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आज सिरहाने

रचनाकार
नरेन्द्र नागदेव

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प्रकाशक
ज्ञानपीठ प्रकाशन,
दिल्ली

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पृष्ठ - १५०

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मूल्य :  ९.९५ डॉलर

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प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह

वेब पर दुनिया के हर कोने में

वापसी के नाखून (कहानी-संग्रह)

वापसी के नाखून’ हिन्दी के एक विशिष्ट और प्रतिष्ठित कथाकार नरेन्द्र नागदेव की बहुचर्चित बारह कहानियों का संकलन है। ये कहानियाँ मूल्य-विघटन के इस दौर में, स्नेहिल मानवीय सम्बन्धों पर हावी होते निर्मम भौतिकतावाद और इस टकराहट से उत्पन्न धीमी आँच में झुलसती संवेदनाओं की कहानियाँ हैं।

नागदेव की कहानियों की यह खासियत है कि वे स्थूल और इकहरी या एकयामी नहीं हैं। आत्म और स्व की जिस खोज के लिए अज्ञेय और जैनेन्द्र जाने जाते हैं- कुछ-कुछ वैसी ही कोशिश नागदेव करते हैं। कथाओं के अलौकिक और भौतिक अंत के बजाय वे उस क्षण को पकड़ते हैं, जो अचानक हमला करके भौंचक्का कर देता है- ठीक जिन्दगी की तरह जिसका सामना करने के बजाय कोई विकल्प नहीं। जो निरन्तर द्वन्द्व में रहता है। दयनीय होने से जिसे घृणा है। दयनीय बनाने वाली स्थितियों, चरित्रों से वह प्रतिशोध लेना चाहता है- ठीक उन्हीं जैसा बनकर। फिर वह चाहे ‘काले बाबू’ हों चाबुक कहानी के या ‘पीला पड़ता संगमरमर’ कहानी की मैडम मारबल। मन की इसी तलाश में से नागदेव की कहानियाँ बनती हैं। एक कैनवस पर रचे जाते चित्र की तरह। बिम्बधर्मिता इसीलिए उनकी भाषा का गुण है और स्थापत्य को लेकर तो उनकी सजगता-स्वभाव और पेशे का हिस्सा है।

नागदेव की कई कहानियाँ अपनी संरचना में मनोवैज्ञानिक केस हिस्ट्री की तरह लगती हैं और स्प्लिट पर्सनैलिटी नास्टेल्जिया और मनश्चिकित्सक तो वहाँ साक्षात चर्चा में हैं। इसीलिए एक तरह की सूक्तिपरक दार्शनिकता उनकी कहानियों का आद्यन्त स्वभाव है। उनके प्रत्यक्ष अनुभव का हिस्सा बनकर। इन बहुत व्यक्तिगत सी कहानियों की उपेक्षा का यही कारण हो सकता है, क्येंकि इनके केन्द्र में ठोस राजनीतिक-ऐतिहासिक-सामाजिक यथार्थ की कोई चमत्कारिक-विचारोत्तेजक उपस्थिति और बहस नहीं है। जबकि जमाना उसी का है-चर्चा मैं आने के लिए-खासकर प्रायोजित।

ऐसा नहीं कि नागदेव अपनी कहानियों में एकदम शाकाहारी या अहिंसक हैं, बल्कि वे व्यवस्था से खूब मुठभेड़ करते हैं। उनकी बौद्धिकता पैनी और बेधक है। ‘अल गजाला’ कहानी में तेल समृद्ध देश की जिस राजधानी में विदेशी फँसे हैं, वह तमाम प्रवासियों की जिन्दगी में उपस्थित सच है। दूसरे दर्जे के नागरिक होने के साथ-साथ निरन्तर हर कहीं अपमानित होने की जिल्लत ने इस जन्नत की हकीकत खोल दी है।

पैसों के मोह और झूठी शेखी के चलते इस क्रम में अपमान सहने की आदत धीरे-धीरे पड़ती चली जाती है। ‘ऐसे माहौल के बीच रिश्तों और भावुकताओं इत्यादि की कीमतें दीनारों में तय की जा सकती है। ‘ इसीलिए आदमी किस परिस्थिति में कैसा आचरण करेगा, यह अध्ययन करने के लिए किसी समाजशास्त्री अथवा मनोवैज्ञानिक की जरुरत है ही नहीं। जरुरत सिर्फ एक अर्थशास्त्री की है’ (पृ. 138)। अब भूमंडलीकृत विश्व में तमाम चीजें अर्थशास्त्र से ही संचालित हो रही हैं। व्यक्ति से लेकर व्यवस्था तक सब कुछ उसकी जद में है। तभी तो यहाँ ‘आपसी सम्बन्ध एक-दूसरे के स्वार्थ अथवा सुविधाओं के आधार पर ही बनते-बिगड़ते हैं।‘ यह पतनशील संस्कृति सब कुछ को विक्रय का माध्यम बना रही है। भस्मासुर जैसी लालसाओं-लिप्साओं से बनती ‘एक बड़ी दुनिया से छिटकर, पैदा हुई एक निजी दुनिया, सबसे पहले ह्रास करती है- अपने सृष्ठा का’ (पृ. 72)।

