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आज सिरहाने

संपादक
उषा वर्मा

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प्रकाशक
वाणी प्रकाशन,
दिल्ली

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पृष्ठ - १६८

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मूल्य : 

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प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह

वेब पर दुनिया के हर कोने में

प्रवास में पहली कहानी (कहानी-संग्रह)

२००८ में वाणी प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित, उषा वर्मा द्वारा संपादित 'प्रवास में पहली कहानी' ब्रिटेन की महिला कथाकारों की गंगा-जमुनी संस्कृति का 'ऐतिहासिक दस्तावेज़' है। इसमें ब्रिटेन में बसी भारतीय उपमहाद्वीप की इक्कीस महिला कथाकारों की स्वदेश से दूर, परदेस में पहली बार लिखी कुल इक्कीस कहानियाँ संकलित हैं।

मोटे तौर पर इक्कीस में से तेरह कहानियों की पृष्ठभूमि में प्रमुखत: ब्रिटेन की धरती है। अमृता तोषी की 'सर्द रात का सन्नाटा', इरा सक्सेना की 'कहानी कहीं खो गई', उषा वर्मा की 'सलमा', कीर्ति चौधरी की 'जहाँआरा', रमा जोशी की 'करमा', अनवर नसरीन की 'ख़ादिमा', सफ़िया सिद्दीकी की 'टूटे पंख', हमीदा मोहसिन रिज़वी की की 'गीत संगीत और... ',स्वर्ण तलवाड़ की 'वीज़ा' नीरा त्यागी की 'माँ की यात्रा', चाँद शर्मा की 'क़फ़स', शाहिदा अहमद की 'खोया हुआ लम्हा' आदि कहानियों में नये परिवेश की नयी चुनौतियों से जूझते हुए वे पात्र हैं जो अपना देश छोड़कर सुनहरे भविष्य के सपने संजोए परदेस में दो संस्कृतियों के टकराव को झेलते हैं, विदेशी धरती पर अपनों से दूर जीवन के कटु सत्यों का सामना करते हैं, संस्कारों के क्षय से व्यथित होते हैं। नव जीवन शैली को अंगीकार या अस्वीकार करने के अंतर्द्वंद्वों, संघर्षों, विवशताओं, दुचित्तेपन आदि को इनमें बखूबी उकेरा गया है।

अतिया खान की 'भिखारिन', सलमा ज़ैदी की 'काश', कादंबरी मेहरा की 'हतभागी', शैल अग्रवाल की 'अनन्य', प्रियंवदा देवी मिश्रा की 'कहूँ तो कैसे कहूँ', बानो अरशद की 'नन्हीं मुफ़क्किर' कहानियों की पृष्ठभूमि में अपनी ज़मीन, अपना मुल्क, अपनी समस्याएँ मुखर है। उषा राजे सक्सेना की 'एक मुलाक़ात', फ़िरोज़ मुखर्जी की 'पुराना घर नये वासी' एवं दिव्या माथुर की 'सफ़रनामा' कहानियाँ प्रवासियों की बदली हुई नयी सोच और उनके विशिष्ट जीवनानुभवों को रेखंकित करती हैं। अमृता तोषी की 'सर्द रात का सन्नाटा' में मानवीय संस्कारों के द्वंद्व को दिखाया गया है। एक ही परिवार में पली-बढ़ी दो बहनों के लिए उन्मुक्तता की परिभाषा भिन्न है। कहानी का अंत प्रवासी पाठक को आत्मनिरीक्षण के लिए बाध्य कर देता है।

इरा सक्सेना की 'कहानी कहीं खो गई' नारी संवेदना का प्रभावपूर्ण चित्रण किया गया है। वास्तव में मानवीय संवेदनाएँ सार्वजनीन हैं। मिसेज़ फ़िलिप्स की पीड़ा नायिका नायिका की रचनात्मकता को झकझोरती है और वह कलम उठाने के लिए मजबूर हो उठती है। अनवर नसरीन की 'ख़ादिमा' में नारी स्वातंत्र्य के विषय को उठाया है। परिवेश एवं पात्र विदेशी है। लेकिन पुरुष दंभ (समस्याएँ) देशकाल की सीमाओं से परे है। नीरा त्यागी की 'माँ की यात्रा' में इँग्लैंड में बेटी के घर आई माँ की यात्रा का सहज और स्वाभाविक वर्णन किया गया है। मातृत्त्व की ही भावना को उजागर करती और प्रवासियों की समस्याओं से संबंधित स्वर्ण तलवाड़ की कहानी 'वीज़ा' और माँजी जा सकती है। प्रियंवदा देवी मिश्रा की 'कहूँ तो कैसे कहूँ' में अम्मा के अंतर्द्वंद्व वृद्धावस्था की मनोदशा और समस्याओं का सुंदर अंकन किया गया है। शाहिदा अहमद की 'खोया हुआ लम्हा' नये परिवेश से तालमेल न बैठा पाने से प्रसूत अंतर्द्वंद्वों की सजीव प्रस्तुति है। हमीदा मोहसिन रिज़वी की 'गीत संगीत और... के अंतर्गत प्रेम की उदात्त भावना को सम्मुख स्वार्थ की विजय, किंतु अंतत: पश्चाताप और ग्लानि में जलने को नियति को बहुत बारीकी से प्रस्तुत किया गया है।

