संपादक
धनंजय कुमार, गुलशन मधुर, मधु माहेश्वरी
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प्रकाशक
शिलालेख प्रकाशन, ४/३२ सुभाष गली,
विश्वास नगर शाहदरा, दिल्ली–११००३२,
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पृष्ठ ३०४,
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मूल्यः ३०० रूपए या २० डॉलर
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दिशांतर
(अमेरिका से हिंदी रचनाओं का संकलन)
'दिशांतर' शीर्षक से अमरीका
में रहकर हिंदी में साहित्य–सर्जन करने वाले अनेक लेखकों
की रचनाओं का जो संकलन प्रकाशित हुआ है, उससे यह पता चल
जाता है कि अमरीका जैसे सुदूर पश्चिमी देश में रहते हुए भी
अनेक भारतीय लेखक हिंदी में स्तरीय रचनाओं का सर्जन कर रहे
हैं।
इन साहित्यकारों में से कुछ
की रचनाएं भारत की प्रमुख पत्रिकाओं में काफ़ी समय से
प्रकाशित होती रही हैं और भारत में रहने वाले हिंदी पाठक
उनके नाम और रचनाओं से पहले से ही परिचित रहे हैं। लेकिन
उषा प्रियंवदा, सुषम बेदी, गुलाब खंडेलवाल, वेद प्रकाश
बटुक आदि सुप्रतिष्ठित साहित्यकारों के साथ 'दिशांतर' में
हमें अनेक नए रचनाकारों की रचनाओं को भी पढ़ने का अवसर मिल
गया है, जिसके लिए उसके तीनों संपादक धनंजय कुमार, गुलशन
मधुर तथा मधु माहेश्वरी निश्चय ही बधाई के पात्र हैं।
वास्तव में यह इन तीनों संपादकों के परिश्रम और विवेकपूर्ण
दृष्टि का ही परिणाम है कि ऐसा संकलन सामने आ सका।
संकलन में कुल २६ रचनाकारों
की कविताएं, कहानियां, लेख, व्यंग्य और उपन्यास अंश शामिल
हैं। रचनाओं के साथ संबंधित रचनाकारों के संक्षिप्त परिचय
भी दिए गए हैं जिनसे यह जानकारी भी मिल जाती है कि कौन–सा
रचनाकार मूलतः भारत के किस प्रदेश का है और अमरीका में
रहते हुए किस प्रकार के व्यवसाय या अन्य गतिविधियों से
संबद्ध रहा है। लेकिन इन 'परिचयों' में किसी भी
लेखक–लेखिका की जन्मतिथि नहीं दी गई है, जिससे यह ज्ञात
नहीं हो पाता कि वे किस आयु–वर्ग के हैं, या कि अमरीका में
लगभग कितने वर्षों से रह रहे हैं। मेरे विचार से अगर इस
तरह की सूचनाएं भी 'परिचयों' में शामिल की जा सकतीं, तो वे
पाठकीय दृष्टि से और ज़्यादा उपयोगी हो सकते थे।
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इसी तरह, संकलन में रचनाओं के
चयन में भी एकरूपता का अभाव है। किसी कवि की १० या अधिक
कविताएं (धनंजय कुमार तथा शालिग्राम शुक्ल) शामिल कर ली गई
हैं, तो किसी की मात्र दो (सुरेंद्रनाथ तिवारी तथा अंजना
संधीर)। दूसरी ओर कई रचनाकार हैं, जिन्हें कई विधाओं में
शामिल किया गया है, जबकि अधिकांश का केवल कवि के रूप में
ही चयन किया गया है। उदाहरणार्थ सुषम बेदी और शालिग्राम
शुक्ल को कवि, कहानीकार और निबंधकार, तीनों रूपों में
शामिल किया गया है। इसी तरह उमेश अग्निहोत्री का भी
कहानीकार, निबंधकार और व्यंग्यकार, तीन रूपों में चयन किया
गया है।
उक्त असंगतियों या
विसंगतियों के बावजूद मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं
है कि जो रचनाएं इस संकलन में शामिल की गई हैं, वे
श्रेष्ठता और स्तर की दृष्टि से भारत में रहने वाले हिंदी
लेखकों की रचनाओं से किसी भी रूप में निम्न कोटि की नहीं
हैं और यही इस संकलन और उसके संपादकों की विशिष्ट उपलब्धि
भी है।
संकलन की श्रेष्ठता या
स्तरीय पर आगे विचार करने से पूर्व 'भूमिका' के रूप में इन
