संपादक
शिवकुमार अर्चन
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प्रकाशक
पहले पहल प्रकाशन
भोपाल
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पृष्ठ - १८२
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मूल्य : ३०० रुपये
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'सप्तराग (गीत-नवगीत संकलन)
गीत-नवगीत के बीच जो एक
घनिष्ठ रिश्ता है और उनके बीच में जो एक सूक्ष्म विभेद है,
उसकी साक्षी देते भोपाल नगर के सात प्रतिष्ठित कवियों की
गीत-रचनाओं के समवेत संकलन 'सप्तराग' का आना इधर के
गीत-प्रसंग की एक प्रमुख घटना है।
इस संकलन में गीतकविता की तीन पीढ़ियों का प्रतिनिधित्त्व
हुआ है - एक ओर हैं श्री हुकुमपाल सिंह 'विकल' एवं श्री
जंगबहादुर श्रीवास्तव 'बंधु', जो आयु एवं अपनी सुदीर्घ
गीत-यात्रा की दृष्टि से छायावाद की परिधि को छूते है तो
दूसरी ओर हैं उनके बाद की पीढ़ी के गीत की साखी देते भाई
दिवाकर वर्मा, मयंक श्रीवास्तव एवं शिवकुमार अर्चन और उसके
बाद के आज के समय के गीत के तेवर से रू-ब-रू कराते युवा
कवि दिनेश प्रभात एवं मनोज जैन 'मधुर'। इन गीत कवियों का
एक साथ उपस्थित होना गीत-नवगीत के बीच में उपजे सभी
विवादों को एक साँझे संवाद की सुखद स्थिति में हमारे सामने
प्रस्तुत करता है। कुछ वर्षों पूर्व भोपाल के यशस्वी पत्र
'प्रेसमेन' के माध्यम से 'गीत को गीत ही रहने दो' शीर्षक
एक परिसंवाद का आयोजन किया गया था, जिसमें गीत-नवगीत के
रिश्ते और उनके बीच के विभेदों पर एक सार्थक बहस हुई थी।
यह संकलन उसी परिसंवाद की वह कड़ी है, जिसमें इस बात को
रेखायित किया गया है कि गीत एवं नवगीत एक ओर तो घनिष्ठ
रिश्ते यानी पिता-पुत्र सम्बन्ध से जुड़े हैं, किन्तु दूसरी
ओर उनमें कहीं-न-कहीं एक विशिष्ट अंतर भी है, जो उन्हें
एक-दूजे से अलगाता है।
इस संग्रह के वरिष्ठतम से लेकर कनिष्ठतम गीतकवि की रचनाओं
में इस द्वंद्व के संकेत स्पष्ट दिखते हैं। यदि विकल एवं
बंधु में साग्रह नये कथ्य के साथ-साथ नई कहन को अपनाने की
लालसा झलकती है तो दूसरी ओर दिनेश प्रभात एवं मनोज'मधुर'
के गीतों में भी पारम्परिक कहन के पर्याप्त संकेत झलकते
हैं। बीच की पीढ़ी के तीनों गीतकार इस संकलन की उस
संधिरेखा पर खड़े दिखाई देते हैं, जहाँ से गीत को नवगीत
बनते देखा जा सकता है।
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इस संकलन
में इन सातों कवियों की सपरिचय एवं सवक्तव्य ग्यारह-ग्यारह
गीत-कविताएँ प्रस्तुत हुई हैं। संग्रह के 'समर्पण' से इन
कवियों का मन्तव्य स्पष्ट हो जाता है - 'उनको जो गीत में
आस्था / रखते हैं / और उनको भी / जो इसकी मृत्यु की /
अफवाह को / सच मान बैठे हैं' यानी यह संग्रह एक ओर
गीतकविता के साक्षी के रूप में प्रस्तुत हुआ है तो दूसरी
ओर एक चुनौती और चैलेन्ज के रूप में भी पाठक की बौद्धिकता
को कुरेदता है। वस्तुतः पिछले आधी सदी का हिंदी कविता का
इतिहास गीत के विरुद्ध 'नई कविता' के पुरोधाओं द्वारा
लगाये विविध आरोपों-अस्वीकारों का रहा है। इस दृष्टि इस
संग्रह के समर्पण के इस तेवर का अतिरिक्त महत्त्व है।
गीत-नवगीत की अस्मिता को यह समर्पण-वाक्य निश्चित ही
रेखांकित करता है। संकलन के सम्पादक श्री शिवकुमार 'अर्चन'
अपनी प्रस्तुति-भूमिका में भोपाल नगर के गंगा-जमुनी
सांस्कृतिक परिवेश पर 'छ्न्दानुरागी भोपाल जहाँ आरती और
नमाज़ को गले मिलते देखा जा सकता है' वाक्यांश के माध्यम
से बड़ा ही सार्थक इंगित किया है। भोपाल नगर की सांस्कृतिक
चेतना एवं उसके रागात्मक अहसासों का निश्चित ही यह समवेत
संकलन एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है।
जैसा कि
पहले ही कहा जा चुका है संग्रह के सातों कवियों की रचनाओं
में गीत की पारम्परिक और नवगीतात्मक कहन की बानगी एक साथ
उपस्थित दिखाई देती है। संग्रह के वरिष्ठतम कवि हैं डॉ.
