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आज सिरहाने

 

रचनाकार
राम मूरत राही

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प्रकाशक
 अक्षर विन्यास
उज्जैन

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पृष्ठ - १४४

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मूल्य रु- ३००

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आवरण
संदीप राशिनकर

भूख से भरा पेट (लघुकथा संग्रह)

समकालीन लघुकथा परिदृश्य में राम मूरत ‘राही’ एक सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। राही जी की लघुकथाएँ न केवल हिंदी के ही विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं एवं लघुकथा संकलनों में प्रकाशित होती रहती हैं, वरन मराठी, उड़िया, पंजाबी, बांगला, मालवी आदि अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित भी हुई हैं और प्रकाशित भी। उनकी लघुकथाएँ मानवीय संवेदनाओं को पोषित करने, जिलाए रखने की एक बेइंतहा ईमानदार कोशिश के रूप में सामने आती हैं।

‘भूख से भरा पेट’ राही जी का द्वतीय लघुकथा संकलन हैं। संकलन में १११ लघुकथाएँ हैं। लघुकथाओं को पढ़ा तो एक साँस में जा सकता है पर इन कथाओं को बूँद- बूँद गुनने, को पाठक बाध्य हो जाता है। सरल, स्पष्ट भाषा में मर्म तक पहुँचने वाली बात कहना इस संग्रह की कथाओं की विशेषता है। संग्रह की कुछ कथाएँ, जहाँ एक ओर हमारे जीवन की विडंबनाओं, संबंधों के दोहरेपन, आडम्बर आदि से हमें दो -चार कराती हैं, वहीं कुछ अन्य कथाएँ अँधियारे में जलती बाती-सी सकारात्मकता का उजास बिखेरती हैं।

यद्यपि लघुकथा की शब्द–सीमा को ले कर सबके अपने अलग-अलग मत हैं तथापि कम से कम शब्दों में अर्थपूर्ण बात कहना लघुकथा का दायित्व है, यह बात सर्वस्वीकार्य है। इस संग्रह की कतिपय लघुकथाओं में इतने कम शब्दों में संपूर्ण मंतव्य को स्पष्ट कर बात कही गई है कि हम उन लघुकथाओं को अति लघुकथा भी कह सकते हैं, किंतु शब्द कम होने का अर्थ यह नहीं कि कथाएँ किसी भी प्रकार से अपूर्ण हों वरन उनका स्लिम-फिट होना ही उनके सौष्ठव में वृद्धि करता है।

यहाँ हम 'भूख से भरा पेट' की तीन लघुकथाओं की बात करना चाहेंगे - 'कफन खसोट', ' बदलाव का असर' और ' मेरा तीर्थ'। तीनों ही कथाएँ लगभग पचास से भी कम शब्दों की हैं किंतु अपनी संप्रेषण क्षमता के कारण अनुपम बन पड़ी हैं। 'कफन खसोट' मनुष्य की स्वार्थी मानसिकता के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करती है, 'बदलाव का असर' जो इंगित करती है उसकी कल्पना कर हम मुस्कुरा उठते हैं और 'मेरा तीर्थ' मानव मन की पावनता को प्रतिष्ठित कर जीवन मूल्यों के प्रति आस्था जगाती है। पाठक सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि संग्रह की कथाओं का संवेदना फलक कितना विस्तृत है।

इस संग्रह की भूमिका श्री सतीश राठी जी ने लिखी है और उन्होंने भूमिका का प्रारम्भ ही यह कहते हुए किया है कि इन लघुकथाओं में करुणा का स्वर है। इन कथाओं से गुजरते हुए भी यही अनुभव होता है कि अपने आस-पास फैले दर्द, पीड़ा के प्रति लेखक की संवेदनशीलता, करूणा अत्यंत गहन है और बिना लाग-लपेट के उन विसंगतियों को सहज, सपाट रुप में अभिव्यक्त कर देना ही कथाओं की ग्राह्यता को बढ़ा देता है। ‘हँसते आँसू’ के जोकर की पीड़ा हो या ‘इंसान नहीं’ के बापू की विवशता, दर्द और सच्चाई को यों सीधे कह देना आसान नहीं होता।

राही जी शिल्प और शब्दों के अनावश्यक मोह जाल से स्वयं को मुक्त रखते हैं। उनकी अर्जुन दृष्टि समाज में व्याप्त विसंगतियों, जीवन की विषमताओं पर टिकी रहती है और वे इन्हें सहजता से अपनी कथाओं में उतार देते हैं। हो सकता है कभी किसी को यह सीधी अभिव्यक्ति कलात्मक न लगे किंतु सामाजिक सरोकारों से लेखक के गहन जुड़ाव को कोई भी नकार नहीं सकता। यही नहीं जीवन की विसंगतियों के प्रति एक सहज स्वीकार्य है इन कथाओं में और व्यक्तिगत स्तर पर छोटे-छोटे प्रयासों से हम दुर्गम पथ पर थोड़ी बहुत शीतल छाँव कर सकते हैं, इस ओर इंगित भी करती हैं ये कथाएँ। ‘इंसानियत’ में अपने लिए खरीदे गए एक किलो अनार वृद्धा को दे देना हो या ‘अनपेक्षित’ के पुलिस वाले का व्यवहार, इसी प्रयास के दृष्टांत हैं।

