लेखक
संतोष गोयल
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प्रकाशक
नेशनल पब्लिशिंग हाउस
२/३५ अंसारी रोड,
दरियागंज
नई दिल्ली ११०००२
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पृष्ठ १३६
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मूल्य : १५० रूपये
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रेतगार (उपन्यास)
संतोष को मैं जानती तो बहुत पहले से थी पर उसके लेखन का
परिचय मुझसे तब हुआ जब हिंदी के लेखकों की सर्वश्रेष्ठ
कहानियों को असमिया में अनूदित करवा कर एक कहानी संकलन
तैयार करवा रही थी। तभी मैंने उसकी रचित 'झूला', 'जड़े' तथा
अन्य कहानियाँ पढ़ी। इन कहानियों में मुझे जिस बात ने
सर्वाधिक प्रभावित किया वह है गहराई और मानव मन को समझती
स्पर्श करती उनकी दृष्टि जो उनके लेखन को औरों से अलग कर
देती है। आज के युग में फैलती रिश्तों की टूटन, उनके बीच
निरंतर बढ़ता फासला, स्त्री के अस्तित्व की लड़ाई जिस में वह
लगातार हारती रही है अर्थात वह सब कुछ जो आज के युग की
सच्चाई है, दिल को छूता रीढ़ की हड्डियों तक में कंपन पैदा
कर देता है। जो कुछ मैं संतोष की कहानियों के लिए कह रही
वही सब कुछ उनके द्वारा रचित इस उपन्यास 'रेतगार' के लिए
भी सही है।
संतोष जब ये उपन्यास लिख रही थी इस पर हमारी बहुत सी
बैठकें हुई। मुझे उपन्यास का नाम 'रेतगार' बहुत पसंद आया
था, मैंने इसका अंगे्रजी अनुवाद 'सैंड ड्यून्स' के नाम से
पढ़ा है। कथा की प्रमुख पात्र रिशम मुझे केवल उपन्यास की
नायिका एक लड़की नहीं लगती बल्कि पूरी नारी जाति का प्रतीक
लगती है। वह विश्व की उन सभी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती
है जिन्हें समाज में दूसरे स्तर का व्यवहार मिला है। रिशम
पहले एक गाँव में रहती है अपने माता पिता के साथ। तब भी
खुद को असुरक्षित पाती है। उसके चारों ओर बाड़ लगाने वाले
उसे बांध कर रखने वाले लोगों की एक पूरी जमात है। गाँव का
सरपरस्त कहलाने वाला सांई तक उसे क्या किसी को भी आगे बढ़ता
हुआ नहीं देख सकता क्योंकि उसे डर है कि पढे. लिखे लोग
कानून से वाक़िफ़ हो जाएँगे तो उसकी राजगद्दी हिल जाएगी।
एक मात्र बाबा हैं जो रिशम को पढ़ाना चाहते हैं ताकि वह
अपने पैरों पर खड़ी हो सके और इस भेड़ियों के संसार में जी
सके। असल में तो बाबा की मानसिकता भी अजीब थी। वे तो रिशम
के रूप में अपना बेटा बड़ा कर रहे थे। |
"मन बिलख रहा था। बाबा ने क्यों बेटे का सपना मुझ में
आरोपित कर दिया था।"
रिशम को यह समझ आ जाता है कि वह इसलिए नहीं पढ़ी कि बाबा
उसे पढ़ाना चाहते थे, इसलिए भी नहीं कि पढ़ने में होशियार थी
बल्कि बाबा उसमें अपना बेटा बड़ा कर रहे थे तो उसे बहुत
अफ़सोस होता है। रिशम की अम्मा के अनुसार तो "छोरियाँ
माँ
बाप की कहाँ होवै दूसरे का कीला बनना होवे बिनको नाल तो
माँ को आँगन में गड़े पर फलना फूलना होवैं दूसरे के घर
में।"
"बड़ी भोल्ली है बच्ची तू पर तेरी उम्र सब कोई ऐसे ही
होवें। वक्त सिखावे हैगा वनमानुसों का संसार हैगा ये तो।
अकेले कोई न रह सकै खा जावै कच्चा होर छोेरियाँ तो
बिल्कुलै ना इहाँ रहते वनमानुस खावै चूसे आम सा फेंक देवें
जनाचरों के जंगल में सारी उम्र तड़फड़ाने को कहीं पनाह ना
मिले माँ बाप भी ना दीखें आसपास।"
इन सब के बावजूद भी रिशम पढ़ जाती है। एम .बी .ए .कर के
दाखिल हो जाती है बिज़नैस की दुनिया में। उसने सोचा था कि
पुरुषों के बराबर पढ़ कर उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर काम
करते हुए वह उनकी बराबरी कर पाएगी और बना पाएगी समाज में
अपना वो मुकाम जो उसके भीतर बाबा ने भर दिया था पर यहाँ भी
वह धोखा खा गई। पहले प्रेमी कहलाने वाले पुरुष द्वारा
चुग्गे की तरह इस्तेमाल होती है फिर पति बन कर उसकी ज़िंदगी
में आया विरज उसे मात देने के लिए शतरंज की गोटी की भाँति
प्रयोग में लाता है।
ऐसे में स्त्री की स्थिति क्या? क्या इस्तेमाल की एक
वस्तु, एक पदार्थ, चुग्गा या एक गोटी की तरह इस्तेमाल होती
रहे या फिर स्वयं अपने पैरों के भार चलने का अहद कर ले।
संतोष कथा का अंत यहीं देते हुए, कभी माँ के शब्दों में