हुकुमपाल सिंह 'विकल'। उनकी कविताई का शुभारम्भ छायावाद
काल के अंतिम पड़ाव से होता है और आज के नवगीत के चौथे
आयाम के कालखंड तक उसका प्रसार-विस्तार है। उनके गीतों में
एक सहज पारम्परिक सामाजिक उत्तरदायित्त्वबोध है, जो हमारी
देशज आत्मीय संवेदना को व्याख्यायित करता है - फिलवक्त के
पदार्थवादी आपाधापी वाले संवेदनशून्य मूल्यहीन सभ्यता के
उत्तर में वे हमारे सनातन मूल्यों की पुनर्स्थापना इस
प्रकार के आत्मीय संबोध से करने का उपक्रम करते दीखते हैं
-
रोटी एक खड़े आँगन में / भूखे चार जने / खाते नहीं बने
... ... ...
चार जनों ने उस रोटी को / सहज बाँटकर खाया
देख उसे आँगन का बिरवा / मन-ही-मन मुस्काया
द्वार-देहरी उसी ख़ुशी में / लगे संग नचने
उनकी चिंताएँ भी वही हैं जो आज के आम चिन्तनशील आदमी की
हैं - मसलन, 'राजपथों पर डाल दिए ओछी किरणों ने डेरे' और
'लगीं टूटने परम्परा से / नेहभरी निष्ठाएँ' या 'राजपथों से
राजनीति की ऐसी हवा चली / राम-भरत का प्यार नहीं अब /
दिखता गली-गली'। वैसे आज की गीत-कविता के प्रति वे आश्वस्त
नहीं दिखते -
अपनी भावभूमि से हटकर / लगे शब्द शिल्पों को ढोने
नए प्रतीकों की भटकन में / पश्चिम को लग गये पिरोने
सभी गलत संदर्भ खोजते / गंध छोड़ अपने चन्दन की
उनके कुछ गीत विशुद्ध पारम्परिक हैं, पर उनमें उनके कवि की
विशिष्ट कहन स्पष्ट दीखती है - उदाहरणार्थ 'संध्या की अनलस
बाँहों में / सूरज को इठलाते देखा' अथवा 'ठूँठ-ठूँठ पर
चौपाई-सी डाल-डाल दोहे / अमराई में अंग-अंग में पद्माकर
सोहे' जैसी सम्मोहक उक्तियाँ उनके गीतों में उपलब्ध हुई
हैं। समूचे रूप में वे एक ऐसे गीतकवि हैं जिनमें नवता का
आग्रह तो है और नये ढंग की कहन के प्रति रुझान भी है,
किन्तु वह कहन उनकी स्वाभाविक भूमि नहीं है। फिर भी नवगीत
की कहन को अपनाने के प्रति उनकी रुझान संग्रह के कई गीतों
में दीखती है। उनका यह सम्मोह उनके गीतों को क्या दिशा
देगा यह आने वाला समय ही बता सकेगा। ,
संकलन के दूसरे वरिष्ठ कवि है जंगबहादुर श्रीवास्तव
‘बन्धु’। उनके वक्तव्य में एक बहुत ही सार्थक टिप्पणी हुई
है - 'गीत को अपने अंदर ऐसी आवाजें पैदा करनी होंगी जो समय
के साथ सार्थक संवाद करती हों। समय की सांकेतिक भाषा आगाह
करती है कि गीत अपने नखों में शातिर नुकीलापन और चितवन में
चुटीले सम्मोहन के प्रभावशाली बिन्दुओं का अविष्कार करे
तथा शब्दों की मामूली चटक-मटक के मोहपाश से बाहर आये’।
उनके गीतों में एक नये किसिम की भाषा-संरचना देखने को
मिलती है, जो उन्हें अन्य गीतकारों की रचनाओं से अलगाती
है। व्यंग्य की प्रखर अभिव्यक्ति कई गीतों में हुई है -
परम्परा से प्राप्त पौराणिक बिम्बों का नये सन्दर्भों में
प्रयोग उनके ऐसे गीतों की विशिष्टता है। 'यहाँ के नागरिक
