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आज सिरहाने

 

रचनाकार
मधु जैन

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प्रकाशक
 बोधि प्रकाशन
बाइस गोदाम, जयपुर
राजस्थान
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पृष्ठ - १७६
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मूल्य - १७५

एक कतरा रौशनी (लघुकथा संग्रह)

मधु जैन की लघुकथाओं का संग्रह एक कतरा रौशनी में इसी शीर्षक से एक कहानी भी हैं। यह कहना अनुचित न होगा कि शीर्षक में स्थित रौशनी का यही कतरा संग्रह की समस्त कथाओं में सकारात्मकता की स्वर्णिम लौ बिखेर रहा है। ‘सफरनामा लेखन का’ में मधु जी स्वयं भी कहती हैं, “एक बात और- मेरी कथाएँ सकारात्मक होती हैं” और मुझे उनकी इस बात पर सहमति की मुहर लगाने से कतई गुरेज नहीं है।

लघुकथा विधा में कथा के शीर्षक को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है, बल्कि यह कहें कि शीर्षक को कथा का ही हिस्सा माना जाता है तो संभवतः अनुचित नहीं होगा। शीर्षक वह प्रवेश द्वार होता है जो हमें कथा संसार में विचरण करने के लिये आमंत्रित करता है, हमारा आह्वान करता है। इस संग्रह की कथाओं के शीर्षक सटीक भी हैं और सुंदर भी। शीर्षक कहीं से भी आगे आने वाली कथा को बिना उघाड़े, संपूर्णता से अपनी बात कह जाते हैं। थोड़ा अलग हट कर शब्द चयन के कारण शीर्षक आकर्षक भी बन पड़े हैं। स्नेह-पथ, ३१ तारीख, नव-आह्वान, एक खिड़की अपनी सी, लाक्षागृह, गाँधीगिरी आदि इसके दृष्टांत हैं।

इस संग्रह की कथाओं का फलक कथानक एवं विषय के आधार पर पर्याप्त विस्तृत है। पारिवारिक संबंध, मानवीय सरोकार, सामाजिक विसंगतियाँ, पर्यावरण, राजनीति, मानवेतर प्राणी, गरज यह कि हमारे जीवन, समाज को प्रभावित करते हर पहलू को संवेदनाओं की रौशनाई में डुबो, वैचारिक विश्लेषण की मथानी से मथ, कथा के चुस्त-दुरुस्त रूप में बड़ी ही कुशलता से हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया है मधु जैन ने।

पारिवारिक संबंधों की पृष्ठ भूमि पर लिखी गई कथा है, ‘स्नेह पथ’। परिवर्तित होते वैचारिक परिवेश और परम्परागत संकुचन की हदों से बाहर आ बहू और सास-ससुर के मध्य पारस्परिक साझेदारी, एक- दूसरे की परिस्थितियों के प्रति समझदारी को उकेरती कथा है यह। कार्यालय के कार्यों में व्यस्त बहू का कुछ दिनों को उसके घर आए सास- ससुर को समय न दे पाने को ले कर चितिंत होना, अपराध बोध होना, सास-ससुर का उसकी व्यस्तता को समझना, सास की अस्वस्थता के चलते ससुर का खाना बनाना और सास का इसके प्रति सहज स्वीकार्य- सब इतने सहज प्रवाह से बहता है कथा में कि मन तृप्त हो जाता है। स्वस्थ सोच और बेहतर समाज की दिशा में एक कदम है- ‘स्नेह पथ’।

माँ बेटी के संबंध पर आधारित कथा ‘निवाला’, जैसे झुलसती धरा पर पड़ती फुहार, भीतर तक संतुष्टि से आप्लावित हो जाता है मन। इस रिश्ते के लिये तो कहा ही जाता है कि यह मात्र कोख से नाल जुड़ी होने का ही रिश्ता नहीं है, वरन तमाम उम्र एक डोर जुड़ी रहती है माँ और बेटी के मन के बीच। बिन कहे ही माँ बाँच लेती है बेटी का हर दर्द। संयमित अभिव्यक्ति इस कथा की सबसे बड़ी खासियत है।