''प्रवास में पहली कहानी' की अन्य उल्लेखनीय कहानियाँ बानो अरशद की 'नन्हीं मुफ़क्किर', चाँद शर्मा की 'क़फ़स', कादंबरी मेहरा की 'हतभागी' आदि हैं। बानो अरशद की 'नन्हीं मुफ़क्किर' बाल-मनोविज्ञान की एक बहुत सशक्त और मन को गहरे छूनेवाली रचना है। शिल्प की दृष्टि से परिपक्व इस कथा में ठेकेदार साहब की मौत से हैरान परेशान मुन्नी के बाल-सुलभ प्रश्नों की झड़ी से सभी पात्र आतंकित हो उठते हैं । चाँद शर्मा की 'क़फ़स' में सुशिक्षित, ज़हीन एवं अतिसंवेदनशील नायिका के बेमेल विवाह से उपजी उसकी मन:स्थिति का मर्मस्पर्शी एवं अत्यंत प्रभावपूर्ण चित्रण किया गया है। संस्कारवान नायिका पुरुष के झूठे दंभ रूपी पिंजरे में परकटे परिंदे की मानिंद कैद है। वह महज एक उपभोग की वस्तु है। मेरी दृष्टि में कथ्य और शिल्प दोनों की दृष्टि से यह कहानी इस संग्रह की अच्छी कहानियों में से एक है।

कादंबरी मेहरा की 'हतभागी', बिट्टो मौसी के जीवन की विडंबना की मार्मिक कथा है। बिट्टो कोमा में ही गुज़र जाती है। लोक में प्रचलित मुहावरे और शब्दावली के प्रयोग से कहानी लोक की महक से लहक उठती है, जैसे- ''फूलचंद-सा जीवनसाथी सबको नसीब नहीं होता। हथेलियों थुका रखा... '' मानवीय संवेदनाओं को झकझोरनेवाली कहानी, अतिया खान की 'भिखारिन' में सड़क की अनजान भिखारिन, तक़दीर की मारी हमीदा और उसकी दुधमुँही बच्ची को पनाह मिलना इंसानियत के ज़िंदा होने का सबूत है। उषा वर्मा की कहानी 'सलमा', की नायिका सलमा परिस्थितिजन्य संत्रास, घुटन और निराशा से उबरने के बाद अंतत: अपने जीवन के बारे में स्वयं निर्णय ले सकने में समर्थ हो जाती है। यहाँ ध्यान देनेवाली बात यह है कि आधुनिक सभ्यता में आदमी उपर से कितना सुखी, टिपटॉप दिखे ,किंतु भीतर ही भीतर टूटा हुआ, खोखला, दुखी है जहाँ से उसे आत्महत्या का ही रास्ता नज़र आता है। लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी डटकर सामना करना और उन पर विजय पाना ही इस कहानी का संदेश है। उषा वर्मा के स्वयं के पाश्चात्य शिक्षा-जगत संबंधी अनुभवों की परिणति रॉनी' नामक कहानी के रूप में हुई। बाल-मनोविज्ञान पर लिखी इस सशक्त कहानी का पात्र, रंगभेद का शिकार रॉनी कभी न भुलाया जानेवाला एक शाश्वत पात्र है।

