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आज सिरहाने

व्यंग्यकार
शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
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प्रकाशक
सारंग प्रकाशन
रिफायनरी नगर मथुरा (उ.प्र.)
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पृष्ठ :१९९
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मूल्य
८९ भारतीय रूपये

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नालायक होने का सुख (व्यंग्य संग्रह)

आज का जनजीवन विसंगतियों और विद्रूपताओं से भरा पड़ा है। इन विसंगतियों से जनमानस इतना आक्रांत है कि चाहते हुए भी बच नहीं पाता। समाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं वैयक्तिक जीवन में विसंगतियां ही विसंगतियां परिलक्षित हो रही हैं, तब लगता है कि ये विसंगतियां और विद्रूपताएं उसके दैनिक जीवन का अंग बन गईं हैं। ऐसे में जब सारे अस्त्र-शस्त्र बेअसर हो जाते हैं तब व्यंग्य उस धारदार नश्तर के समान वार करता हुआ इन सभी विसंगतियों और विद्रूपताओं को काटता हुआ इन सभी से रोगमुक्त करता है। इस दृष्टि से साहित्य में व्यंग्य विधा एक सशक्त माध्यम है।

शास्त्री नित्यगोपाल कटारे संस्कृत और हिंदी दोनों भाषाओं में समान अधिकार रखते हैं। वे दोनों भाषाओं में समान रूप से रचना करने में सिद्धहस्त हैं। उनकी यह चौथी पुस्तक है जो ''नालायक होने का सुख'' के रूप में आपके समक्ष है, जो लायक होकर आनंद प्रदान कराने में सक्षम है। इस संग्रह में ३३ व्यंग्य लेखों के माध्यम से व्यंग्यकार ने समाज में परिव्याप्त विसंगतियों को रेखांकित किया है। ''विपन्नबुद्धि'' के माध्यम से व्यंग्यकार मनुष्य की कामचोरी की प्रवृति पर चोट करता है। वर्तमान समय में जब परिश्रम के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं है, तब लोग घर में, कार्यालय में काम न करने का बहाना ढूंढ लेते हैं। उन्हें नालायक कहलाना तो अच्छा प्रतीत होता है, किंतु सम्यक प्रकार से कार्य करना अच्छा नहीं लगता। अकर्मण्यता की इस प्रवृति ने राष्ट्र को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है। इसी रूचि ने देश को शासकीयकरण से निजीकरण की ओर मोड़ दिया है।

श्री कटारे जी की भाषा जनभाषा के निकट है इसलिए उनके लेखन में संप्रेषणीयता का अभाव नहीं है। ''दुनियां के चोर उचक्को एक हो जाओ'' व्यंग्य में समाज के समस्त चोरों की एक ही अनुच्छेद में आकर्षक शैली में गणना कर दी गई है . . .'' कर-चोरों और बिजली-चोरों ने तो सभी सरकारों की नाक में दम कर रखा है। शासकीय कार्यालयों में कामचोरी की भी कमी नहीं है ।धार्मिक संस्थानों में मूर्तिचोरों और जूताचोरों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। आजकल दिल चुराने वाले मजनुओं की भी संख्या बढ़ती जा रही है। विद्यार्थियों में चित-चोरों के बढ़ते प्रभाव से सारा शिक्षा विभाग अस्त-व्यस्त है। इस तरह आप जहां भी जाएं चोर ही चोर नज़र आएंगे।''

उपर्युक्त उद्धरण में व्यंग्यकार स्पष्ट कर देता है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति चोर है। अपने को न देखकर परछिद्रान्वेषण ही व्यक्ति का स्वभाव बन गया है।

आज शासकीय कर्मचारी की स्थिति किसी बंधुआ मजदूर से अच्छी नहीं है। उसके काम के घंटे, कार्यस्थल सब कुछ निश्चित है, फिर भी सब कुछ अनिश्चित है। एक शिक्षक को विभिन्न विभागों के कार्य प्राथमिकता के आधार पर करने होते हैं। ''एक सरकारी तीर्थयात्रा'' और ''राष्ट्र निर्माता की तथा-कथा'' में इसी विद्रूपता को अभिव्यंजित किया गया है।

शासकीय शिक्षक कहने–सुनने को तो शिक्षक होता है, परंतु उसका पढ़ने-पढ़ाने से ज्यादा वास्ता नहीं होता है। उसके प्रमुख कार्य . . .वोटर लिस्ट बनाना, राशन कार्ड बनाना, गरीबी रेखा आदि अनेक प्रकार के सर्वे करना, अनेक प्रकार की गणनाएं, घेंघा उन्मूलन से लेकर ग्राम संपर्क अभियानों में भागीदारी, पढ़ना-वढ़ना, पल्स पोलियो जैसे अनेक कार्यक्रमों का संचालन। बाढ नियंत्रण से लेकर भीड नियंत्रण तक अपनी सेवा देना। रैली जैसे अनेक नीरस कार्यक्रमों में छात्रों की भीड़ जमा करना आदि अनेक आवश्यक कार्य होते हैं।(पृष्ठ ८२)

व्यंग्यकार का विनोदप्रिय व्यक्तित्व रचनाओं में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। यदि भवोत्कर्ष को रचना की कसौटी माना जाए तो रचना में यह गुण सर्वत्र विद्यमान है। शिल्पविधान की दृष्टि से आलंकारिक शैली का प्रयोग सहज ढंग से किया गया है। लक्षणा और व्यंजना के प्रयोग प्रायः सर्वत्र विद्यमान हैं। अनुप्रास का सुंदर प्रयोग पाठक को आकर्षित करता है। पुलिस की पिटाई से पीड़ित पार्षद पैरों में पट्टी बांधे हुए प्रातः पंडित जी के पास पहुंचकर प्रणाम करके पूछने लगे।'' (पृष्ठ - ९४)

गद्य में भी पद्य की झनक पाठक को झंकृत कर देती है। एक चोट मस्तिष्क पर पड़ती है और पाठक चिंतन के लिए विवश हो जाता है। साहित्य की उपादेयता भी यही है।
''नालायक होने का सुख'' के व्यंग्य सहृदय पाठकों को प्रभावित करेंगे और समाज की विद्रूपताओं पर गंभीरता से सोचने के लिए विवश करेंगे।

पुस्तक का मुखपृष्ठ अत्यंत आकर्षक है। मुद्रण साफ़-सुथरा तथा त्रुटिहीन है। काग़ज़ अच्छे स्तर का प्रयुक्त किया गया है। १९९ पृष्ठ की पक्की जिल्द वाली इस पुस्तक का मूल्य ८९ रूपये है जो उचित है।

१ दिसंबर २९९६

डा. हरिशंकर द्विवेदी

 
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