लघुकथा का अंत, जिसे कभी-कभी पंच भी कहा जाता है, पाठक के मन में कथा को लम्बे समय तक जीवंत बनाए रखने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ‘डाटा और आटा’, संग्रह की एक ऐसी ही कथा है। पैरों में पड़ी चांदी की पायलों पर बार-बार पड़ती लक्ष्मी की नजर और डाटा और आटा के इंतजाम का होना, बड़ी खूबसूरती से लेखक ने अनकहे ही सब कुछ कह दिया। अपने आभूषण के प्रति मेहनतकश महिला का सहज मोह, मन में चलती कशमकश और अंत में माँ और ग़ृहणी का स्वाभाविक चुनाव: अपने परिवार की आवश्यकता। कथा में कहीं भी अतिरेक नहीं है किंतु हम संवेदना के हर स्तर को जी लेते हैं।

विषय के आधार पर पर्याप्त विस्तृत फलक है, इस संग्रह की कथाओं का। प्रकृति के दोहन, पर्यावरण में बढ़ते असंतुलन के प्रति चिंता है तो वातावरण के संरक्षण के प्रति आग्रह करती कथाएँ भी हैं। ‘फिक्र’ के मोहनलाल जी अपने अमरूद के पेड़ पर कुछ फल इसलिए छोड़ देते हैं क्यों कि उनका मानना है कुछ फलों पर गिलहरी और अन्य पक्षियों का अधिकार है। यह निर्मल भाव कथा की आत्मा को ही उजास से नहीं भरता वरन हमें भी रौशनी दिखाता है। निःसंदेह ही कलात्मकता साहित्य का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष है किंतु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हमारे समाज में सत्य, सुंदर और शिव को जिलाय़े रखने का प्रयत्न करना साहित्य की प्रत्येक विधा का कर्तव्य है। राही जी की लघुकथाएँ रोजमर्रा के संदर्भों के माध्यम से भी इस कर्तव्य पूर्ति की ओर पूरी निष्ठा से कदम बढ़ाती हैं।

‘परोपकारी उवाच’ के पेड़ दादा जुग्गीलाल की परेशानी देख उससे स्वयं को काट उपयोग में लाने का अनुरोध करते हैं तो ‘अपराध बोध’ का नायक पेड़ काटने के जुर्म के लिए स्वयं थाने में आत्मसमर्पण करने जा पहुंचता है। प्रकृति एवं मानव के बीच जो यह अटूट संबंध है, वह हमारे जीवन के लिए मात्र भौतिक रूप से ही आवश्यक नहीं है वरन् वह समाज के रूप में हमारे भावनात्मक संतुलन को भी आधार प्रदान करता है। इन कथाओं में सकारात्मकता का स्वर भी है और बदलते परिवेश के प्रति चिंता भी।

संग्रह की शीर्षक लघुकथा ‘भूख से भरा पेट’ अत्यंत संवेदनशील कथा है जिसमें भूख से बेहाल भिखारिन अपनी रोटी दूसरे भूखे बालक को दे देती है। ऐसी कथाओं से राही जी आज के धूमिल और दूषित परिवेश में भी मनुष्यता, संवेदना, अच्छाई के होने पर हमारा विश्वास जिलाए रखने की कोशिश करते नजर आते हैं।

वैचारिक एवं व्यवहारिक दोनों ही स्तर पर समाज में व्याप्त बुराइयों पर राही जी की पैनी नजर है। वे अपनी कथाओं में उन्हें उजागर भी करते हैं और अत्यंत स्पष्ट तथा बेबाक ढंग से उजागर करते हैं किंतु कहन में कहीं भी भर्त्सना का स्वर कर्कश हो मन में कड़ुवाहट नहीं पैदा करता। सड़क दुर्घटना के होने पर घायल को शीघ्र अति शीघ्र उपचार उपसब्ध कराने की चेष्टा करने के स्थान पर मोबाइल से वीडियो बनाना बहुत तेजी से फैलती सामाजिक व्याधि है। हममें से बहुत तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसके शिकार भी हो चुके होंगे। संवेदनहीनता की चरम स्थिति है यह। कथा ‘चिंता नहीं’ में लेखक ने हमारा ध्यान इसकी ओर आकृष्ट किया है और साथ ही थमा दिया है यह विश्वास भी कि अंधेरे के सैलाब में रौशनी के चिराग हैं और उन्हें जलाए रखना हमारे ही वश में है। सकारात्मकता का यही पुट राही जी की कथाओं की सबसे बड़ी विशेषता है।

संग्रह के विषय में बात करते हुए संतोष सुपेकर जी कहते हैं, “रचना लिखने के दो उद्देश्य होते हैं- स्वांतः सुखाय और परान्तः सुखाय। चूँकि राही जी समाज और परिवेशगत लेखन से जुड़े हैं, इसलिए परान्तः सुखाय की पवित्र भावना से कार्य करते हैं।“ कहना न होगा कि राही जी की सृजन प्रक्रिया के लिए यह समुचित एवं सटीक उद्गार है।

सहज, सरल और स्पष्ट रूप से यथार्थ से परिचित कराती, विसंगतियों, विषमताओं को सामने लाती, भरोसा जगाती, राह सुझाती कथाओं का संग्रह है ‘भूख से भरा पेट’। समाजोपयोगी रचनाएँ हैं राही जी की और ऐसा साहित्य दीर्घजीवी होता है। अंत में विश्वास के साथ इतना कहा जा सकता है कि 'भूख से भरा पेट' की लघुकथाएँ पाठक के मन को समृद्ध करती हैं।

- नमिता सचान सुंदर
१ सितंबर २०२२

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