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गौतम सचदेव के व्यंग्य संग्रह में यों तो दुनिया जहान के
कई विषय अनोखे अंदाज़ में विश्लेषित किए गए हैं पर भारत की
सामाजिक, राजनैतिक स्थितियों, मूल्यों के संकट और बढ़ते
उपभोक्तावाद पर सबसे ज़्यादा गहरी और संवेदनशील टिप्पणियां
की गईं हैं। गिरते सामाजिक मूल्यों, हाशिये पर पड़े आम
आदमी के प्रति उदासीन व्यवस्था और राजनेताओं के बीच बढ़ते
भ्रष्टाचार और चरित्र के संकट का पर्दाफ़ाश ऐसी रोचक शैली
में किया गया है जिसे पढ़कर ऊपर से हंसी छूटती है पर अंदर
आक्रोश उमड़ता है। आइए जनता और नेता का एक उदाहरण लें–
"नेता
जनता का बहुत उपकार करता है, वह महात्मा गांधी के उपदेशों
का अक्षरशः पालन करता हुआ, खुद को दूसरे के धन को संभालने
वाला ट्रस्टी मान लेता है . . .अगर वह पाता है कि समाज में
बहुत अधिक चारा हो गया है और इस कारण समाज अपने को
बेचारा समझने लगा है तो वह तत्काल हरकत में आता है और सारा
चारा चरकर जनता रूपी गउओं को बदहज्मी से बचाता है। जो लोग
इसे चारा घोटाले का नाम देते हैं, वे बड़े कृतघ्न हैं . .
.यदि नेता को कभी गद्दी छोड़नी पड़े, तो वह तत्काल प्राचीन
गौरव की स्थापना कर देता है और अपनी पत्नी को चूल्हे–चौके
से निजात दिलाकर मंत्री बना देता है। उसे याद रहता है कि
इस देश में नारियों की पूजा हुआ करती थी और इसलिए यहां
देवता रमण किया करते थे – यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते
तत्र देवताः नारियों की पूजा करनी ही चाहिए। सोनियाएं और
राबड़ी देवियां रोज़ रोज़ पैदा नहीं होतीं।"
इस
उदाहरण में दृष्टांत बिलकुल साफ़ देखे जा सकते हैं भले ही
राजनेताओं के नाम नहीं लिए गए हैं। लेखक की इस
स्पष्टवादिता को व्यवस्था और नैतृत्व के प्रति तीव्र
आक्रोश और आन्दोलन के रूप में देखा जा सकता है। लेखक न ही
भ्रष्ट नेताओं को निकाल सकता है और न ही बंदूक अपने हाथ
में ले सकता है, व्यंग्य ही उसका हथियार है।
सेवा नाम
के अध्याय में गौतमजी की तलवार व्यवस्था और राजनेताओं पर
कड़ा प्रहार करती हैं। पर मज़ेदार बात यह है कि इस अध्याय
के अंतिम अंश में लेखक अपने पर भी वार करता है। कुंठा इतनी
तेज़ है कि लेखक अपने को ही बदलने का इरादा करता नज़र आता
ताकि एक भ्रष्ट व्यवस्था में सामंजस्य स्थापित कर सके।
व्यंग्य
संग्रह का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ब्रिटेन में रह रहे
प्रवासी भारतीयों और दक्षिण एशियाइयों की रोज़मर्रा की
ज़िंदगी की परतें खोलता है। इन अध्यायों में दोहरी मार की
गई है। एक ओर प्रवासियों की बदनीयती पर आघात किए गए हैं
दूसरी ओर ब्रितानी समाज के मूल्य पतन का भी विश्लेषण किया
गया है,
"ब्रिटेन
जैसे अत्याधुनिक– माफ़ कीजिए अति आज़माइशी– पश्चिमी देश में
किसी भी चीज़ को ख़रीदने के पहले आज़माने की आज़ादी दी
जाती है। इसे यहां मनी बैक गारंटी की बटुआ रक्षक संज्ञा से
विभूषित किया गया है। चीज़ खरीदिए, आज़माइए और पसंद न आने
पर लौटाकर पूरे दाम वापस ले लीजिए . . .म़ैं एक व्यक्ति को
जानता हूं जो कपड़े ख़रीदना पैसों की बरबादी बताता है। वह
कभी एक दूकान से कपड़े ले आता है, कभी दूसरी से और आज़माकर
वापस दे आता है।"
कुल
मिलाकर 'सच्चा झूठ' की प्रमुख कथा वस्तु देश–विदेश में
हमारी बदलती मानसिकता का ख़ाका खींचती है। चाहे हम नेता
हों, उंचे सरकारी अफ़सर हों, ब्रिटेन या विदेशों में बसे
प्रवासी हों, शोहरत का पीछा कर रहे कवि, लेखक या पत्रकार
हों, हमने अपनी जल्दबाज़ी और महत्वाकांक्षा की दौड़ के
उतावलेपन में बहुत कुछ ऐसा खो दिया है जिसके बगैर हमारी
उपलब्धियों के मायने खोते जा रहे हैं। हमारा समाज ग़ायब
होता जा रहा है। हमारे पास सबकुछ है पर हम अकेले पड़ते जा
रहे हैं। हरिशंकर पारासाई और शरद जोशी के बाद गौतम सचदेव
के कथ्य और शैली में ऐसा कुछ पाया जा सकता है जो मनोरंजन
के साथ–साथ हमें भीतर से दहलाता है।
इन २९
अध्यायों में हमें कई जगह हमें अपनी परछाइयां नज़र आती हैं
जो हमें भीतर झांकने को मजबूर करती हैं। 'सच्चा झूठ' केवल
व्यंग्य नहीं हैं, व्यंग्य इसका केवल आवरण है, जिसके पीछे
कडुवी सच्चाइयों की परतें हैं। 'सच्चा झूठ' एक आईना है
जिसमें हमें अपनी और अपने आसपास की तस्वीर नज़र आती है।
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