उपर्युक्त
उद्धरण में व्यंग्यकार स्पष्ट कर देता है कि समाज का
प्रत्येक व्यक्ति चोर है। अपने को न देखकर परछिद्रान्वेषण
ही व्यक्ति का स्वभाव बन गया है।
आज शासकीय
कर्मचारी की स्थिति किसी बंधुआ मजदूर से अच्छी नहीं है।
उसके काम के घंटे, कार्यस्थल सब कुछ निश्चित है, फिर भी सब
कुछ अनिश्चित है। एक शिक्षक को विभिन्न विभागों के कार्य
प्राथमिकता के आधार पर करने होते हैं। ''एक सरकारी
तीर्थयात्रा'' और ''राष्ट्र निर्माता की तथा-कथा'' में इसी
विद्रूपता को अभिव्यंजित किया गया है।
शासकीय
शिक्षक कहने–सुनने को तो शिक्षक होता है, परंतु उसका
पढ़ने-पढ़ाने से ज्यादा वास्ता नहीं होता है। उसके प्रमुख
कार्य . . .वोटर लिस्ट बनाना, राशन कार्ड बनाना, गरीबी
रेखा आदि अनेक प्रकार के सर्वे करना, अनेक प्रकार की
गणनाएं, घेंघा उन्मूलन से लेकर ग्राम संपर्क अभियानों में
भागीदारी, पढ़ना-वढ़ना, पल्स पोलियो जैसे अनेक कार्यक्रमों
का संचालन। बाढ नियंत्रण से लेकर भीड नियंत्रण तक अपनी
सेवा देना। रैली जैसे अनेक नीरस कार्यक्रमों में छात्रों
की भीड़ जमा करना आदि अनेक आवश्यक कार्य होते हैं।(पृष्ठ
८२)
व्यंग्यकार
का विनोदप्रिय व्यक्तित्व रचनाओं में सर्वत्र दृष्टिगोचर
होता है। यदि भवोत्कर्ष को रचना की कसौटी माना जाए तो रचना
में यह गुण सर्वत्र विद्यमान है। शिल्पविधान की दृष्टि से
आलंकारिक शैली का प्रयोग सहज ढंग से किया गया है। लक्षणा
और व्यंजना के प्रयोग प्रायः सर्वत्र विद्यमान हैं।
अनुप्रास का सुंदर प्रयोग पाठक को आकर्षित करता है। पुलिस
की पिटाई से पीड़ित पार्षद पैरों में पट्टी बांधे हुए
प्रातः पंडित जी के पास पहुंचकर प्रणाम करके पूछने लगे।''
(पृष्ठ - ९४)
गद्य में
भी पद्य की झनक पाठक को झंकृत कर देती है। एक चोट मस्तिष्क
पर पड़ती है और पाठक चिंतन के लिए विवश हो जाता है।
साहित्य की उपादेयता भी यही है।
''नालायक होने का सुख'' के व्यंग्य सहृदय पाठकों को प्रभावित
करेंगे और समाज की विद्रूपताओं पर गंभीरता से सोचने के लिए
विवश करेंगे।
पुस्तक का
मुखपृष्ठ अत्यंत आकर्षक है। मुद्रण साफ़-सुथरा तथा
त्रुटिहीन है। काग़ज़ अच्छे स्तर का प्रयुक्त किया गया है।
१९९ पृष्ठ की पक्की जिल्द वाली इस पुस्तक का मूल्य ८९
रूपये है जो उचित है।
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