ब्रह्मा सभी हैं चार मुख वाले', 'कुंद इंदु दर गौर कामिनी
/ भीगे पट मधुरंगम / मन सन्यासी गोता खाए / तिरवेनी के
संगम ... प्रीति उर्वशी रीझ पुरुरवा देवराज विष घोलम ...
तन्वंगी सत्ता के पग में / पायल खन खन खन' जैसी पंक्तियाँ
इन गीतों को एक अनूठा भाव-संवाद प्रदान करती हैं, इसमें
कोई संदेह नहीं है। उनकी एवं सम्भवतः पूरे संकलन की
उपलब्धि-रचना है ‘खरी कमाई मेरा घर’ शीर्षक गीत, जिसमें
परिवार एवं घर के बिखराव को बड़े ही सजीव बिम्बों में
परिभाषित किया है कवि ने। देखें उसकी कुछ सार्थक पंक्तियाँ
–
बड़े सबेरे अम्मा चाची / भजन सुनातीं चाकी पर
तुलसी सूर कबीरा कुम्भन / मीराबाई मेरा घर
... ... ...
दादी वाली रई मथानी / बाबा के बजरंगबली
खेल कबड्डी धमा चौकड़ी / घाम घरों से भाग चली
सांझ आरती ठाकुर जी की / जय जगदीश हरे वाली
ग्यारह दोहे पांच सोरठा / दस चौपाई मेरा घर
घर के पीछे महुआ पीपल / दरवाजे का बाबा नीम
रामू रंगा अगनू तेली / चुन्नन मिसरा शेख सलीम
मन्दिर मस्जिद की आशीषें / गुरबानी गुरुद्वारे की
पीड़ा को पी जाने वाला / चिर विषपायी मेरा घर
यह गीत निश्चित ही हमारी उस पारम्परिक आस्तिक अस्मिता का
आख्यान कहता है, जिसमें सब कुछ शामिल है और जो अब बिलाने
की कगार पर है। इसी तरह की कुछ पंक्तियाँ है एक और गीत की
-
दादी के बक्से से निकला / हल्दी रोली चन्दन
पुरिया भर ब्रज लीला निकली / डिबिया में रघुनन्दन
दो दोहे रहीम के निकले / हनूमान चालीसा
बंधी मिली तुलसी माला में रामनाम की गाँठ
गीत की यह भाषा-भंगिमा हमारी पारम्परिक बोली-बानी से उपजी
है और इस नाते हमें अपनी परम्परा से जोडती है। यह कहन, सच
में, अलग है आम गीत की कहन से। किन्तु यह पारम्परिकता -मोह
ही संभवतः इन गीतों की परिसीमा भी है।
संकलन के वय-वरिष्ठता क्रम में अगले कवि हैं दिवाकर वर्मा।
उनकी राय में, 'संवेदना की तीव्रता जितनी अधिक होती है,
अभिव्यक्ति उतनी ही प्रभावी होती है' और 'अभिव्यक्ति का
माध्यम भी संवेदना स्वयं ही खोज लेती है' एवं उनके 'गीत
अनुभूति और दृष्टि की उपज हैं। अनुभूति और दृष्टि यानी
जीवन के अनुभवों से उपजे अहसास और समझ-सोच - हाँ, यही
तत्त्व तो किसी कवि की कविताई के कथ्य को प्रामाणिक बनाते
हैं। उनके गीतों में फिलवक्त की विसंगतियों को एक नये
भाषिक मुहावरे में अभिव्यक्ति मिली है, जो उन्हें नवगीत की
भाव एवं कहन-भंगिमा के एकदम निकट ला देती है। संकलन में
शामिल उनका पहला ही गीत इस तथ्य की बानगी देता है। देखें
उसके कुछ अंश -
शहर अघासुर / खड़ा लीलने / निश्चल वृन्दावन
बुद्धूबक्सा शयनकक्ष में / खेल रहा पारी
बोली-भाषा बदली / चौका-व्यंजन बदल गये
वृन्दावन की कोलगेट से भोर दमकती है
डियोडोरेंट की खुशबूवाली / साँझ गमकती है