तथ्यों पर भी विचार कर लेना चाहिए जिनके बारे में स्वयं
संपादकों ने भी संकेत कर दिए हैं, और जो इस संकलन की
पृष्ठभूमि और उद्देश्य पर भी प्रकाश डालते हैं। वे हैं –
(१) विदेश में जाकर बसा भारतीय, नए संदर्भ से जुड़ता अवश्य
है, लेकिन अपने मूल संदर्भ से कट नहीं जाता, क्योंकि वह
जहां भी रहे, अपने संस्कार, अपनी मिट्टी की बू–बास से जुदा
नहीं होता। (२) आज की सिकुड़ती दुनिया में जब हमारे
चाहे–अनचाहे सदियां अलग–अलग विकसित होती रही संस्कृतियां
एक–दूसरे के निकट आ रही हैं, एक–दूसरे से अंतर्क्रिया में
जुटी हैं, एक–दूसरे को प्रभावित कर रही हैं और हम
दुनिया–भर की भाषाओं में अनूदित होने वाले साहित्य के
प्रति एक सहज जिज्ञासा महसूस कर रहे हैं, तब अपने ही देश
के विदेश में बसे व्यक्ति के लेखन के संदर्भ को अजनबी
क्यों माना जाए? (पृष्ठ १२–१३)
यह तथ्य भी सर्वविदित है कि
कोई भी जेनुइन रचनाकार अपने परिवेश और समाज के विरोधाभासों
और विषमताओं की खोज करता रहता है और फिर उन्हीं के बारे
में लिखता भी है। इस दृष्टि से संकलन में शामिल किए तीनों
निबंध या लेख अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि उन्हें पढ़कर
विदेशों में (विशेषकर अमरीका में) बसे भारतीय हिंदी लेखकों
के विचारों और भावनाओं के द्वंद्व का पता चल जाता है।
उदाहरणार्थ उमेश अग्निहोत्री अपने ही लेख 'भारतीयता की खोज
में' लिखते हैं– 'भारत की खोज में अमरीका में बसा आज का
भारतीय, भारत का एक टुकड़ा ही पकड़ पाता है। उसे ही वह
भारतीयता समझने लगा है। आज के तथाकथित उतर आधुनिक और उतर
विकासशील समाज में अमरीका में बसे अन्य देशीय समुदायों की
तरह भारतीयों की भी यही नियति दिखाई देती है' (पृष्ठ २८५)
इसी तरह के एक द्वंद्व को पीढ़ियों के संदर्भ में सुषम
बेदी ने भी अपने लेख 'पीढ़ियों की सीढ़ियां' में अभिव्यक्त
किया है– 'आज भारतीय मां–बाप को बार–बार यही शिकायत होती
है कि बच्चे उनसे इज्ज़त से नहीं बोलते, तू–तड़ाक करते
हैं, हर बात का मुंहतोड़ जवाब देते हैं, कुछ करने से रोको,
तो सवाल उठाते हैं। मैं उनसे पूछती हूं कि कैसे बिगड़ जाते
हैं, तो जवाब मिलता है– बड़े हो जाते हैं, तो मां–बाप की
सुनते नहीं। मैं उन्हें छेड़ती भी हूं कि आप बच्चों को
कंट्रोल रखना चाहते हैं? क्या बच्चे आपकी संपति हैं?'
(पृष्ठ २८८–२८९) . . .इसी तरह के विरोधाभासों के बीच जीते
हुए 'साहित्य' किस तरह एक प्रेरक शक्ति बन जाता है, इसका
प्रमाण हमें शालिग्राम शुक्ल के लेख 'सो गया हाथ नहीं' से
मिल जाता है– 'यहां ही हरी घास चरते भारतीयों से पूछें कि
क्या वे सुखी और संतुष्ट हैं? जिनका सर्वनाश हो चुका है,
वे कहेंगे कि हां, वे संतुष्ट हैं। पर जिनका सर्वनाश नहीं
हुआ है, उनमें कुछ बनारस की गायों से ईर्ष्या करते, हिंदी
या किसी अन्य भारतीय भाषा में साहित्य रचना करते हैं।
साहित्य किसी को सर्वनाश से बचा भी सकता है, इसका विदेश के
ये कुछ अच्छा–बुरा लिखते भारतीय प्रमाण हैं।' (पृष्ठ २९४)
अमरीका में रहकर अमरीकी
जीवन जीते हुए या उसके बीच से गुज़रते हुए जो अनुभव भारतीय
हिंदी लेखकों को होते रहते हैं, उन्हीं का रचनात्मक
स्वरूप, उनकी रचनाओं में विद्यमान है। इस दृष्टि से
सुप्रतिष्ठित लेखिका उषा प्रियंवदा का उपन्यास अंश
(अंतर्वेशी) तो विशेष रूप से पठनीय है ही, विजय चौहान की
कहानी 'शाम के वक्त' और रेणु राजवंशी की कहानी 'कौन कितना