कभी अपने मन के द्वन्द्व के माध्यम से इस पर प्रश्न चिन्ह
लगाती है। फिर इसका हल क्या? शायद यह नारी की नियति है या
फिर अभी भी दुनिया जिसकी लाठी उसकी भैंस के सिद्धांत पर ही
चल रही है। स्त्री की शारीरिक निर्बलता सबल पुरुष के लिए
आज भी दल देने के लिए ही है। केवल पुरुष ही नहीं समाज का
हर ताकतवर अपने से कमज़ोर को इस्तेमाल करता है।
वर्ष दर वर्ष अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ कर खुद को आज़ाद और
खुदमुख्तार मानती आज की नारी अब तक इस्तेमाल की वस्तु बनी
हुई है। सचमुच पुरुष सत्तात्मक समाज मे शिक्षा, पद तथा
अर्थ की शक्ति पा लेना तथा अपने स्वतंत्र व्यक्ति के रूप
में स्थापित करना किसी महायुद्ध से कम नहीं जिस युद्ध में
एक ओर खड़ा है पूरा समाज, समस्त संबंधी मित्र यहाँ तक कि
उसके माता पिता भी। ये कथा एक लड़की की नहीं, सिर्फ़ रिशम की
नहीं, तुलसी भाभी की नहीं, सरो की नहीं, अम्मा नानी दादी
की नहीं, हम सबकी है। ये कहानी नहीं है सच है। सबका अनुभूत
सच है। ऐसा सच जो लाख पर्दे डाल कर भी झुठलाया नहीं जा
सकता।
यह उपन्यास मानव संबंधों को व्याख्यायित करता है बेहद
सूक्ष्मता से। पारिवारिक संबंध, पास पड़ौस के रिश्ते, सरो
से दोस्ती का रिश्ता, केतन से पहला प्यार, मामा के माध्यम
से स्त्री पुरुष का जन्मजात आकर्षण, शहर मे आपा जयंत विरज
यानि कभी मित्र कभी पति कोई भी तो नाता ऐसा नहीं है जो
संतोष की पैनी निगाह से छूटा हो।
गलीचा फॅक्टरी मे काम करते लोगों की स्थिति का सजीव वर्णन
मन को छूता है। ऐसा लगता है उसने इन लोगों के बीच रह कर
इनका दुख दर्द समझा और महसूसा हो।
संतोष की चाहे 'झूला' कहानी हो या 'जड़ें' या फिर यह
उपन्यास 'रेतग़ार' भाषा कहीं ढीली नहीं पड़ती। गाँव की
अम्मां की भाषा हो या फिर शहरी कार्पोरेट वल्र्ड के लोगों
की संतोष अपनी सार्थक शब्दावली से सटीक शब्द छाँटती है और
अभिव्यक्ति को ऐसा प्रभावशाली बना देती हैं कि पाठक उसमें
डूब–डूब जाता है। मुझे संतोष की भाषा की समृद्धि और
गतिमयता ने हमेशा प्रभावित किया है। इस उपन्यास में
इस्तेमाल की गई आँचलिक शब्दावली इसे हमारे ज़ेहन के बहुत
करीब ही नहीं ला देती बल्कि हमें रिशम के पास उसकी गोट मे
उसके दुख दर्द का हिस्सा बना कर उसके साथ खड़ा कर देती है।
एक और बात। संतोष के पास अनुभवों का पूरा संसार है। उनकी
ज़िंदगी मानो सूप है जिसमे वे अनुभवों को पिछोरती है और
नतीजों को प्रस्तुत कर देती है। ये परिणाम वे आईना हैं
जिसमें हम सब अपना–अपना अक्स देख सकते हैं। किसी भी लेखक
की सबसे बड़ी सफलता यही होती है कि उसकी कथा सबकी कहानी हो
उसे पढ़कर सबको यह लगे कि ये तो कहीं न कहीं मेरी ज़िंदगी से
जुड़ी है। कुछ तो ऐसा है जो रिशम के साथ हम भी महसूसते है।
इस उपन्यास मे आए सूक्ति वाक्य
इन्तहा ही तो शुरुआत होती है
जित्ता ज़्यादा दुख होवै उतनी ज़्यादा ताकत मिल्लै है
अनिश्चितता की अंधी सुरंगो से गुज़र कर ही निश्चयों व
परिणामों की रोशनी पाई जा सकती है।
एक खोह का अंत दूसरी गुफा में हो सकता है पर सुरंग के अंत
में खुले आसमान का होना भी तो एक संभावना है।
रजु रेखाएँ भी टेढ़ी होती है क्या।
ज़िंदगी कोई शतरंज का खेल नहीं है। रूख या ऊंट की चालें चल
कर वक्त बिताया जा सकता है, दूसरों से आगे निकलने का भ्रम
पाला जा सकता है पर असल चढ़ाई तो सीधी सरल गति से चलने पर
ही होती है। पैदलों को वज़ीर बनाना ज़िंदगी का खेल नही
गोटियों का है। जड़हीन पौधों सी भटकती आत्माएँ होती हैं
लड़कियाँ तो तभी इनकी असमय मुरझाने की सैकड़ों कथाएँ इतिहास
के पन्नों में दबी पड़ीं हैं जिन्हें त्याग और बलिदान जैसे
आकर्षक शब्दों से सजा दिया जाता है। कितना विवश है व्यक्ति
विवशता से भी अधिक विवश।
सबकुछ हमें बार–बार विचार करने को बाध्य करता हैं। इस
उपन्यास पर बहुत कुछ कहा जा सकता है पर अंत में मैं इतना
ही कहना चाहूँगी कि मानव मन की गहराइयों में झाँकता तथा
समय और स्थिति को गहराई से आँकता यह एक सार्थक उपन्यास है
जिसे पढ़ना एक अनुभव के दौर से गुज़रना होगा।
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