मोबाइल की रिंगटोन पर / पागल वृन्दावन
इसी तरह का एक और गीत-अंश है -
घर-घर 'नूडल और दो मिनिट' / सिर चढ़कर बोले
नयी क्षितिज, आयाम नवल / हैं टी.वी. ने खोले
ये पंक्तियाँ आज के आम भारतीय समाज के बदलते परिवेश की
व्याख्या तो करती ही है, साथ ही इनकी भाषिक संरचना भी आज
के समय के अनुकूल ही है। यही तथ्य इन्हें विशिष्ट बनाता
है। किन्तु परम्परागत गीतात्मकता की ध्वनियाँ भी उनके कई
गीतों में स्पष्ट झलकती है, जैसे यह गीतांश -
प्रस्फुटित रक्ताभ आभा / धूप की रोली धुली-सी
गंध-किंशुक-पँखुड़ियों की / क्षीर में केसर घुली-सी
ओस आवृत वसुमती पर / सूर्यर्श्य्यावलि थिरकती
स्वर्ण-मिश्रित रजत-बुंदकी / पारिजातों से लिपटती
द्विवेदी युग एवं छायावाद काल के कविता स्वरूप एवं
भाषिक-शिल्प की याद ताज़ा कर जाता है। एक ओर यह कवि की
शब्द-सामर्थ्य को दर्शाता है तो दूसरी ओर यह एक बीते युग
के भावबोध तथा शिल्प के प्रति उनके सम्मोह की बानगी भी
देता है।
संकलन में शामिल सभी कवियों में मयंक श्रीवास्तव इस दृष्टि
से विशिष्ट हैं कि नवगीत की पचास वर्षों से ऊपर की यात्रा
में अपने सृजन के प्रारम्भ से ही वे शामिल रहे हैं। उनकी
रचनाओं में नवगीत के समूचे इतिहास के सभी पड़ावों के इंगित
मिलते है। वे एक सम्पूर्ण गीत कवि हैं और उनकी कविताई में
बिम्बों का अवतरण बिलकुल सहज रूप में होता है। उनके गीतों
में आज की लगभग सभी राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक अनर्गल
चेष्टाओं एवं चिन्तनशील व्यक्ति के मन में उनसे उपजी
चिंताओं का आकलन एवं आलेखन हुआ है। एक ओर यदि 'सत्ता और
सियासत के कपटी मल्लाहों', 'अक्षयवट के नीचे बैठे हुए
जुआरी' शासक वर्ग की खबरें इन गीतों में हैं तो दूसरी ओर
आज के तथाकथित सभ्य समाज में पलते 'हत्या चोरी लूट डकैती /
गबन घूसखोरी' के वातावरण के प्रति कवि की आशंका एवं आक्रोश
की भी अभिव्यक्ति इन गीतों में हुई है। कवि 'द्रव्य कोष के
स्रोत अनैतिक -सभ्य लुटेरों के 'लॉकर / तस्कर बिल्डर अफसर
लीडर / के गठबन्धन' के साथ 'न्याय तुला कमजोर हुई' की जो
त्रासक स्थिति आज के समय में जो पैदा हुई है, उसकी 'पड़ताल
जरूरी है' मानता है। जो 'दोमुँही निर्लज्ज निष्ठाएँ' आज के
समय में पनप रही हैं और जिनसे हमारी समूची व्यवस्था, हमारा
पूरा समाज बिखराव की स्थिति में है, उन्हें देख-परखकर कवि
का मन 'राह पर चलता हुआ फकीरा' और 'कबीरा' दोनों होने लगता
है और वह 'धूप के अय्याश चेहरे से...लड़ाई' की मुद्रा में
उद्यत हो जाता है। फिलवक्त में जो हाट-संस्कृति पनपी है और
जिसके तहत 'घर अपनी प्रासंगिकता खो बैठा' है, उसकी खबर
देती हैं इस तरह की गीत-पंक्तियाँ -
घर आकर बाज़ार हमारी / ज़ेब टटोल गया
... ... ...