उषा राजे सक्सेना की 'एक मुलाक़ात', प्रथम पुरुष शैली में लिखी पुरुष-दंभ तले पिसती शबनम नाम की एक दुखिया की कथा है। यह एक कड़वा सच है कि आज के इस आधुनिक- वैज्ञानिक युग में भी स्त्रियाँ पुरुष के निरंकुश व्यवहार और अत्याचार को झेलती आतंकित, भीषण यातनाएँ भुगत रही हैं। 'तान्या' की नायिका के माध्यम से उषा राजे सक्सेना अपनी संस्कृति के अनुरूप स्त्री-पुरुष के दीर्घकालीन और स्थायी संबंधों की पैरवी करती हैं। दो संस्कृतियों और दो परिवेशों को द्वंद्व को यहाँ स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। दिव्या माथुर की 'सफ़रनामा' में लेखिका ने नारी उत्पीड़न जैसे महत्त्वपूर्ण और मर्मस्पर्शी विषय को उठाया है।कहानी की मुख्य पात्र डेनमार्क से भारत आई प्रवासी भारतीय लेखिका विजया भानुप्रताप सिंह के टी.वी. इंटरव्यू से बात शुरू होती है। घटनाक्रम फ़िल्म की रील की भाँति बड़ी तेज़ी से बदलता है तथा अस्वाभाविक और असंगत-सा लगता है। इसी प्रकार ''नॉट माई डे'' का ट्रांसलेशन ''आज मेरा दिन नहीं है'' खटकता है। लेकिन लेखिका के पास कहने के लिए बहुत कुछ है।'ठुल्ला किलब' तक आते-आते दिव्या माथुर के लेखन की परिपक्वता स्पष्ट लक्षित होती है। 'ठुल्ला किलब' परदेस में बच्चों से मिलने आए बुज़ुर्गों की मनोदशा की रोचक प्रस्तुति है। समय के साथ शरीर बूढ़ा हो जाता है लेकिन मन पुरानी यादों में जवान बना रहता है। इस कहानी के संवादों में देशज शब्दों का अच्छा प्रयोग किया गया है। हल्के-फुल्के हास्य से परिपूर्ण यह कहानी पाठक के मन पर प्रभाव छोड़ती है।

कीर्ति चौधरी की 'जहाँआरा', की दो परिवेशों से भ्रमित नायिका जहाँआरा के लिए विदेश आकर स्वनिर्मित लक्ष्मण रेखा एक अभिशाप बन जाती है वह अपनी सोच नहीं बदल पाती है लोगों से कतराती है और उसके हाथ लगता है ताज़िंदगी अकेलापन। कीर्तिजी की 'छुट्टी का दिन' में कहानी की मुख्य पात्र घर की नौकरानी के माध्यम से आधुनिक जीवन की त्रासदी का चित्रण है। कि किस तरह मनुष्य मशीन बनकर रह गया है, उसके पास खुद के लिए भी समय नहीं है। रोज़ मुखर्जी की 'पुराना घर नये वासी' में अमेरिका से लखनऊ आई आबिदा को घर को कोना-कोना उन्हें बार-बार अतीत की भावपूर्ण गलियों में ले जाता है।कहानी कई सरोकारों को छूती है- जैसे परदेस में अपनी सुविधा के लिए बच्चों को जाने-अनजाने अपनी संस्कृति से, अपनी भाषा, मूल्यों से दूर कर देना और उसकी कसक अनुभव करना, आदि। उन्हीं की 'दूर की आवाज़' में पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित एक महिला के पश्चाताप और फिर परिस्थितियों से समझौते की कथा है। दोनों कहानियों में दोनों परिवेशों का द्वंद्व स्पष्ट रूप से व्यक्त हुआ है।

रमा जोशी की 'करमा', में इंग्लैंड का 'डैंप' वातावरण कहानी के मुख्य पात्र करमा के हृदय की उदासी का स्पष्ट संकेत देता है। अच्छा होता यदि इस कहानी के अंग्रेज़ी संवादों को देवनागरी में लिप्यंतरित कर दिया जाता। रमा जोशी की भाषा में चित्रात्मकता उनकी कहानियों का सबसे बड़ा गुण है।'करमा', में वातावरण का सजीव अंकन तो 'सरदारी बेगम' में सरदारी बेगम का चरित्र भी पाठक के मन पर गहरी छाप छोड़ता है। शैल अग्रवाल की 'अनन्य', लैफ़्टिनैंट कमांडर आदित्य राय की प्रेयसी-कुँवारी विधवा शुभी के अनन्य प्रेम की भावपूर्ण कथा है। ऐसा लगता है कि कहानी की रचना सातवें दशक में हुई है। 'तब भी नहीं' में शैल अग्रवाल मानव मन के एक अन्य पहलू को उद्घाटित करती हैं। बाल-मन की गहराइयों को नापती हुई 'तब भी नहीं' एक मार्मिक रचना हैं। सलमा ज़ैदी की 'काश', में मानवीय संवेदना को सशक्त अभिव्यक्ति मिली है। एक संवेदनशील नारी की संवेदना,उसके संपूर्ण जीवन को बड़ी सूक्ष्मता, लेकिन सादगी के साथ उभारा है 'कुछ कुछ मरी' पदबंध की पुनरावृत्ति एक स्त्री के पग-पग पर आहत होते स्वाभिमान को सशक्तता के साथ दर्शाता है। सलमा ज़ैदी का मन 'काश' से 'राख का ढेर' तक आते-आते विद्रोह करने के लिए मचल उठता है। वे हमारी संकुचित सोच पर करारा प्रहार करती हैं कि क्यों हम स्त्री-पुरुष संबंधों को एक ही कोण से देखने के आदी हैं।