निकट' भी 'सत्यकथा' (इंग्लिश चैनल को पार करने वाला
नवयुवक) भी है, जो एक साधारण युवक की असाधारण कथा के रूप
में हमारा ध्यान आकर्षित करने में सफल है। इसी तरह उमेश
अग्निहोत्री के तीनों व्यंग्य भी अमरीकी जीवन की विडंबनाओं
को पर्याप्त सूक्ष्मता और तीक्ष्णता से व्यक्त कर पाए हैं।
अब आइए कविताओं पर, जो इस
संकलन में सर्वाधिक संख्या में हैं और अपने कथ्य एवं शिल्प
में भी विविधतापूर्ण या अनेकआयामी हैं। स्वयं संपादकों ने
अपनी 'भूमिका' में इस तथ्य का उल्लेख इन शब्दों में किया
है– 'संकलन की रचनाओं में आप लगभग हर पीढ़ी का
प्रतिनिधित्व भी पाएंगे – वयोवृद्ध गुलाब खंडेलवाल से लेकर
अपनी अनुभूतियों को शब्द देने की किसी उपयुक्त शैली की
तलाश करती चेतना मेहरोत्रा तक। संग्रह में छंदोबद्ध
कविताएं भी हैं, रोमांस के माधुर्य में पगे गीत भी और
अहसास के उन्मुक्त प्रवाह में व्यवधान बनने वाले कृत्रिम
तटों के बंधन तोड़ती तरंगित सरिताओं–सी मुक्तछंद कविताएं
भी।' (पृष्ठ १7)
यहां विस्तार–भय से हर
प्रकार की कविताओं पर तो विचार करना संभव नहीं है, पर
अमरीकी जीवन–शैली और भारतीय जीवन–पद्धति को तुलनात्मक ढंग
से या किसी अन्य प्रकार से प्रस्तुत करने वाली कुछ विशेष
कविताओं का उल्लेख तो किया ही जा सकता है। उदाहरणार्थ युवा
कवयित्री अंजना संधीर की 'अमेरिका हडि्डयों में जम जाता
है' का उल्लेख किया जा सकता है, जिसमें वे अमरीकी जीवन की
सुविधाओं को स्वीकारते हुए भी सकारात्मक भारतीय मूल्यों को
अपनाए रखने का संदेश देती प्रतीत होती हैं – 'अमेरिका जब
सांसों में बसने लगे/तुम उड़ने लगो . . .तो सात समंदर
पार/अपनों के चेहरे याद रखना/जब स्वाद में बसने लगे
अमेरिका/तो अपने घर के खाने और मां की रसोई याद रखना/यहीं
से जाग जाना . . .संस्कृति की मशाल जगाए रखना/अमेरिका को
हडि्डयों में मत बसने देना/अमरीका सुविधाएं देकर हडि्डयों
में जम जाता है।'(पृष्ठ १८२)
अमरीका में बसे भारतीय अपने
अंतर्मन में कैसी छटपटाहट महसूस करते हैं, इसकी कई झलकें
विनोद तिवारी के 'प्रवासी गीत' में देखी जा सकती हैं और
उसकी पीड़ा भी महसूस की जा सकती है। उदाहरणार्थ द्रष्टव्य
हैं ये पंक्तियां– 'पूरी होती नहीं प्रतीक्षा/कभी प्रवासी
लौट न पाए/कितना रोती यही यशोदा/गए द्वारका श्याम न
आए/दशरथ गए सिधार चिता, पर/राम गए वनवास, न आए। कितने
रक्षाबंधन बीते/भैया गए विदेश,न आए/अंबर एक, एक है
पृथ्वी/फिर भी देश–देश दूरी पर। चलो, घर चलें/लौट चलें अब
उस धरती पर।(पृष्ठ ११४–११५) इसी तरह मधु माहेश्वरी की
कविता पढ़कर शायद हर प्रवासी भारतीय सोचता होगा कि यह तो
हम सबकी भावनाओं की ही अभिव्यक्ति है – 'आकाश वही
था/निर्लिप्त योगी–सा/पर मन पाखी/दो छोरों में उडता
रहा/कुछ सपने आए झोली में/पर मन का अहम हिस्सा/ए वतन तुझसे
जुड़ा रहा/और जीवन पर जब छाया अवसाद/तो मन अमृत के
कारण/तुझसे पीता रहा/तुझसे दूर होकर भी/यूं तेरे साथ जीता
रहा।'(पृष्ठ १४८)
समग्रतः मैं यही कहना चाहता
हूं कि 'दिशांतर' एक सकारात्मक सत्प्रयास है और इस प्रकार
के प्रयास अन्य देशों में रह रहे प्रवासी भारतीय हिंदी
लेखकों की ओर से भी किए जाने चाहिए, ताकि विश्व भर में
प्रवासी भारतीय हिंदी लेखकों की रचनाएं प्रकाश में आ सकें
और उनके गुण–दोषों पर चर्चाएं भी हो सकें।
—डॉ .वीरेंद्र सक्सेना
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