स्वयं की विशिष्टता के जिस एहसास में व्यक्ति अलगाव का शिकार होता चला जाता है, वहाँ पहुंचकर कोई विकल्प नहीं बचता सिर्फ निरीह शिकार बनने के अलावा। यह इस ग्लोबल विलेज का सत्य है, जहाँ रंग, नस्ल और भाषा के आधार पर भेदभाव जारी है- तमाम आधुनिकता और वैज्ञानिक विकास के बावजूद और ये स्थितियाँ घर से लेकर बाहर तक फैली हैं। लोकल और ग्लोबल के इस झगड़े में खून-खराबा और हिंसा सब तरफ व्याप्त हैं- आतंकवाद इसी का क्रूर और घृणित परिणाम है। रवीन्द्र भवन की बौद्धिकता इसका मुकाबला करने में कहीं काम नहीं आती- सिवा नकली-अखबारी हो हल्ले के, गुजरात हो या असम कहीं कोई फर्क नहीं पड़ता। यह सांस्कृतिक आतंकवाद का घिनौना चेहरा है- जिसकी गूंज नागदेव की कहानियों में महसूस की जा सकती है। निर्मल की ‘सूखा’ की तरह। जब देश में यह हाल है तो विदेश के क्या कहने? वीजा और हवाई अड्डों पर आने-जाने में चेकिंग की यंत्रणा से जो नहीं गुजरे वे क्या जानें इस जन्नत की हकीकत?

नागदेव की कहानियाँ इसी वृहत्तर ऐतिहासिक और समकालीन दुनिया के छोटे-छोटे अक्सों-मनःस्थितियों- इमेजेज़ से जुड़ी हुई हैं। घिसटती हुई जिन्दगी जीने को बाध्य और शानदार जिन्दगी जीने की हसरत पर्सेनैलिटी को विभक्त किये बिना रहने नहीं देती। यह अभिशाप पीछा नहीं छोड़ता। यह केवल मनोग्रन्थि के विश्लेषण तक सीमित सत्य नहीं है, बल्कि विश्वव्यापी सत्य है। निरीहता और मूल्यहीन संस्कृति की नृशंस ताकत में से चुनना हो तो निरीह व्यक्ति ‘चाबुक’ के काले बाबू में रुपान्तरित होना पसन्द करेगा, लेकिन चाबुक उसे भी अपने भाई की पीठ पर चलाना हो तो वह पीछे हट जायेगा। मनचाहा सब कुछ पा लेने की हद पर आकर एकाएक सब छूट जायेगा। ‘स्टेच्यू आफ लिबर्टी’ में बदलती मैडम मारबल की दयनीय दशा देखने की इच्छा का भी यही हश्र नहीं होगा क्या? नौकरी से त्यागपत्र क्या पलायन की श्रेणी में नहीं आयेगा। नागदेव की कहानियों का यही द्वन्द्व उन्हें याँत्रिकता से बचाकर अनन्त जीवन संभावनाओं की ओर खोलता है, जो अमानवीय तो हो ही नहीं सकता। विवशता एक अलग स्थिति है। नागदेव इस पूरे बहुमुखी यथार्थ को रचना-प्रक्रिया का दिलचस्प हिस्सा बनाकर प्रस्तुत करते हैं, जिसमें कहानी अतीत-वर्तमान और भविष्य में झूलती रहती है- सुनियंत्रित-सुनियोजित। इस प्रक्रिया में तमाम बाहरी संदर्भ सुगुम्फित रहते हैं।