सफ़िया सिद्दीकी की 'टूटे पंख' विदेश में बसे अनेकों परिवारों में से एक की कथा है। मिसेज़ फ़ारूकी के अरशद को दामाद बनाने के सारे मंसूबों पर पानी फिर जाता है, जब उन्हें पता चलता है कि अरशद की अंग्रेज़ गर्लफ़्रैंड भी है। मिसेज़ फ़ारूकी का उन लाखों प्रवासियों की प्रतीक है, जो आजीवन ऐसे ही अंतर्द्वंद्वों से ग्रस्त रहते हैं। सफ़िया सिद्दीकी की प्रिय कहानी 'जब समंदर रोने लगा' में औरत की मजबूरियों और उस पर लगे पहरों की कलात्मक अभिव्यक्त है। दिव्या माथुर की 'ठुल्ला किलब', उषा वर्मा की 'रॉनी', रमा जोशी की 'सरदारी बेगम', सलमा ज़ैदी की 'काश' शैल अग्रवाल की 'तब भी नहीं', उषा राजे सक्सेना की 'तान्या', सफ़िया सिद्दीक़ी की 'जब समंदर रोने लगा' में से अधिकांश कहानियों के पात्र परिस्थितिजन्य निराशा, संत्रास, घुटन के शिकार हैं। इन कहानियों में कथाकार, भोक्ता और द्रष्टा दोनों है। इन में अपनी अस्मिता की तलाश है, भटकन की अवस्था में आसरे और संबल के लिए अपनी जड़ों की ओर लौटने का आग्रह है। कहीं-कहीं ऐसा भी प्रतीत होता है कि प्रवासी पात्रों को अपने मसीहा होने का भ्रम होने लगता है।

अंतत: यह कहकर में अपनी बात को विराम देना चाहूँगी कि यह निश्चित है इस संग्रह की सभी लेखिकाएँ बधाई की हकदार हैं। इन सभी लेखिकाओं में बड़ी-बड़ी संभावनाएँ हैं। ये सभी लेखिकाएँ अपने परिवेश के प्रति सजग हैं। भले ही इनके पात्रों के मन में ऊहापोह हो, भले ही वे अपनी इच्छाओं को अंजाम न दे सके हों लेकिन इन लेखिकाओं ने उस छटपटाहट को भोगा है, महसूसा है और उन अनुभवों को स्वर दिए हैं। यह उनकी अपनी आधुनिक सोच का परिणाम है। है। इनमें से कुछ लेखिकाएँ आज भी अपने लेखन से ब्रिटेन के हिंदी साहित्य को समृद्ध कर रही हैं और आगे भी करती रहेंगी, ऐसा विश्वास है। अरबी-फ़ारसी के शब्द-बाहुल्य वाली कहानियों में कोष्ठक में दिये गए हिंदी-अर्थ से संवादों की बोधगम्यता बढ़ जाती है और प्रवाह निरंतर बना रहता है। इसी प्रकार इन कहानियों में भावानुरूप सहज बतकही, वर्णन, पत्र, संस्मरण और पूर्वदीप्ति शैलियों आदि का प्रयोग देखने को मिलता है। विश्व के हिंदी साहित्य में यह संग्रह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। संपादक ने भूमिका में इस पुस्तक के जन्म की कठिनाइयों का उल्लेख किया है। इस श्रमसाध्य कार्य को संपादित करने के लिए संपादक उषा वर्मा एवं सह-संपादक चित्रा कुमार इसके लिए बधाई की पात्र हैं।

वंदना मुकेश
९ नवंबर २००९

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