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आज सिरहाने


लेखक
गौतम सचदेव
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प्रकाशक
उपासना पब्लिकेशंस
डी १९१९६१ समीप श्री महागौरी मंदिर
खजूरी ख़ास
नई-दिल्ली ११९९९४
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पृष्ठ ८८
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मूल्य : १९९ रूपये

सच्चा झूठ (व्यंग्य संग्रह)

"आप कह सकते हैं कि अमर साहित्य वह होता है, जो कालजयी हो। लेकिन हम कहेंगे कि अमर साहित्य पर काल को जीतने वाली यह पुरानी शर्त लागू नहीं होती, क्योंकि उसका लक्ष्य काल को नहीं, भोंपुओं और नगाड़ों को जीतना है, वाह वाही की तरंगों पर सर्फ़िंग करना है और मौसम की हवाओं में झंडे फ़हराना है। क्या आप जानते नहीं कि घिसट–घिसट कर सौ वर्ष जीने से प्रसिद्धि के पांच वर्ष बेहतर होते हैं। बाबर ने अपने संस्मरणों में लिखा था कि अगर मशहूर होने के लिए मुझे मरना पड़े, तो मैं सहर्ष तैयार हूं। अमर साहित्यकार पांच सौ वर्ष पुरानी इस बाबरी इच्छा को छोड़कर और जीवेत शरदः शतम की वैदिक प्रार्थना का मुंह मोड़कर आगे बढ़ चुका है। वह कहता है अगर मैं पंद्रह मिनट के लिए भी अमर हो जाऊं, तो मैं हर तरह के पापड़ बेलने को तैयार हूं।"

गौतम सचदेव के बात कहने के इस अंदाज़ में, वर्तमान तकनीकी प्रगति की आंधी के साथ लगातार बदल रहे समाज और सामाजिक मूल्यों को, एक समग्र संस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि में देखा जा सकता है। 'सच्चा झूठ' से लिया गया यह उदाहरण निःसंदेह व्यंग्य है, आनंददायक भी है पर इसमें बिना बौद्धिक तप के एक ही रात में प्रसिद्धि पाने के लिए आतुर आज के महत्वाकांक्षी लेखकों पर सही और तगड़ी चोट की गई है।

गौतमजी के व्यंग्य की ताक़त उसके कसाव में हैं। क्या कहा जा रहा है यह महत्वपूर्ण तो है पर किस तरह कहा जा रहा है यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है। ग़ालिब के मशहूर जुमले में कहें तो बात 'अंदाज़े बयां' की है। गौतम जी का यह व्यंग्य संग्रह 'सच्चा झूठ' उनके लंदन प्रवास की कृतियों का संग्रह है पर इसका दायरा मात्र लंदन केंद्रित, ब्रिटेन केंद्रित अथवा भारत केंद्रित नहीं है। गौतम जी के सरोकार अंतर्राष्ट्रीय हैं पर विचार अभिव्यक्ति के लिए अथवा संदेश देने के लिए उनका माध्यम आम आदमी है जो बदल तो रहा है पर अपने ही जाल में फंसता भी जा रहा है। अपने व्यंग्य के कैनवास में गौतम जी के आकर्षक रंग न केवल उपमाएं, घटनाएं व  किस्से–कहानियां ही हैं बल्कि इतिहास और सांस्कृतिक तत्व भी हैं।


गौतम सचदेव के व्यंग्य संग्रह में यों तो दुनिया जहान के कई विषय अनोखे अंदाज़ में विश्लेषित किए गए हैं पर भारत की सामाजिक, राजनैतिक स्थितियों, मूल्यों के संकट और बढ़ते उपभोक्तावाद पर सबसे ज़्यादा गहरी और संवेदनशील टिप्पणियां की गईं हैं। गिरते सामाजिक मूल्यों, हाशिये पर पड़े आम आदमी के प्रति उदासीन व्यवस्था और राजनेताओं के बीच बढ़ते भ्रष्टाचार और चरित्र के संकट का पर्दाफ़ाश ऐसी रोचक शैली में किया गया है जिसे पढ़कर ऊपर से हंसी छूटती है पर अंदर आक्रोश उमड़ता है। आइए जनता और नेता का एक उदाहरण लें–