सर्कस के शेर की प्रतीकात्मक उपस्थिति, उसकी नैसर्गिक-कृत्रिम वृत्तियों का कन्डीशंड होना, ‘वापसी के नाखून’ में पूरी व्यवस्था में पिंजरे की घुटन, आजादी और चुने होने की निरर्थकता का अहसास इसे केवल शेर तक सीमित नहीं रहने देता। ठीक इसी तरह ‘मरीचिका’ में यक्ष का महाभारत कालीन सत्य वर्तमान में खाने की थाली छिनने से जुड़कर आदिम सभ्यता से आज तक हिंसा के कारणों की तह में जाता है। इन्हीं कारणों से ‘उन्नीस सौ चवालीस’ का क्रांतिकारी चरित्र मुखबिरी के शक में अपने पिता द्वारा ही मरवा दिया जाता है। तानाशाही की विवेकहीनता और बर्बरता में वह सोचता ही रहता है कि ‘इस घर में आखिर आपसी सम्बन्धों को स्नेह तय करता है या विचारधाराएँ।‘ नागदेव तमाम तरह की यातनाओं-बंदिशों को आदमी पर बोझ मानकर स्व के सत्य को तह तक जाकर खोजना चाहते हैं। इसके लिए चाहे उन्हें शिव के आशीर्वाद और दमन की मिथकीय हुलिया में जाना पड़े या पूर्वी योरप और जापान की लोककथाओं में। जीवन की लालसा की अन्तिम रेखा तक उसका पीछा करना उनका रचनात्मक-कलात्मक ध्येय है।

नागदेव का मुख्य सरोकर समाज में बढ़ती मूल्यहीन अंधी व्यावसायिकता और लिप्सा की विकृतियों एवं विसंगतियाँ की असलियत को कहानियों के माध्यम से व्यक्त करना है। भौतिकवाद की इस आंधी में स्नेह और आत्मीयता सब बिकाऊ माल है- बस ग्राहक चाहिए। दाम्पत्य और प्रेम पश्चिम की तर्ज पर महज सशर्त पार्टनरशिप बनकर रह गये हैं। सीजर और ब्रूटस के सत्य को जानते हुए भी झेलना एक स्वाभिमानी आदमी के लिए मुश्किल हो जाता है। ‘समर्पण’ की शर्तों में एकतरफा अपेक्षाएँ अपर्णा को जिस आत्मघात तक ले जा सकती हैं, वहाँ पनीली समुद्रगन्ध हवाओं का निश्छल प्रेम निरर्थक है। स्वार्थ और परिपक्वता उस निश्छलता की हत्या ही कर सकते हैं। ‘निद्रागामी’ कहानी के दोनों भाई नींद में चलने की मनौवैज्ञानिक बीमारी की पर्यटकों में बेचने की योजना में उसे मौत के मुंह में धकेलकर ही मानते हैं। ‘कफन’ के घीसू माधव की अमानवीयता का ही विस्तार है जैसे यह। और यह सब कुछ जितने याँत्रिक और अविश्वनीय ढंग से सम्पन्न होता है कि हमें प्रागैतिहासिक गुफा मानव ज्यादा सभ्य और सुसंस्कृत लगने लगता है। भौतिक लिप्साओं का तमाम रिश्तों और मोह मायाओं पर हावी हो जाना, मीडास की नियति को प्राप्त होना है, जहाँ कायरता और लोलुपता में क्रूरता भी शामिल हो जाती है। कितने लोग हैं जो अपनी जान बचाने के लिए अपनी सन्तान को बेच डालते हैं और यह कालाहाँडी तक ही सीमित नहीं है। बच्चों और कम उम्र लड़कियों को यौन शोषण की जिस चक्की में पीसा जा रहा है, वह आज का भयावह सच है। बलात्कार और विकृतियाँ केवल मनोवैज्ञानिक बीमारियाँ न होकर जरूरत से ज्यादा धन से उत्पन्न समस्याएँ भी हैं। इसी अर्थ में ‘यूलिसिस’ आज और अधिक प्रासंगिक है।

कहानियों में नागदेव भाषा और शिल्प के प्रति अतिरिक्त रूप से संवेदनशील और सजग हैं। परिवेश की कलात्मकता और खूबसूरत वस्तुशिल्प की पहचान उनकी कहानियों में निरन्तर मौजूद है। इसी खूबी के कारण वे कहानी की संरचना को बहुत स्फीति से बचाकर बेहद अर्थगर्भ, सांकेतिक और मार्मिक बनाने में सफल होते हैं। प्रतीकों-बिम्बों मं बात करने-कहने की आदत ने कहानियों को कलाकृति और कैनवस का काम लेने का माध्यम बनाया है। ‘समर्पण’ हो या मैडम मारबल का सौन्दर्यबोध कहानीकार के वस्तुशिल्पी होने की पहचान हो ही जाती है, जो कहानियों का एक अतिरिक्त गुण है।

मूलचन्द गौतम
६ जुलाई २००९

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