अनुशासित चूल्हे का छोटा हो भूगोल गया
अक्षर मँहगा हुआ / मगर कंगाल हथेली है
ग्राम्य परिवेश के शहरीकरण से उपजे 'चिमनी के बेरहम धुएँ
का ...अंकुश' और उससे 'जंगल बनते हुए गाँव' उसे व्यथित
करते हैं। उनसे उपजे अनर्गल संदर्भों की खबर देते हुए वह
कहता है -
करते हैं उत्पात / शहर के पढ़े हुए तोते
पगडंडी मिट गई / शहर की छेड़ाखानी में
... ... ...
लोकधुनें कह रहीं / नहीं सुख / रहा किसानी में
कोयल लगी हुई है / गिद्धों की मेहमानी में
इसी के साथ कवि की अपनी वैयक्तिक पीर भी एक-आध पारम्परिक
शैली के गीत में व्यक्त हुई है, किन्तु उनमें भी एक अलग
किसिम की दृष्टि हमें देखने को मिलती है, जो उन्हें
पारम्परिक गीतों से अलगाती है -
झर रहे पत्ते हमारी / कल्पना के मीत हैं
ये हमारे छंद हैं / ये ही हमारे गीत हैं
लिख दिया शुभ भाग्य / पतझड़ ने हमारे भाल पर
दे रहीं सूनी टहनियाँ / साँस को संजीवनी
अंग्रेजी रोमांटिक कवि पी.बी.शेली की प्रसिद्ध 'ओड टू दि
वेस्ट विंड' गीतकविता में पतझड़ का भविष्य की जीवनदायिनी
ऋतु के रूप में अंकन हुआ है, किन्तु यहाँ तो मनुष्य के
जीवन के उम्र रूपी पतझड़ की प्रतीक-कथा कही गयी है और
उसमें भी गीत-मन की शाश्वतता को बड़े ही सटीक रूप में
अभिव्यक्ति दी गयी है। यह कथ्य बिलकुल अलग ढंग का है।
इसमें जो उद्भावना हुई है, वह विशुद्ध भारतीय काव्य
अस्मिता की है,जो अनथक-अजर एवं अनंत है।
इस समवेत संकलन के सम्पादक शिवकुमार 'अर्चन' की गीतात्मकता
गीत के प्रति इस आस्था से उपजी है कि 'गीत भाषा की
सर्वोत्तम अभिव्यक्ति हैं' और इनकी 'व्याप्ति लोकरंजन से
लोकमंगल तक है'। कवि का 'दृढ विश्वास है भविष्य में समय की
छन्नी से यदि कुछ बचा तो वो शायद गीत की ही पंक्तियाँ
होंगी'। उनके गीतों में भी नवगीतात्मक कहन के प्रचुर अंश
मिलते हैं। समय के सन्दर्भों का इंगित देते ये गीत हमें उस
मनस्थिति से जोड़ देते हैं, जिसमें 'साँस में बजता नहीं अब
कोई बादल राग / काल-धुन से बहिष्कृत / बेसुरे पत्तों' की
'ही ध्वनियाँ हम सुन पाते हैं। आज के वक्त का हवाला देती
कवि के पहले ही गीत की इन पंक्तियों में पौराणिक एवं लोक
सन्दर्भों के बिम्ब बड़ी ही सहजता से अवतरित हुए हैं, जो
अर्चन के कवि की कहन को विशिष्ट बनाते हैं -
यह समय चट्टानवत है
यक्ष प्रश्नों के नहीं उत्तर / युधिष्ठिर का शीश नत है
अंधकूपों से निकलते / सत्य के कंकाल
बोधिवृक्षों पर जमे हैं / सैकड़ों वेताल
मौन हैं सारी कथाएँ / और विक्रम भूमिगत है
... ... ...