"नेता जनता का बहुत उपकार करता है, वह महात्मा गांधी के उपदेशों का अक्षरशः पालन करता हुआ, खुद को दूसरे के धन को संभालने वाला ट्रस्टी मान लेता है . . .अगर वह पाता है कि समाज में बहुत अधिक चारा हो गया है और इस  कारण समाज अपने को बेचारा समझने लगा है तो वह तत्काल हरकत में आता है और सारा चारा चरकर जनता रूपी गउओं को बदहज्मी से बचाता है। जो लोग इसे चारा घोटाले का नाम देते हैं, वे बड़े कृतघ्न हैं . . .यदि नेता को कभी गद्दी छोड़नी पड़े, तो वह तत्काल प्राचीन गौरव की स्थापना कर देता है और अपनी पत्नी को चूल्हे–चौके से निजात दिलाकर मंत्री बना देता है। उसे याद रहता है कि इस देश में नारियों की पूजा हुआ करती थी और इसलिए यहां देवता रमण किया करते थे – यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः नारियों की पूजा करनी ही चाहिए। सोनियाएं और राबड़ी देवियां रोज़ रोज़ पैदा नहीं होतीं।"

इस उदाहरण में दृष्टांत बिलकुल साफ़ देखे जा सकते हैं भले ही राजनेताओं के नाम नहीं लिए गए हैं। लेखक की इस स्पष्टवादिता को व्यवस्था और नैतृत्व के प्रति तीव्र आक्रोश और आन्दोलन के रूप में देखा जा सकता है। लेखक न ही भ्रष्ट नेताओं को निकाल सकता है और न ही बंदूक अपने हाथ में ले सकता है, व्यंग्य ही उसका हथियार है। 

सेवा नाम के अध्याय में गौतमजी की तलवार व्यवस्था और राजनेताओं पर कड़ा प्रहार करती हैं। पर मज़ेदार बात यह है कि इस अध्याय के अंतिम अंश में लेखक अपने पर भी वार करता है। कुंठा इतनी तेज़ है कि लेखक अपने को ही बदलने का इरादा करता नज़र आता ताकि एक भ्रष्ट व्यवस्था में सामंजस्य स्थापित कर सके। 

व्यंग्य संग्रह का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ब्रिटेन में रह रहे प्रवासी भारतीयों और दक्षिण एशियाइयों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी की परतें खोलता है। इन अध्यायों में दोहरी मार की गई है। एक ओर प्रवासियों की बदनीयती पर आघात किए गए हैं दूसरी ओर ब्रितानी समाज के मूल्य पतन का भी विश्लेषण किया गया है, 

"ब्रिटेन जैसे अत्याधुनिक– माफ़ कीजिए अति आज़माइशी– पश्चिमी देश में किसी भी चीज़ को ख़रीदने के पहले आज़माने की आज़ादी दी जाती है। इसे यहां मनी बैक गारंटी की बटुआ रक्षक संज्ञा से विभूषित किया गया है। चीज़ खरीदिए, आज़माइए और पसंद न आने पर लौटाकर पूरे दाम वापस ले लीजिए . . .म़ैं एक व्यक्ति को जानता हूं जो कपड़े ख़रीदना पैसों की बरबादी बताता है। वह कभी एक दूकान से कपड़े ले आता है, कभी दूसरी से और आज़माकर वापस दे आता है।"

कुल मिलाकर 'सच्चा झूठ' की प्रमुख कथा वस्तु देश–विदेश में हमारी बदलती मानसिकता का ख़ाका खींचती है। चाहे हम नेता हों, उंचे सरकारी अफ़सर हों, ब्रिटेन या विदेशों में बसे प्रवासी हों, शोहरत का पीछा कर रहे कवि, लेखक या पत्रकार हों, हमने अपनी जल्दबाज़ी और महत्वाकांक्षा की दौड़ के उतावलेपन में बहुत कुछ ऐसा खो दिया है जिसके बगैर हमारी उपलब्धियों के मायने खोते जा रहे हैं। हमारा समाज ग़ायब होता जा रहा है। हमारे पास सबकुछ है पर हम अकेले पड़ते जा रहे हैं। हरिशंकर पारासाई और शरद जोशी के बाद गौतम सचदेव के कथ्य और शैली में ऐसा कुछ पाया जा सकता है जो मनोरंजन के साथ–साथ हमें भीतर से दहलाता है।

इन २९ अध्यायों में हमें कई जगह हमें अपनी परछाइयां नज़र आती हैं जो हमें भीतर झांकने को मजबूर करती हैं। 'सच्चा झूठ' केवल व्यंग्य नहीं हैं, व्यंग्य इसका केवल आवरण है, जिसके पीछे कडुवी सच्चाइयों की परतें हैं। 'सच्चा झूठ' एक आईना है जिसमें हमें अपनी और अपने आसपास की तस्वीर नज़र आती है।

१६ जनवरी २९९५

—ललित मोहन जोशी

 
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