वर्तमान सामाजिक परिवेश में हम अक्सर ऐसी घटनाओं से दो-चार होते हैं जहाँ करियर, भौतिक संसाधनों को जुटाने की अधाधुंध दौड़ में भागते युवा अपने माता-पिता को अकेला छोड़ अपनी जड़ों से दूर छिटक जाते हैं। यह आज का कटु यथार्थ है। किंतु कई बार घर से दूर जाना उनकी अनिवार्यता भी होती है और घर के बुजुर्ग अपने हिस्से के दो कदम चलने के लिये स्वयं को तैयार नहीं कर पाते। इस संवेदनशील विषय को कथा ‘दृष्टिकोण’ में मधुजी ने बहुत ही सहज ढँग से मात्र उकेरा ही नहीं है वरन सोच परिवर्तित करने की दिशा भी दिखाई है।

स्पष्ट रूप से एक तीसरे जेंडर के रूप में स्थापित न हो पाने के कारण स्त्री- पुरुष के बीच त्रिशंकु सा झूलता किन्नर समाज हमेशा से हाशिए पर ही रहा है। समाजिक वितृषणा और उपेक्षा के शिकार इस वर्ग ने भी अपने चारों ओर कुछ ऐसी अभेद्य दीवारें उठा रखी हैं कि लोग इनसे घबड़ाते भी हैं।अब वैधानिक एवं सामाजिक स्तर पर इनके जीवन में भी सकारात्मक परिवर्तन की लाली फूट रही है। समाज इनके विषय में संवेदनात्मक स्तर पर सोचने लगा है। इसी सामाजिक संदर्भ पर आधारित हैं संग्रह की तीन कथाएँ, ‘शगुन’, ‘ताली’ और ‘जहाँ चाह वहाँ राह’।

‘शगुन’ में नवजात शिशु वाले घर से पैसे वसूल कर जाते किन्नरों को रोककर एक पड़ोसन उनके परिवार की आर्थिक स्थिति से अवगत कराती है। यह जानकर शगुन के रूप में किन्नरों का पैसे नवजात शिशु को देना और परिवार की बुजुर्ग माता जी का किन्नरों के सर पर हाथ फेर आशीष देना, सब शगुनाए जीवन की बानगी है। इस कृत्य के जरिए बिना स्पष्टतया कुछ कहे ही लेखिका ने किन्नरों को समाज के अन्य वर्गों के समकक्ष ला खड़ा किया है।
दूसरी कथा ‘ताली’ में किन्नर द्वारा जीवन में नौकरी से इतर पढ़ाई लिखाई के महत्व की बात कहला कर लेखिका ने उनके विवेकशील होने पर मोहर लगा दी है। ये हमारी सामाजिक चेतना और सोच में बदलाव की कथाएँ हैं। परिवर्तित होती सामाजिक विचार-धारा, आचार- व्यवहार को सामने लाती कथाएँ एतिहासिक दस्तावेज सरीखी होती हैं।

पर्यावरण क्षरण, हरीतिमा का ह्रास, जलती धरती, हमारे आज के समय के ज्वलंत मुद्दे हैं। सुरसा सी बढ़ती इसी समस्या पर बात करती कथाएँ हैं- ‘विकास बनाम विनाश’, ’लाक्षागृह’ आदि। ‘विकास बनाम विनाश’ – पगडंडी की जुबानी उसी की कहानी है। इस कथा में मधु जी शैली में नवीनता ले कर आईं हैं। आत्मकथ्य शैली का प्रयोग अत्यंत सराहनीय बन पड़ा है। कथा यथार्थ बखानी करती है समय की एक लम्बी अवधि की किंतु आत्मकथ्य शैली के चतुर एवं सटीक प्रयोग से लेखिका ने कथा को कला दोष के आक्षेप से बचा लिया है। यही चातुर्य एक सधी हुई कलम की पहचान है। इसके अतिरिक्त टेसू के लाल फूलों से दुर्घटनाओं में बहे लाल रक्त तक की यात्रा की बात करती सड़क होती पगडंडी कथा तो एक अनूठा लालित्य प्रदान कर जाती है।
‘लाक्षागृह’, सूर्य एवं गृहणी के बीच होती बात-चीत के जरिए संवादात्मक शैली में लिखी लघुकथा है। पर्यावरण की पृष्ठभूमि पर लिखी गई यह कथा मनुष्य के गैरजिम्मेदाराना रवैये को रेखांकित करती है।

