रचनाकार
ऋता शेखर मधु
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प्रकाशक
श्वेतांशु प्रकाशन
नयी दिल्ली
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पृष्ठ - १८८
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मूल्य रु- ३४०
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धूप के
गुलमोहर (लघुकथा संग्रह)
अपने नाम को सार्थक करता ऋता
शेखर का लघुकथा संग्रह, ‘धूप के गुलमोहर’ कहीं धूप में
गुलमोहर हो जाने की प्रेरणा देता है तो कहीं जेठ की आग
उगलती दोपहरिया में रस-रंग की धार सा अंतस को गहरे तक
सिंचित करता है। हाँ, कुछ ऐसा ही है ऋता जी की कथाओं में
विषय- वस्तु का विस्तृत आयाम।
पाँच श्रेणियों में सलीके से वर्गीकृत की गयी १३८ लघुकथाओं
से सुसज्जित यह संकलन हमें वैचारिक एवं भावानात्मक दोनों
ही स्तर पर प्रभावित करता है और समृद्ध भी।
सामाजिक सरोकार की श्रेणी वाली कथाएँ हमें मात्र
मानवीय सरोकारों की ओर अँगुली पकड़ कर ही नहीं ले चलती हैं
वरन हमारी सोच में कुछ डिग्री का फर्क लाने की भी क्षमता
रखती हैं। ममता के बेपनाह विस्तार में भी संबंधों के दायरे
हमारी सोच में झुकाव, वरीयता स्वाभाविक रूप से ले ही आते
हैं। हम अनजाने ही इसे अपने भीतर पोसते हैं और कब यह हमारी
प्रतिक्रियायों में स्वतः ही व्यक्त हो जाता है हमें स्वयं
भी पता नहीं चलता। यह बात संकलन की प्रथम कथा, ‘माँ’ में
लेखिका ने कुछ इस अंदाज में कही है कि कथा समाप्त करते ही
पाठक चमत्कृत हो मुस्कुरा उठता है।
ऋता जी के रचना संसार से फुरसत से मुलाकात करने के
लिये यह संग्रह पढ़ना आवश्यक है। तो इस संसार में पहला कदम
रखते ही मैं आश्वस्त हो उठी थी कि मेरी यह पाठकीय मुलाकात
सुखद होने वाली है। भला गुलमोहर के रस- रंग से भी कोई
अछूता रह पाया है क्या?
इसी श्रेणी के अंतर्गत दो और
लघुकथाओं का जिक्र करना चाहूँगी– ‘डील’ और ‘नेग’। मैंने इन
दोनों कथाओं का जिक्र एक साथ क्यों किया? ‘डील’ हमारे
बदलते सामाजिक परिवेश की कथा है। ‘नेग’ में समय के साथ आया
परिवर्तन तो परिलक्षित है ही, किंतु साथ ही है पुरानी
रूढ़िवादी मानसिकता भी। गरज यह कि दोनों में यथार्थ समाहित
है पर मुझे जो भाया, वह है लेखिका का समस्याओं के समाधान
की ओर इशारा करने का तरीका। हर स्थिति में पत्थर तोड़ कर
ही धारा के प्रवाह के लिए रास्ता बनाना आवश्यक नहीं होता
वरन् कभी- कभी बहुत सुखद लगती है चंचल धारा की पत्थरों को
गुदगुदाती, छेड़ती खिलखिलाहट। इन दोनों कथाओं का
चुस्त-दुरुस्त चुहल भरा अंत ही कथाओं को रोचक बना जाता है।
किंतु रोचकता का यह अर्थ नहीं है कि समस्या की गंभीरता को
कहीं भी हल्का किया गया है। कथन और कहन का संतुलन बखूबी
बनाए रखा है लेखिका ने। |
‘नैतिकता’, कम शब्दों में प्रभावशाली ढंग से बात कहने के
कारण अपना असर छोड़ती है। दोहरी मानसिकता वाले आचरण पर चोट
करती कथा का कसाव उसका मुख्य आकर्षण हैं।
‘जहाँ काम आवे सुई कहा करे तरवारि’, यह सुना तो हम
सबने हैं, जानते भी हम सब हैं पर इसे जीवन में चरितार्थ कर
पाने में अक्सर चूक जाते हैं। इसकी अहमियत को दर्शाती है
कथा, ‘प्रैक्टिकल नॉलेज’। ‘प्रैक्टिकल नॉलेज’ की कथा-वस्तु
थोड़ा हट के है और यही ताजापन इस कथा की विशेषता भी है।
सटीक, सार्थक शब्दों के जरिए बड़ी स्वाभाविकता से मर्म की
बात पाठक तक पहुँचा दी है लेखिका ने।
‘रिटायर्ड’--- नौकरी की सेवा अवधि समाप्त होने पर व्यक्ति
