जैसा कि
लेखक ने लिखा है कि पहले कवि लोग सीधे मंच पर नहीं पहुंचते
थे। जिस शहर में कवि–सम्मेलन हो रहा है, वहां के
आत्मीय–अंतरंगों के घर पहले पहुंचते थे। ठीक उसी तरह अशोक
जी के घर पर भी लगता था बड़े–बड़े कवियों का जमघट। और फिर
हाफ–पैंट पहने वो बालक जो सदा तत्पर रहता था कवियों की
सेवा में, छुप–छुपकर कवियों के बीच में होने वाले संवादों
को सुना करता था।
'मंच–मचान' में अशोक चक्रधर ने न केवल अपने समकालीन कवियों
के साथ जुड़े प्रसंगों का उल्लेख किया है बल्कि कुछ वरिष्ठ
कवियों, जैसे डॉ.हरिवंशराय बच्चन, पं.गोपाल प्रसाद व्यास,
श्री बलबीर रंग, श्री काका हाथरसी, श्री मुकुट बिहारी
सरोज, श्री गोपाल दास नीरज, श्री शरद जोशी, श्री भवानी
प्रसाद मिश्र आदि के साथ घटे हुए प्रसंगों का भी उल्लेख
किया है।
'मंच–मचान' में लिखा हर एक संस्मरण कल को आज से जोड़ने की
क्षमता रखता है। आज जो हमारे बीच हैं और जो नहीं हैं, सभी
को एक साथ जाना जा सकता है मंच की मचान से। जिस पर चढ़ कर
लेखक ने यादों की बदलियों से खूब रस वर्षा की है।
यहां पर
विशेष तौर पर एक लेख का उल्लेख करना चाहूंगी जिसका शीर्षक
है 'क्या होती है थेथराई मलाई'। ये शब्द धूमिल जी के हैं,
थेथराई का मतलब तो स्वयं लेखक भी नहीं जानते पर ये उस दौर
का आईना है जब हमारे नौजवान कवि–सम्मेलनों से मुंह मोड़
रहे थे और मार्क्सवाद की आंधी सभी को अपने साथ ले जा रही
थी, लेखक स्वयं भी उनमें से एक थे, कविसम्मेलनों से विमुख,
नये–नये प्रगतिवादी। इस विचारधारा के कि आज ही क्रांति
आएगी और कल सब बदल जाएगा। कुछ पंक्तियों पर ग़ौर फ़रमाएं –
यमदूत यमराज को रिपोर्ट सुना रहा था–
यमराज को गुस्सा आ रहा था–
क्या कहा, ये भी भूख से मरा,
क्या बकता है
भूख से कोई कैसे मर सकता है
... . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .
यमराज सुनकर
पलभर को हुए उतावले,
फिर बोले–बावले
ये भूख से नहीं,
कुपोषण से मरा है,
इंसान द्वारा इंसान के
शोषण से मरा है।
वहीं
'टोटके और उनके घोटके' में मंच पर कवियों द्वारा प्रायः
प्रयोग किए जाने वाले टोटकों का अच्छा–खासा विवरण है। ये
वही टोटके हैं जिन्हें बोल कर कवि अक्सर ढेर सारी तालियां
बटोर लेते हैं। स्थिति, टोटका–कथन, जनक एवं विस्तारक,
टोटकायु, कथन विस्तार, घोटका–मंथन और अंत में निष्कर्ष,
सभी विस्तार के साथ।
हर
क्षेत्र में कुछ नया हो रहा है तो फिर कवि सम्मेलन इससे
अछूते क्यों रहें, हर क्षेत्र में कंप्यूटर का प्रयोग हो
रहा है तो फिर कवि सम्मेलनों में क्यों नहीं। यहां भी
शुरूआत हुई ई–कविसम्मेलन की, जिस पर मुग्ध हुए हमारे
लालूजी और पचास–पचास हज़ार दे डाले हर कवि को। इस प्रसंग
के बारे में आप पढ़ सकते हैं लेख 'चलता है पर इतना नहीं'
में। और एक बात बताना यहां ज़रूरी है कि अशोक जी पहले और
एकमात्र ऐसे कवि हैं जिन्होंने कविता को, कविसम्मेलन को
कंप्यूटर से जोड़ा है।
'तालियों
के बीच पसरा सन्नाटा' में लेखक का कविसम्मेलनों के प्रति
गहरा प्रेम नज़र आता है। जब साजिद खान ने अपने बड़बोले
अंदाज़ की रंगोली सजाई तो उनके विचार सुनकर लेखक के रंग
उड़ गए। साजिद का कहना था – 'कविसम्मेलन बाबा–दादा के
ज़माने की चीज़ हो गए हैं।' उन्हें निरूतर किया आलोक
पुराणिक ने। और कुछ वो निरूतर हुए टी .वी . पर
कविसम्मेलनों के कार्यक्रमों के प्रमाण पर। अशोक जी द्वारा
किए गए 'वाह–वाह' कार्यक्रम के १५६ एपिसोड इसका एक बहुत
बड़ा उदाहरण है।
'खेल
एलपीएम और सीपीएम का' शीर्षक लेख आज के कविसम्मेलनों की
विसंगतिपूर्ण स्थितियों को दर्शाता है। 'अर्थ रस के
व्यभिचारी भाव' में तैंतीस के तैंतीस व्यभिचारी भावों का
उल्लेख लेखक ने बड़े मज़े से किया है और इतने आसान उदाहरण
लिए गए हैं कि थोड़ी बहुत हिंदी का ज्ञान रखने वाला कोई भी
व्यक्ति इन्हें समझ सकता है।
कवि लोग
मंच पर जाते हैं और पैसा भी लेते हैं पर अपने आत्मसम्मान
के मूल्य पर वे प्रायः समझौता नहीं करते। इसका सबसे बढ़िया
उदाहरण देता है लेख 'ढिंचकी ढिंचकी वाली रामचरित मानस'। इस
लेख में जहां मुकुट बिहारी सरोज जी की बांकी अदा नज़र आती
है वहीं अशोक जी का आत्मसम्मान के प्रति जागरूक होना सामने
आता है। यहां अशोक जी स्वयं पर भी व्यंग्य करने से नहीं
चूकते हैं।
वाचिक
परंपरा के अनेक पहलुओं को दर्शाती पुस्तक 'मंचमचान'
कवियों, कविसम्मेलन की परंपरा और गतिविधियों को जानने का
मौका देती है। हर वह व्यक्ति जो कविता या कविसम्मेलन में
रूचि रखता है इस पुस्तक को पढ़ कर आनांदित होगा।
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