शैली की दृष्टि से मधु जी ने इस संग्रह में और भी कई नये प्रयोग किये हैं। मानवेतर कथाएँ हैं ‘कृतघ्न’ एवं ‘मंथन’। ‘कृतघ्न’ में वृक्ष एवं पक्षी, मनुष्य द्वारा वनों, पेड़ों के काटने एवं उजाड़े जाने की बात करते हैं। इस कथा को मानवेतर बना कर मधु जी ने मनुष्य के पर्यावरण असुंतलन के प्रति उसके अविवेकी, दायित्वहीन रवैये को और धार दे दी है। मनुष्य के भीतर की चारित्रिक विसंगति की चर्चा करते पेड़ एवं पक्षी जहाँ एक ओर प्रकृति की उदात्तता को स्थापित करते हैं वहीं दूसरी ओर हमारे भीतर की नकारात्मक प्रवृतियों को भी उघाड़ते हैं। सीमित शब्दों में कई गहन विचारों को एक साथ बोधगम्य तरीके से कहने का कौशल कथा का कद ऊँचा कर देता है।

कथा ‘मंथन’ मानवेतर शैली की कथा का एक और अनुपम दृष्टांत है। घर में लाया गया सोफा-सेट अपने संपूर्ण जीवन क्रम पर वैचारिक मंथन करता दर्शाया गया है। यह कथा बहुआयामी है। यह जहाँ एक ओर समय के साथ विदीर्ण होते सोफे के मान-सम्मान ढलने और अंत में उपेक्षा तक का शिकार होते जीवन का मार्मिक चित्रण है तो दूसरी ओर घर के बुजुर्ग माता जी के प्रति घर के सदस्यों के व्यवहार की बात की कहानी भी है। सोफा पुराना हो जाता है तो घर के बाहर कर दिया जाता है, माता जी बुजुर्ग हो जाती हैं तो उन्हें घर के भीतर भेज लोगों के सामने पड़ने से बचाने का प्रयत्न होता है। निष्कासन दोनों ही झेल रहे हैं, अपने अपने तरीके से। सोफे को लगता है कि माता जी कम से कम घर के भीतर तो हैं, यह कटाक्ष ततैया सा डंक मारता है।

शैली के अलावा कथ्य, विषय- वस्तु की दृष्टि से भी पर्याप्त नवीनता है संग्रह की कथाओं में। ‘उजाले की ओर’ का विषय नशा एवं उससे मुक्ति है तो ‘गाँधीगिरी’ में सार्वजनिक स्थलों के रख-रखाव, साफ- सफाई के प्रति बतौर नागरिक हमारे दायित्व को कथा बुनने का आधार बनाया गया है। राजनीतिक परिदृश्य और आज के अधिकांश नेताओं की चारित्रिक विसंगतियों पर भी लेखिका की कलम चली है।

भाव प्रवण संप्रेषण की दृष्टि से ‘एक खिड़की अपनी-सी’ अत्यंत संवेदनशील कथा बन पड़ी है। मातृविहीन बच्ची को सौतेली माँ से सौहार्दयपूर्ण व्यवहार का न मिल पाना और पिता का भी स्नेहाभिव्यक्ति न करना बड़ी होती बालिका के मन में जैसे शून्य निर्मित कर जाता है। विवाहोपरांत विदा होते समय अतंतः उसे पता चल ही जाता है कि अभिव्यक्त भले ही न कर पाए हों पर पिता उससे कभी दूर नहीं थे और इस बात को लेखिका ने मात्र एक वाक्य में जिस भाव प्रवण ढंग से संप्रेषित किया है कि आँसुओं भरी आँख में मुस्कान झिलमिला उठती है।

‘एक कतरा रौशनी’ गुणों आदर्शों के मान की स्थापना करती संग्रह की शीर्षक कथा है। ज्योति से ज्योति जगाते चलो का आह्वान करती यह कथा अंतस प्रभासित कर जाती है।

इस संग्रह की कथाएँ कथानक, कहन, शैली, कसावट, उद्देश्य, संवेदना, सरोकार और संप्रेषण, प्रत्येक पहलू पर ध्यान दे रची गईं हैं। कथाएँ यह बताती हैं कि लेखिका किसी हड़बड़ी में नहीं रहतीं वरन कथा को पाठक के सम्मुख रखने से पूर्व, कथा लिखने की यथेष्ट वैचारिक विश्लेषण की प्रक्रिया से गुजरती हैं।

- नमिता सचान सुंदर
१ फरवरी २०२३

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