लेखिका
कुसुम अंसल
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प्रकाशक
राजपाल एंड सन्स, दिल्ली
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पृष्ठ २१६
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मूल्य : २९९ रूपये
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तापसी(उपन्यास)
कुसुम अंसल का उपन्यास
'तापसी' केवल वृंदावन की विधवाओं के जीवन का आइना ही नहीं
है बल्कि स्त्रीत्व की अस्मिता की स्थापना का उपन्यास है।
नायिका तापसी एक बंगालिन
विधवा है, जिसकी शादी मां–बाप ने पैसों के लालच में एक
बीमार वृद्ध के साथ कर दी थी। दो साल बाद पति की मृत्यु हो
जाने पर ससुराल वाले उसे वृंदावन के विधवा आश्रम में छोड़
जाते हैं। तापसी को हैरानी इस बात की होती है कि सालों वह
खरोंच, लड़ाई, पिटाई व दर्द से गुज़र कर जीती रही और पति
के स्वर्ग सिधारने के बाद उनके रिश्तेदार वह सारी की सारी
दीवारे–दहलीज़ भी संभाल कर बैठ गए, जिसके कंटीले परिवेश को
तापसी अपना घर समझकर अब तक रह रही थी। तापसी सोचती है,
'क्या इतना सह जाने पर भी वह किसी चीज़ की अधिकारिणी नहीं
बनी थी?' विधवाओं के बारे में मरियम के शब्द दर्द में डूबे
हुए हैं, . . . 'यह आश्रम कब्र ही तो है। हम सब दुनिया के
लिए मरे हुए लोग हैं। तापसी, बाहर के संसार में हमारी कोई
प्रतीक्षा नहीं कर रहा।'
उपन्यास तापसी धर्म, तीर्थ,
समाज और मनुष्य के दावों के विरूद्ध घोर संदेह से उपजा एक
ज्वलंत प्रश्न बन कर सामने आता है। लेखिका तापसी में तीर्थ
की अवमानना, तिरस्कार या अस्वीकार कर रही हों ऐसा नहीं
लगता पर उन्होंने तीर्थ और तापसी के पारस्परिक विलोम इस
प्रकार रचे हैं कि तीर्थ ही नहीं ईश्वर भी नायिका के सामने
तिरोहित हो जाता है और लेखिका का भावुक चित्रण पाठक के मन
में आक्रोश व आवेश उत्पन्न करता है।
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उपन्यास में विधवाओं के दर्द
के साथ–साथ सड़ी–गली सामाजिक व्यवस्था पर भी व्यंग्य किया
गया है। एक पत्रकार के ये शब्द, ' . . .यह जन्माष्टमी, यह
उत्सव–त्योहार आपको बहलाने के लिए हैं, इसलिए कि आप अपने
सच से दूर इन्हीं फूलों, इनकी खुशबुओं, मंदिरों और बाद में
पंडितों के निर्मित झूठ के आसपास भटकती रहें और वह सब न
समझ पाएं जो आपको समझना है, जानना है।' इसी तरह वह आगे
बताता है कि किस तरह एक लड़की को निर्वस्त्र करके पूरे
गांव में घुमाया गया था क्योंकि वह गांव के गुंडों के
विरोध में घर की चौखट छोड़कर पुलिस से मदद मांग रही थी।
पुलिस ने उसकी टांगे तोड़ दीं, इसलिए कि उसका यह साहस
नाकाबिले बर्दाश्त था तमाम आदमी जात के लिए कि, भारत की
धरती पर मर्दों के आमने–सामने होकर एक अदना–सी औरत अपने
अधिकार की बात करे, सिर उठाए, यही नहीं, कानूनी लड़ाई
लड़ने का दुस्साहस कर बैठे।
लेखिका ने तापसी, वृंदा,
नूराबाई, बरौता तथा विधवा आश्रम की इंचार्ज अंबिका देवी
नामक पात्रों द्वारा मठों, मंदिरों और आश्रमों की
वास्तविकता को बड़े प्रभावशाली ढंग से उजागर किया गया है।
साथ ही उन विधवाओं का चित्रण भी बहुत मार्मिक किया है जो
सारा दिन मंदिर में कीर्तन करती हैं तब कहीं जाकर दो रोटी
पाती है। यहां भी तापसी सोचती है कि भगवान हर समय अपना नाम
ही क्यों सुनना चाहते हैं? 'वह' अपना गुणगान व प्रशंसा सुन
थकते नहीं? इतने वर्षों में भी भगवान तृप्त नहीं हुए?
विधवाओं के साथ शोषण, व्यभिचार तो आम बात है। दान देने
वालों की वस्तुएं भंडारों में पड़ी सड़ जाती हैं। लेकिन
आश्रम में रह रही विधवाओं की तार–तार हो चुकी धोतियों का
नसीब नहीं बदलता। क्या भगवान को यह सब दिखाई नहीं देता?
लेखिका ने पूरे उपन्यास
में कथा गति और प्रवाह को कहीं भी अवरूद्ध नहीं होने दिया
है। अनेक स्थल इतनी सूक्ष्मता से वर्णित हैं और उनमें इतने
सूक्षम विवरण हैं कि लगता है जैसे बंगाली संस्कारों और
शांति निकेतन के पर्यावरण की आभा में दीक्षित कुसुम ने
अपने अंदर एक तापसी खोजी हो, अपने अंदर एक तापसी जी हो और
अपने अंदर उस भद्र नारीत्व को ललकारा हो जो समूची भद्रताओं
के बावजूद तापसियां पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार है।
उपन्यास उन परिस्थितियों
का भी सजीव चित्रण करता है कि जब हर समय डांट–फटकार सुनने
वाली इन औरतों से प्यार–स्नेह का झांसा देकर विश्वासघात
किया जाता है। तापसी ऐसी ही परिस्थितियों का शिकार होती
है। जब अंबिका देवी उसे एक धनी व्यक्ति के लिए साथ अच्छे
जीवन का सपना देकर भेज देती है। बलि देने से पहले जैसे
बकरे को हलाल किया जाता है वैसे ही उसे भी साफ़–सुथरे
वस्त्र, पौष्टिक आहार देकर और स्नेह का ढोंग रचाकर लूटा
जाता है। तापसी को पता उस समय लगता है जब वह अस्पताल में
पड़ी होती है। और उसकी एक 'किडनी' दंपति ने अपने एक
रिश्तेदार के लिए निकलवा ली होती है।
पूरे उपन्यास में
परिस्थितियों को बड़ी बारीकी से समझने का प्रयास किया गया
है। अमीरी और गरीबी का तुलनात्मक अध्ययन भी देखने को मिलता
है। लेखिका वृंदावन के अंतर्विरोधों में कोई हल खोजती भी
दिखाई देती है। वह स्वयं मानती है कि वह व्यवस्था को बदलने
की शक्ति तो नहीं रखती लेकिन समाज को उसका आइना तो दिखा ही
सकती है। निःसंदेह यह उपन्यास पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय भी
है।
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