के भीतर उपजे खालीपन, अनुपयोगी होने के एहसास को दर्शाती
कथा है। इस कथा में लेखिका का कहन मुझे बहुत प्रभावित कर
गया। न लेखिका ने कहीं उस खालीपन का जिक्र किया, न पात्र
विशेष ने व्यक्त किया, कथा के अन्य पात्रों का व्यवहार भी
पात्र विशेष के प्रति अत्यंत सौहार्द पूर्ण रहा फिर भी कथा
समाप्त कर मन भीग गया। पात्र- विशेष की मनःस्थिति हमारी
संवेदनाओं तक सहजता से पहुँच गई। अनकहे ही सब कुछ कह देने
का कौशल ही इस कथा को विशेष बना जाता है।
सामाजिक सरोकारों वाली श्रेणी में लेखिका ने कुछ ऐसे
सरोकारों की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित किया है, जिन पर हम
बात करने से बचना चाहते हैं, जिन्हें हम हमेशा कालीन के
नीचे खिसका देते हैं।ऐसी ही एक कथा है ‘कासे कहूँ’।
लघुकथा—‘युग परिवर्तन’ और ‘बेतार संदेश’ हमारी युवा पीढी
की संवेदनशीलता को केंद्र में रख कर रची गई कथाएँ हैं। इस
संवेदनशीलता को दर्शाने के लिए लेखिका ने जिस प्रकार नए
प्रतीकों का चयन किया है, वह उनकी विस्तृत और गहन सोच का
परिचायक हैं।
घर के भीतर बेटे और बेटी में भेद करने को ले कर तमाम कथाएँ
लिखी जाती रही हैं और आज भी लिखी जा रही हैं। हमारे समाज
में इस परम्परावादी सोच को ले कर जागरूकता बढ़ी है और
स्थितियों में बहुत परिवर्तन भी हुआ है, यह हमें स्वीकार
करना ही पड़ेगा किंतु अब भी कहीं न कहीं विभाजन की वह रेखा
बरकरार है, इस सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता।दो सिरों पर
खड़े इन दोनों विचार बिंदुओं को ऋता जी ने बड़े कौशल से
अपनी लघुकथा ‘आदर्श घर’ में चंद पंक्तियों में ही समेटा
है। परिवर्तित परिस्थियाँ और पारम्परिक सोच दोनों एक ही
कथा का हिस्सा होते हुए भी अपनी-अपनी अलग अपस्थित दर्ज
करती हैं और बेटी का तिलस्म टूटने जैसा दर्द भी हमें भीतर
तक छील जाता है। इसी प्रकार
सामाजिक सरोकार की श्रेणी में कुल मिला कर ४१ कथाएँ हैं जो
अपने-अपने ढंग से पाठक मन पर अपनी छाप छोड़ती हैं।
दूसरी श्रेणी ‘रिश्तों की लघुकथाएँ’ की है, जिसके अंतर्गत
४५ कथाएँ हैं। माता-पिता-बच्चे, भाई-बहन, सास-ससुर-बहू,
देवरानी-जिठानी, बहन-बुआ, सखियाँ, गरज यह कि हर रिश्तों के
ताने-बाने को बुना है, ऋचा जी ने इन कथाओं में। जैसा कि हम
सब जानते हैं कि हर रिश्ता बहु आयामी होता है। इन कथाओं से
गुजरते हुए मुझे रिश्तों के इन विविध आयामों की धूप- छाँव
को भरपूर जीने का मौका मिला।
कथा ‘काठ की हाँडी’ में लेखिका ने हाँडी के माध्यम से
जितने नपे-तुले ढँग से जिठानी से बात कहलवाई है, वह वाकई
अत्यंत प्रशंसनीय है। संप्रेषण किसी भी रचना की आत्मा होती
है और लघुकथा में शब्द सीमा की अनिवार्यता के कारण भावों,
विचारों का संप्रेषण तो रस्सी पर चलती नटी सा संतलुन का
कौशल माँगता है। इस संकलन की कई कथाओं में लेखिका का यह
कौशल उभर कर सामने आया है।
‘शापित फल्गु’ कई कारणों से एक बहुत ही खास कथा है। फल्गु
नदी और सीता मैया के पौराणिक संदर्भ का लेखिका ने बहुत
अच्छा उपयोग किया है। यह संदर्भ बहुत प्रचलित नहीं है अतः
इसका उल्लेख कर इसे सामने लाने के लिए ऋता जी बधाई की
पात्र हैं। ननद-भाभी के रिश्ते को नारी की पारस्परिक समझ
से जोड़ना, एक-दूसरे के अधिकारों के लिए साथ खड़े होने की
कटिबद्धता की ओर इंगित करना लेखिका की विकसित सोच के
परिचायक हैं। इस कथा की सबसे बड़ी विशेषता है एक पौराणिक
संदर्भ को सामाजिक विचारधारा से लघुकथा के चोले में कुछ इस
