लेखक
संतोष दीक्षित
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प्रकाशक
पुस्तक भवन, नयी दिल्ली
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पृष्ठ :१२५
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मूल्यः
१९९ भारतीय रूपये
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शहर में
लछमिनिया (कहानी संग्रह)
हिंदी–कहानी ने आज जो स्वरूप ग्रहण कर लिया है, उसके साथ
चलने की कोशिश कर रहे हैं संतोष दीक्षित। एक कहानीकार के
रूप में संतोष दीक्षित मनुष्य के व्यक्तित्व और चरित्र की
पहचान करते हैं। मनुष्य के परिवेश, जीवन–दशा, जीवन–व्यापार
आदि में आए बदलाव का अध्ययन करके उन्हें रेखांकित करते
हैं। पारिवारिक जीवन के आपसी रिश्तों की और उसमें जीने की
कठिनाइयों की भी पहचान करते हैं। इन कठिनाइयों के प्रभाव
से बेफ़िक्र चरित्र की संघर्षशीलता और सफलता को वे मज़े में
रेखांकित और चरित्र करते हैं।
आज के समय
में बढ़ती व्यावसायिकता का लोगों के चरित्र पर, उनके आपसी
संबंधों पर जो असर पड़ता है, उसे ग़ौर से देखा है लेखक ने।
चपरासी जैसे अत्यंत साधारण आदमी के जीवन–संघर्ष को, संघर्ष
की चट्टान पर चूर होते सपनों को भी मर्मस्पर्शी ढंग से
चित्रित किया गया है।
इस प्रकार
संतोष दीक्षित की कहानियों की एक विशेषता यह है कि उनमें
हमारे समकालीन समाज के अनुभव चित्रित हैं। दूसरी बात यह कि
उनके रचनात्मक अनुभवों में व्यापकता और विविधता है। इसमें
उनके लेखन का पाट चौड़ा हो जाता है। तीसरी बात यह है कि
उनके अनुभव समाज के साधारण लोगों के हैं और एकदम सामान्य
अनुभव हैं, जिन्हें यों किसी तरह उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण
नहीं समझा जाता। लेकिन ये छोटे–छोटे और सामान्य अनुभव
रचनात्मक रूप लेकर कहानी बन जाते हैं, तो पाठकों का ध्यान
खींचते हैं।
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इन
छोटे–छोटे अनुभवों के पात्र ऐसे हैं, जिन्हें संभ्रांत लोग
मुहल्ले में और जीवन में भी गंदगी का स्रोत समझते हैं,
लेकिन संतोष दीक्षित की कहानियों में मनुष्यता और
सामाजिकता की परख की कसौटी बन जाते हैं। ऐसी कहानियों के
माध्यम से लेखक ने यह महसूस कराया है कि यह समाज कमज़ोरों
के लिए नहीं है। संग्रह का नाम ग्रहण करने वाली कहानी 'शहर
में लछमिनियां' को देखें, तो बाढ़ के द्वारा गांव से उजाड़
कर राजधानी में शरण लेने को मजबूर रामस्वरूप और उसकी पत्नी
लछमिनियां की ज़िंदगी सता–समाज और मनुष्य के अंतर्विरोधों
का बुरी तरह शिकार होते हैं। यह ठीक है कि उनमें अक्षय
जिजीविषा है, लेकिन जीवन–रस को चूसने वाली ताकतें क्या कम
हैं। वे मंदिर बनाने में लाखों खर्च करेंगे, लेकिन
रामस्वरूप के इलाज के लिए हज़ार या सौ भी खर्च करने को
तैयार नहीं।
चपरासी
गयासुद्दीन अपने बेटे को अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ा कर उसका
भविष्य उज्ज्वल और सपना साकार करना चाहता है, लेकिन
अंग्रेज़ी स्कूल केवल स्कूल नहीं होता, वह तो एक संस्कृति
भी है, संभ्रांत संस्कृति। एक चपरासी वह संस्कृति नहीं
अपना सकता, उसे न गयासुद्दिन अपना सका, न उसका बेटा
फिरोज़। समय की गति को, उसकी परिवर्तनशीलता को भी अनेक
प्रसंगों के ज़रिए पहचानने की कोशिश लेखक ने की है। उदाहरण
के लिए 'चौक शिकार' शीर्षक कहानी। देश में बढ़ती
व्यावसायिकता का असर चौक शिकार पर भी पड़ा था और फुलवारी
की जगह मार्केट कॉम्पलेक्स लेने लगा था। लेखक की
निरीक्षण–भक्ति और रचनात्मक चेतना इस गतिशीलता को अनेक
संदर्भों में देखती और ग्रहण करती है।
हिंदी–कहानी की अंतर्वस्तु और स्वरूप में जो परिवर्तन आया