दुकानों में बेच आए / क्रांति की भाषा
पांचजन्य गिरवी पड़ा है / युद्ध से अर्जुन विरत है
आज के छल-प्रपंच वाले विषम समय की आख्या यों कही गई है -
आँखों के आगे दीवारें / आँखों के पीछे जंगल हैं
जिनके चेहरे रंग-बिरंगे / उन पर लिखे हुए मंगल हैं
वह बिलकुल साधारण जिसके / नाखूनों में धार नहीं है
आम आदमी के जीवन सामान्य चिंताओं से जोड़ती ये पंक्तियाँ
साधारण हैं, फिर भी कितनी सहज बिम्बात्मक हैं -
ऑफिस में भी चिंता सर पर / कल बिजली का बिल भरना है
सब्जी, दवा, दूध, अम्मा का / चश्मा भी तो बनवाना है
चित्रात्मकता अच्छी कविता की एक विशिष्ट पहचान है। अर्चन
का एक प्रकृतिपरक शब्द-चित्र तो हमें नवगीत के प्रथम चरण
की याद बरबस दिला जाता है -
गीतों के नीलकंठ - मेघों के झगड़े -बिजली की डांट-डपट
झींगुर की चिल्लपों / मेढक की टर्र टर्र
बूँदों की फ्रॉक पहिन / हवा चले फर्र फर्र
भींग रही नन्हीं सी गौरैया बाँस पर
अर्चन की रचनाओं में नवगीत की आहटें एकदम स्पष्ट हैं इसमें
कोई संदेह नहीं है।
दिनेश प्रभात के अनुसार गीत उनकी साँसों के सरगम में है,
धड़कनों की थिरकन में है, आंसुओं के बह्वों में है, स्वप्न
के अलावों में है, दर्द के उतार-चढ़ावों में है यानी गीत
के वे हर वैयक्तिक स्वरूप को जानते-पहचानते हैं। पारम्परिक
भावबोध का उनका एक गीत अपनी अनूठी कहन-भंगिमा की दृष्टि से
बिलकुल अनूठा बन पड़ा है। देखें उसकी कुछ पंक्तियाँ -
एक हिमालय हूँ तब ही तो / धीरे-धीरे पिघल रहा हूँ
जितना माँज रही है पीड़ा / उतना उजला निकल रहा हूँ
जितना अनुभव मिला उम्र से / उतनी यादें हैं बालों में
इस वैयक्तिक अनुभूति में भी एक सामाजिक संचेतना प्रच्छन्न
रूप से व्याप्त है। इसी भाव की एक और गीत की पंक्तियाँ है
-
झील नहीं हूँ इक दरिया हूँ / ठहरा कब हूँ सिर्फ चला हूँ
राहगीर हूँ कड़ी धूप में / खूब तपा हूँ खूब जला हूँ
वक्त नहीं शामिल कर पाया / कभी मुझे बैठे-ठालों में
शहरीकरण के वर्तमान माहौल में सनातन सांस्कृतिक मूल्यों के
विघटन और ग्रामीण परिवेश की विकृति की कथा कमोबेश आज के हर
गीतकवि की संवेदना को उद्वेलित करती दिखती है। दिनेश भी
इससे अछूते नहीं रह पाए हैं। उनकी स्वयं की ग्रामीण
पृष्ठभूमि उन्हें आज के बदले ग्राम्य परिवेश के स्वरूप को
खिन्न मन से अवलोकती है और व्यथित होती है -
कई दिनों से मुझे नदी ने / चिट्ठी नहीं लिखी
झूले वाली नीम याद में / व्याकुल नहीं दिखी
... ... ...
