पैर धरती पर हमारे‚ मन हुआ आकाश है।
आप जब हमसे मिलेंगे उठा यह सर देखिए।
भरोसे की बूंद को मोती बनाना है अगर।
जिन्दगी की लहर को सागर बनाकर देखिए।
कवि 'हिमांशु' के काव्य की विशेषता है कि आधुनिकता और
भूमण्डलीकरण के दौर में वे इंसान और इंसानियत की तलाश कर
रहे हैं—
हैं कहां/ वे लोग/ इतने प्यार के।
पड़ गए/ हम हाथ में/बटमार के।
सुख
बांटने की भावना 'हिमांशु' की कविताओं में दृष्टव्य
है।स्वार्थ परता के वर्तमान वातावरण में 'आसीम' अंजुरी भर
आसीस कविता में कवि अपना सर्वस्व लुटाकर पावन होने की
इच्छा व्यक्त करता है—
आज राहत/ मिल गई/ सभी सुख यूं।
अपने लुटाकर/ और हलका/ हो गया मन।
पीर का स्पर्श पाकर/ उस द्वार पर माथा झुकाकर।
स्नेह के आंसू हमारे/ मन भावन हो गए।
जीवन मूल्यों को ढूंढने की चाहत कवि को बैचेन किए रहती
है।जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उनके काव्य में
सर्वत्र देखा जा सकता है—
डबडबाती/आंख–सी है/रूप की यह झील निर्मल/पास में सुधियां
तुम्हारी/ जैसे तुम हो लहर चंचल/ ढूंढता हूं/ हर लहर में/
छाप जीवन की।
'पंचायती राज' के फलस्वरूप हमारे गांवों में आत्मीयता की
कमी हुई है।गांवों की सहजता‚ सरलता और भाईचारे को कवि अब
भी खोजने का प्रयास कर रहा है—
पहले इतना/ था कभी न/ गांव इतना /अब पराया हो गया/
खिलखिलाता/ सिर उठाए/वृद्ध जो‚ बरगद/ कभी का सो गया/ अब न
गाता / कोई आल्हा/ बैठकर चौपाल में/मुस्कान बन्दी/ हो गई/
बहेलिए के जाल में/अदालतों की/फाइलों में/ बंद हो‚ भाईचारा
खो गया।
नए जमाने
के रंग–ढंग मे रंगे हमारे गांव अपनी शाश्वतता और मूल रूप
को खोकर अपनी अपनत्व की विशेषता से दूर हो गए हैं—
न जवानों की टोली/ गाती कोई गीत/ हुए यतीम अखाड़े/ रेतीली
दीवार्रसी/ढह गई/आपस की प्रीत।
गर्लीगली में घूमता/भूखे बार्धसा अभाव।
कवि
हिमांशु सामाजिक सरोकारों के केवि हैं। समाज में फैली हुई
इंसान–इंसान के बीच की नफरत उन्हें बैचेन कर देती है—
हवा में फिर से घुटन है आजकल
रोज सीने में जलन है आजकल।
घुल रही नफरत नदी के नीर में
नफरतों का आगमन है आजकल।।
समाज में
व्याप्त स्वार्थपरता और कम होती ईमानदारी की भावना पर
उन्होंने चोट की है।भष्टाचार तो जैसे लोगों के खून में
शामिल हो चुका है। अब कोई ईमानदार नहीं बचा—
तुम समझे हो जिसको देवालय‚ यहां न रहती मूरत कोई।
ईमान हथेली पर लेकर‚ बिके हैं दर–दर अक्सर लोग।
लुट गया कारवां था दिन में जो‚ पता चला है घर–घर में।
शामिल हो गए सभी लूट में‚ संगी–साथी रहबर लोग।।
समाज
में‚ फैली हुई हिंसा की भावना का खुलासा भी उन्होंने किया
है।गांवों में जाति–पांति के नाम पर व्याप्त हिंसात्मक
चाल–चलन का खुलासा उन्होंने किया है। हत्या‚ लूट‚ दंगे आदि
आज के समाज में सामान्य सी बातें हो गई हैं—
आदमी को चुभ रही इंसान की बातें।
आज लगती तीर–सी ईमान की बातें।।
यार से पूछी कुशल घर–गांव की हमने।
उसने कही लाश की किरपान की बातें।।
धर्म
के नाम पर प्रचलित हिंसा‚ नफरत और वैमनस्य पर उन्होंने
कड़ी चोट की है।साम्प्रदायिकता का ज़हर समाज को खोखला बना
रहा है और धर्मान्ध पंडे–पुजारी‚ मुल्ला–मौलवी नफरत फैलाकर
वातावरण को विषाक्त बना रहे हैं—
एक चाकू हवा में ठहरा हुआ‚ घाव कलेजे पर फिर गहरा हुआ।
सजी दुकाने धर्म व ईमान की‚ नफरत का परचम है फहरा हुआ।।
राजनेताओं के रूप में भ्रष्ट‚ अपराधी और चरित्रहीन लोग आज
समाज के कता धर्ता बन बैठे हैं।कवि द्वारा इनकी नीयत पर
लगाया गया प्रश्नचिह्न समाज को आगाह कर रहा है। भेड़िए
रूपी नेता लोग मेमनों का रूप धारण कर भेड़ रूपी जनता को ठग
रहे हैं और सीधी जनता उनके हाथों की कठपुतली बनी हुई हैं—
भेड़िए/ बैठ हुए हैं/ मेमनों का/ रूप धारे।छोड़ दें/ किसके
भरोसे/मृगशावक भावनाएं/ सांझ होने पर घर को/ लौट कर/ आएं न
आएं/ बन्द करें/ कैसे भला हम/ इस घर के/ द्वार सारे।
निष्कर्षतः दौलत और शोहरत की चाहत और चमक–दमक से दूर कवि
हिमांशु आम आदमी की भावनाओं के चितेरे हैं। उपभोक्ता
संस्कृति के फलस्वरूप असाधारण‚ ऊंचा और अलौकिक बनने की जो
होड़ आज समाज में दिखाई दे रही है उसके जबाब में हिमांशु
का "साधारण आदमी" अपनी पूरी क्षमताओं और अपने पूरे कद के
साथ उठकर खड़ा है। इस प्रकार भूमण्डलीकरण से उत्पन्न
सांस्कृतिक बौनेपन‚ मूल्यहीनता‚ स्वार्थपरता आदि की तुलना
में आम आदमी की सर्वोच्चता और श्रेष्ठता सिद्ध करने में वे
पूर्णतः सफल हुए हैं।
—डा अरूण
कुमार तिवारी
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