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आज सिरहाने

सूरज का सातवाँ घोड़ा (उपन्यास)

उपन्यासकार
धर्मवीर भारती

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भारतीय ज्ञानपीठ
18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड
नई दिल्ली- 110 003

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पृष्ठ - 101

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मूल्य - 6 $

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ISBN 81-263-1028-6

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प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह

वेब पर दुनिया के हर कोने में

धर्मयुग का संपादन कार्य डॉ धर्मवीर भारती की सबसे बड़ी पहचान बनी, पर उसके पहले ही उनकी रचनाएँ जैसे गुनाहों का देवता, ठंडा लोहा, कनुप्रिया और सूरज का सातवाँ घोड़ा आदि ने हिन्दी जगत में उन्हें प्रसिद्ध कर दिया था। धर्मयुग का संपादन करके उन्होंने अपने 17 वर्ष के कार्यकाल में उसे तत्कालीन समय की सबसे अधिक ख्यातिप्राप्त साप्ताहिक पत्रिका बना दिया था।

सूरज का सातवाँ घोड़ा पाठक के मन पर ऐसी गहरी छाप छोड़ जाती है कि पढ़ने के कई दिन बाद भी उसके पात्र और उनके अनुभव दिलो दिमाग पर छाए रहते हैं। इतनी गहराई से अपनी बात को अति साधारण पात्रों के जरिए कह पाना कोई साधारण बात नहीं है। इस कथानक का रचना काल स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद का है और इस कहानी में उस समय की परिस्थितियों का प्रभाव भी प्रत्यक्ष है, परन्तु फिर भी इन्हें पढ़ते हुए शायद ही कहीं इस बात का भान होता है कि यह कहानी आजकल की नहीं है। समय की इतनी लंबी छलांग लगा सकने की क्षमता वाली कहानियाँ कम ही दिखाई देती है। किसी छोटे क़स्बे के निम्न मध्यम वर्ग की परिस्थितियों के इस सजीव चित्रण में सब कुछ सुखकर तो नहीं है, क्यों कि व्यक्तिगत समस्याएँ भले ही बदल गई हो पर सामाजिक ढाँचा अब भी वैसा ही है। दुःख और निराशा का चित्रण पाठक के मन को भारी कर देता है, पर कहानी के झरोखों में झाँकता हास्य और अदम्य निष्ठामयी आशा अपना पलड़ा अंततः भारी ही रखते हैं।

उपन्यास की शैली भी तात्कालिक समय के हिंदी पाठकों के लिए क्रांतिकारी है। इसकी कथावस्तु कई कहानियों में गुंफित है, किन्तु इसमें एक कहानी नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। आरंभ में कहानी के पात्र कुछ अलग-थलग से जान पड़ते हैं, ठीक उसी तरह जैसे कि एक गुफा में मानवों द्वारा एक ही चट्टान पर, परंतु अलग-अलग शताब्दियों मे बनाए गए चित्र, यदि आज हम देखते हैं तो, घटना क्रम का सही तालमेल न बिठा पाने के कारण उन्हें अलग-अलग हिस्सों में ही समझते हैं, और हमारा ज्ञान न केवल सतही रह जाता है बल्कि हम उन चित्रों का घनीभूत आनन्द भी नहीं उठा पाते। धर्मवीर भारती जैसा कुशल चितेरा जब उन सभी धागों को आपस में एक-एक करके पिरोता है तो कहानी का आनन्द पाठक को कई स्तरों पर प्राप्त होता है और उसका अनुभव भी गहन होता है। "सूरज का सातवाँ घोड़ा" उपन्यास की रचना ठीक उसी प्रकार बहुआयामी है जैसे कि स्थिर चित्र की अपेक्षा चलचित्र बहुआयामी होता है।

कहानी का गठन बहुत सीधा-सादा है और इसकी भूमिका बिलकुल पुराने ढंग की है जैसे कि पुराने समय में गाँवों मे चौपाल बैठती थी, या फिर बड़े-बूढ़े बच्चों को सोने के समय रोज एक कहानी सुनाते थे। इसी प्रकार सूरज का सातवाँ घोड़ा में हर दोपहर को मित्रों की एक मंडली बैठती है और कहानी के नायक माणिक मुल्ला सात दिनों तक रोज एक कहानी सुनाते हैं। कहानी हर बार अलग होती है, पर धीरे-धीरे उनके पीछे का दृश्य दिखाई देने लगता है और तस्वीर साफ होती जाती है। धर्मवीर भारती जैसा गंभीर और अंदर तक देख सकने वाला लेखक ही इतने साधारण और सादे तरीके से तथा इतने मजे से इस कार्य को संपादित कर सकता है।

सभी कहानियों का प्रतिपाद्य विषय प्रेम है, पर लेखक, उस प्रेम कहानी को इस तरह बुनते हैं कि उसमें यथार्थ, दर्शन और मार्क्सवाद सभी आ मिलते हैं। उदाहरण के लिए इसी उपन्यास से उद्धृत इस अंश को देखें।

"पर कोई न कोई चीज ऐसी है जिसने हमेशा अँधेरे को चीर कर आगे बढ़ने, समाज-व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुनः स्थापित करने की ताकत और प्रेरणा दी है। चाहे उसे आत्मा कह लो, चाहे कुछ और। और विश्वास, साहस, सत्य के प्रति निष्ठा, उस प्रकाशवादी आत्मा को उसी तरह आगे ले चलते हैं जैसे सात घोड़े सूर्य को आगे बढ़ा ले चलते हैं।"

इस पुस्तक के नामकरण के मर्म को समझने का कौतूहल भी पाठक की उत्कंठा जाग्रत रखता है। भारतीजी ने सात कहानियों को सात दोपहरों में पिरो कर पाठक को बाँधे रखा है। तत्कालीन समय की सामाजिक बेड़ियों और परिस्थितियों में जकड़े लोग किस प्रकार अपने जीवन से समझौता करते हैं इसका सजीव चित्रण इस कहानी-संग्रहनुमा उपन्यास में हुआ है।

1 दिसंबर 2007

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