बैठ पेड़ पर नहीं बजाता कोई अलगोजे
आल्हा के बिखरे पन्नों को / कौन भला खोजे
... ... ...
आज शहर में और गाँव में / अंतर नहीं बचा
आज के बढ़ते आर्थिक वैषम्य का चित्रण उनके एक गीत में बड़े
ही सटीक रूप में हुआ है। देखें उस गीत का यह अंश -
काले मुँह का यह बादल...
गंदी बस्ती की आँखों में / पेरिस का सपना
... ... ...
काला हिरन अंगरक्षक की / किससे मांग करे
बेचारा खरगोश पाँव में / किसके शीश धरे
टाइगरों की मनमानी से / जंगल है व्याकुल
इस गीत-अंश में प्रतीक-कथन के माध्यम से आज के
राजनैतिक-आर्थिक शोषण-तन्त्र का बखूबी आकलन हुआ है ।
संग्रह के सबसे कम उम्र के और आज के गीत-नवगीत का
प्रतिनिधित्व करते कवि हैं मनोज जैन 'मधुर'। अपने वक्तव्य
में 'मधुर' ने दो बहुत ही महत्त्वपूर्ण बातें कहीं है - एक
तो यह कि आज के 'नवसामंतवाद और नवउपनिवेशवाद के विरुद्ध
गीत में एक रचनात्मक प्रतिरोध मुखर होना ही चाहिए': दूसरी
यह कि 'समय के साथ-साथ गीत की कथ्य-वस्तु जैसे-जैसे जटिल
होती जाती है, रचना-प्रक्रिया की सहज मुद्रा उतनी ही
श्रम-साध्य होती जाती है। दूसरे शब्दों में शब्द को उतना
ही धारदार होकर प्रासंगिक होना होता है, अन्यथा शब्द और
समय का रिश्ता टूट-सा जाता है'।
संकलन में शामिल मनोज के अधिकांश गीत अपने रचनात्मक
प्रतिरोधी स्वर की दृष्टि से उक्त वक्तव्य की तसदीक करते
हैं। उनकी रचना-प्रक्रिया भी अवचेतन से उपजी जटिल है।
फिलवक्त के सरोकारों से जोड़ती इन गीत-पंक्तियों की कहन
पारम्परिक गीत से बिलकुल अलग किसिम की है -
तोड़ पुलों को बना लिए हैं / हमने बेढब टीले
देख रहा हूँ परम्परा के / नयन हुए हैं गीले
नयी सदी को संस्कार से / कटते देख रहा हूँ
या हर कंकर में शंकर वाला / चिन्तन पीछे छूटा
अथवा हम ट्यूब नहीं हैं डनलप के / जो प्रेशर से फट जायेंगे
और हाँ इस प्रकार की विशुद्ध निसर्ग-परक उत्सवी मुद्रा से
उपजी पंक्तियाँ भी आम पारम्परिक गीत-भंगिमा से मनोज के
गीतों को अलगाती है -
मेघ देते थाप / बूँदें नाचतीं
आज सोंधी गंध का / धरती लगाती इत्र
बरखा से भीगी धरती का इत्र लगाने का बिम्ब मेरी राय में
नवगीत की आज की कहन की विशिष्ट मुद्रा का हिस्सा है।
इसी प्रकार 'दृष्टि है इक बाहरी / तो एक अंदर है / बूंद का
मतलब समन्दर है' भी समग्र सृष्टि में व्याप्त जीवनी शक्ति
एवं एक साँझे सात्विक अस्ति-बोध को परिभाषित करती है। यह
दृष्टि एक ओर सनातन भारतीय मनीषा में व्याप्त आस्तिकता को
रेखांकित करती है तो दूसरी ओर आज के वैश्विक मानव की
संचेतना को भी कहीं-न-कहीं संकेतित करती है। मनोज के लिए
शब्द-ब्रह्म की संचेतना मानुषी आस्था का सबसे सार्थक
स्वरूप है -
शब्दों में ताकत अद्भुत है / हर मन का कल्मष धोते हैं
... ... ...