है, उसकी बनावट में जो बदलाव हुआ है, उसका पूरा असर संतोष
दीक्षित की कहानियों पर भी है। यहां पहले की कहानी और अब
की कहानी की बनावट में आए अंतर का तुलनात्मक अध्ययन
अपेक्षित नहीं है। लेकिन कहना यह है कि संतोष दीक्षित की
कहानियां भी एक–दो घटनाओं से नहीं, बल्कि घटनाओं की एक
लंबी श्रृंखला से बनती हैं। कहानी के स्वरूप और बनावट में
चाहे जितना बदलाव आ जाए, इतना तो हर हालत में देखना पड़ेगा
कि लेखक का कथ्य क्या है और कथ्य को व्यक्त करने के लिए
लेखक ने कथा–प्रसंगों की योजना किस प्रकार की है।
संतोष
दीक्षित की कहानियों में छोटी–छोटी बातों और छोटी–छोटी
घटनाओं को लेकर जो कथा बनाई गई है, उनसे लेखक की रचनात्मक
गतिशीलता और समकालीनता के साथ चलते रहने की क्षमता का पता
चलता है। संग्रह की पहली ही कहानी 'काल' को देखें। एक
साधारण वितीय स्थिति वाले परिवार के सुरेश की पत्नी की
प्रसव–पीड़ा से कहानी शुरू होती है, लेकिन तुरंत एक दूसरी
कहानी भी आ जुड़ती है जिसका संबंध सुरेश के सेवानिवृत पिता
की बीमारी से है। दोनों कथाओं को कौशल से गूंथ कर लेखक ने
एक ओर सुरेश के व्यक्तित्व की दुविधा और आंतरिक संघर्ष का
चित्रण किया है, तो दूसरी ओर बगल में रहने वाले लड़के रंजन
की फंटूसी को भी स्वाभाविक रूप से चित्रित किया है। रंजन
संकट में मदद करने के नाम पर सुरेश की बहन से संपर्क साधने
लगता है। मनुष्य की लाचारी से नाजायज़ फ़ायदा उठाने का
घिनौना मनोविज्ञान यहां दिखाई पड़ता है।
कहानी की
बनावट की दृष्टि से दो कहानियां– 'चढ़ फांसी–चपरासी' और
'शहर में लछमिनियां' – उल्लेखनीय है। चपरासी वाली कहानी
में कई अध्याय बेटे के बारे में पति–पत्नी के सपनों से
बनते हैं। कहानी लंबी हो जाती है। सपनों के अलावा उसमें
गयासुद्दीन, उसके पिता और बेटे फिरोज़ की जिं़दगी की
घटनाएं मिलकर भी लंबी कथा बनाती हैं। आज की कहानी एक
जीवन–प्रसंग मात्र से नहीं, बल्कि घटना–प्रवाह से बन रही
है। चेतना–प्रवाह की जगह घटना–प्रवाह ने ले ली है, यह एक
तरह यथार्थ का, कुछ अतियथार्थ का बढ़ता हुआ आग्रह है। इस
बात को – 'शहर में लछमिनियां' में भी देखा जा सकता है। यह
केवल लछमिनियां की कहानी नहीं, बल्कि उसके माध्यम से गांव
में घुटने और टूटने का, गांव में परिवार के सदस्यों के
द्वारा शहर में कमाई करने वाले को चूसने की कथा तो बुनियाद
के रूप में है और गांव से विस्थापित मजदूर परिवार को शहर
में कैसे किल्लत से जीना पड़ता है, इसे व्यक्त करने के लिए
रामस्वरूप का ठेला चलाना, बीमार पड़ जाना, लछमिनियां का
दाई का काम करना, मदद के लिए लोगों से गिड़गिड़ाना, यहां
के धनाढ्य लोगों का अलग मिज़ाज़ और उस मिज़ाज़ के पाखंड व
मंदिर निर्माण के रूप में व्यक्त होना, यह सारी बातें गुंथ
गई हैं।
ऐसी
कथाओं में संवेदना की खोज करनी पड़ती है, यह बात केवल
संतोष दीक्षित के साथ नहीं बल्कि लंबी कहानी लिखने वाले
अन्य लेखकों के साथ भी है। पाठक की संवेदना कभी रामस्वरूप
के बाप के प्रति, कभी रामस्वरूप के प्रति, कभी लछमिनियां
के प्रति, कभी उन दोनों के प्रति, यहां तक कि कभी
लछमिनियां के प्रति सहानुभूति रखने वाले प्रोफ़ेसर साहब के
अकेलेपन के प्रति होती है। इससे संवेदना का फैलाव नहीं,
बल्कि बिखराव होता है। संभव है, लेखक की चेतना यह कथा रूप
समाज में संवेदना के बिखराव के कारण आता हो। संतोष दीक्षित
कुल मिलाकर कथारचना, कथ्य के संयोजन, भाषा–शिल्प आदि के
सामंजस्य से अपने कौशल का ऐसा परिचय देते हैं कि उनके भीतर
एक समर्थ कथाकार दिखाई पड़ता है।
—खगेंद्र
ठाकुर
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