीब्सी फेंकने की ज़रूरत नहीं। मेज़ पर रख लो आराम से पीते
रहो और खाली हो जाए तो वहीं छोड़कर चल दो। अध्यापक फेंक देगा।
सबसे मज़े की बात यह कि वह कक्षा में आकर
अपना परिचय देगा, "मेरा नाम वाइल है और मैं आपको पहला पाठ पढ़ाने आया हूँ।"
बेचारा २५-२६ साल का अध्यापक, पढ़ने वाले
५० साल के। आश्चर्य की बात यह
कि भारत से बिलकुल विपरीत यहाँ विद्यार्थी अध्यापक को नाम लेकर पुकारते
हैं और अध्यापक विद्यार्थियों के संबोधित करते हुए कहता है मैम, सर...
और
भी मज़े की बात ज्यादातर लोग अपना पाठ याद नहीं करते। इसके बावजूद न कोई
शर्म, न हीन भावना, न किसी का डर। एक नमूना देखें-
विद्यार्थी- "ओह वाइल, कल का पाठ तो बहुत ही कठिन था मुझे ठीक से याद भी
नहीं हुआ।"
वाइल- "मुझे मालूम है सर, इसीलिए तो मैं आपकी मदद करने आया हूँ। एक पाठ को
याद करने के लिए तीन दिन आपको दिए जाते हैं अभी तो एक ही दिन गुज़रा है
मुझे पूरी आशा है कि कल तक आपको सब कुछ याद हो जाएगा।"
विद्यार्थी- "हाँ, हाँ, तुम ठीक कहते हो वाइल, मेरे प्यारे बच्चे। हो जाएगा
याद मुझे।"
अगर ऐसे आशावादी अध्यापक मिल जाएँ जो प्यारे भी हों और बच्चे भी तो फिर
कौन पाठशाला से भागने की सोचेगा?
पूर्णिमा वर्मन
१२ जनवरी २००९
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