शब्दों की पावन गंगा में / जो भी उतरा वह हुआ अमर
शब्दों ने रच दी रामायण / शब्दों ने छेड़ा महासमर
हमने चाहा कुछ गीत लिखें / पर छंद नहीं सध पाता है
मन बोला ऐसा होता है / जब भावों का / अभिषेक न हो
वस्तुतः कविता में शब्द की रसात्मक परिणति अनिवार्य है,
वरना शब्द झूठे एवं अनाचारी हो जाते हैं। किन्तु इसका
तात्पर्य यह कदापि नहीं कि कविता में चिन्तन का कोई स्थान
नहीं और वह कोरी भावाभिव्यक्ति है। भावों की छलनी से छनकर
सोच एक नई भंगिमा अख्तियार कर लेता है और उसका वही स्वरूप
कविता में अनायास प्रस्तुत हो जाता है। मनोज के कुछ गीत
उनके संस्कारों में बसे जैन दर्शन से उपजी हैं और मेरी
दृष्टि में यदि वे इस संग्रह में न शामिल होतीं तो अच्छा
होता। मनोज की कविताई में नवगीत की अधुनातन कहन अपनी पूरी
सामर्थ्य के साथ देखने को मिलती है। उनके जैन दर्शन वाले
गीत इस दृष्टि से कमजोर लगते हैं। अस्तु, वे इस कवि की छवि
को खंडित करते हैं, ऐसा मेरा मानना है।
समग्रतः 'सप्तराग' एक ऐसा समवेत संकलन है जिसमें गीत-नवगीत
के वर्तमान समय के कुछ सशक्त हस्ताक्षर प्रस्तुत हुए हैं।
इन सभी कवियों की रचनाओं में आधुनिक भावबोध यानी
समय-सन्दर्भ मुखर हुआ है और गीत-नवगीत के वर्तमान सरोकारों
से वह आम पाठक को परिचित कराता है। साथ ही नवगीत एवं
पारम्परिक गीत की जो अलग-अलग कहन-भंगिमाएँ हैं, उनका भी
कुछ हद तक इस संग्रह से पता चलता है। संग्रह का 'सप्तराग'
नाम सार्थक है क्योंकि इसमें समकालीन गीतकविता के सातों
राग यानी वर्तमान यथार्थबोध, भारतीय सांस्कृतिक संचेतना,
लोकसम्पृक्ति और जातीयता के बोध, परम्परा से जुड़े नवताबोध,
संवेदनधर्मिता के कथ्यात्मक एवं छान्दसिकता और लयात्मकता,
सहज अनलंकृत बिम्बधर्मिता एवं संप्रेप्रेषणीय ऋजुता के
कहन-वैशिष्ट्य आदि अपने पूरे प्रखर स्वरूप में उपस्थित
हैं। इन दृष्टियों से यह संग्रह, सच में, आज की गीतकविता
का प्रतिनिधित्व करता है। मेरा हार्दिक साधुवाद है संग्रह
में शामिल सभी गीतकवियों को। संकलन के सम्पादक शिवकुमार
'अर्चन' एवं उनके सहयोगी एक लगभग त्रुटिविहीन
संयोजन-प्रकाशन के लिए विशेष बधाई के पात्र हैं। इस संकलन
ने गीत के प्रति जो आस्था जगाई है, उसको नये आयाम प्राप्त
हों, मेरी यही मंगलकामना है।
‘'सप्तराग'’ –
यानी यह सात सुरों का सरगम
'अँजुरी में आस लिये दिन' के सुर
'धरती, पेड़, पहाड़ी, अम्बर' के गायन
'बोधि वृक्ष पर जमे (हुए) बैताल' दिखे
'बूढ़ी इमली की अपराजित चीख' मिली
'नेह गंग का गोमुख रीता'-पीर उसी की
'ग्यारह दोहा पाँच सोरठा दस चौपाई'
'शब्दों की निष्ठा अकुलानी'
मधुर-प्रभात-अर्चन-मयंक-दिवाकर-बंधु-विकल की / ने साधी
यह गीतों के सात सुरों वाली है वंशी
-- कुमार
रवीन्द्र
१७ सितंबर
२०१२ |