तरह फिट कर देना कि कहीं भी न असहजता लगे, न ढीलापन नजर
आए।
‘संक्राति की सौगात’, ‘मनमर्जी’ आदि कथाएँ सास-ससुर और बहू
के रिश्ते में एक नया मोड़ ले कर सामने आती हैं और मन को
कुछ ऐसी ठंडक पहुँचाती है जैसे जेठ की तपती धरती पर पहली
बारिश की फुहार। खासतौर से ‘मनमर्जी’ की शैली तो होंठों पर
मुस्कुराहट ले ही आती है।
‘बीज का अंकुर’, ‘सागर की आत्महत्या’, ‘पिता की कोख’, ‘ठोस
रिश्ता’ आदि कुछ ऐसी कथाएँ हैं जो अपने- अपने विशिष्ट
अंदाज में हमसे यह कहती हैं कि हर पारिवारिक रिश्ता दूसरे
रिश्तों को मजबूती देता है यदि हम समझदारी से काम लें।
कहते हैं लघुकथा में एक संदेश, एक उद्देश्य का निहित होना
उसकी शक्ति का परिचायक होता है। इस श्रेणी की लघुकथाओं में
पारिवारिक सम्बंधों में समस्याओं और उनके निराकरण का संदेश
निहित है। कहीं बेधड़क और मारक तरीके से, कहीं शांत भाव
से, कहीं थोड़ी चुहल के साथ बात इस ढंग से कही गई है कि
मर्म तक पहुँच जाती है, सीधे।
मानवेतर लघुकथाओं की श्रेणी में पाँच कथाएँ हैं। पाँचों
में अलग- अलग और कुछ तो बड़े अनूठे प्रतीक चुने हैं लेखिका
ने और सब में अपना अलग संदेश हैं। ‘प्यासी आत्मा’, दोधारी
तलवार सी हमारे सिर पर लटकती है तो ‘व्यवस्था का नकाब’,
हमें आइना दिखाती है।
अगली श्रेणी में है चार लघुकथाएँ जिन्हें ऋता जी ने
कोरोनाकाल की लघुकथाओं के अंतर्गत रखा है। इन लघुकथाओं की
पृष्ठभूमि भले ही कोरोनाकाल है किंतु उनकी कथावस्तु
सर्वकालिक है, फिर वह ‘दाग अच्छे हैं’ में सास-बहू का
परस्पर सांमजस्य हो या ‘भीड़-निर्माता’ में प्रिया की
संवेदनशीलता।
पाँचवी और अंतिम श्रेणी है विविध कथाओं की। इस श्रेणी में
४३ लघुकथाएँ हैं और जब श्रेणी का नाम करण ही विविध हो तो
कथानक में विविधता होनी तो स्वाभाविक ही है। एक तरफ
‘मरियम’, ‘समझौता’, आदि कथाएँ अपनी संवेदनशीलता से भीतर तक
उतर जाती हैं तो वहीं दूसरी तरफ ‘प्रतिकार’ जैसी कथा पीड़ा
और अट्टहास दोनों को एक साथ ही उपजा जाती है। हर कथा का
अपना विशिष्ट कथ्य है और विशिष्ट ही कहन भी।
कुल मिला कर ‘धूप के गुलमोहर’ से हो कर गुजरना संवेदनाओं,
भावों, सरोकारों की एक ऐसी यात्रा है जिसमें एक तरफ यथार्थ
हमारी बाँह थामे चलता है तो दूसरी ओर हालातों को बदलने की
संभावनाएँ भी हमारा साथ नहीं छोड़ती। यही सृजन का धर्म है,
जो निभा पाए उसके लिए लघुकथा अभिव्यक्ति का एक अत्यंत
सशक्त माध्यम है। लघुकथा विधा के प्रति ऋता जी की गंभीरता
और उसके निर्वाह के प्रति उनकी सजगता का परिचय तो इस संकलन
के प्रारम्भ में उनके द्वारा लिखी गई ‘मेरी बात’ से ही मिल
जाता है। जिक्र मेरी बात का निकल आया है तो इस संकलन की
भूमिका पर बात करने से मैं स्वयं को नहीं रोक पाऊँगी। धूप
के गुलमोहर की भूमिका लिखी है प्रेरणा गुप्ता जी ने।
लघुकथा के क्षेत्र में प्रेरणा जी एक जाना- माना हस्ताक्षर
हैं और जो ईमानदारी इस विधा के प्रति उनकी स्वयं की
लघुकथाओं में परिलक्षित होती है, उसी ईमानदारी का निर्वाह
उन्होंने इस संकलन की भूमिका लेखन में किया है। मेरे भीतर
का पाठक मन और मस्तिष्क दोनों ही स्तर पर खुश है कि ‘धूप
के गुलमोहर’ का रसास्वादन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। ऋता
शेखर जी को हार्दिक शुभकामनाएँ। अबाध गति से चले आपकी लेखन
यात्रा।
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नमिता
सचान
सुंदर
१ जुलाई २०२२ |