तस्वीर
ज़िन्दग़ी के (भोजपुरी ग़ज़ल संग्रह)
समकालीन भोजपुरी कविता में
सर्वश्री पाण्डेय कपिल तथा जगन्नाथ, दो ऐसे नाम हैं जिनकी
कदकाठी, भोजपुरी ही नहीं, हिन्दी के किसी बड़े कवि के
समानान्तर देखी जा सकती है। इनकी ग़ज़लों में, ग़ज़ल का
परम्परागत कथ्य और आधुनिकता से लैस समकालीन एवं सम सामयिक
बांध विस्तार सूक्ष्मता से सुगुम्फित मिलते हैं। इसलिए
मेरा मानना है कि ये दोनों प्रयोगधर्मी सृजनशील कवि
संयुक्त रूप से आधुनिक भोजपुरी गजल के प्रथम पुरूष हैं,
जिनका विकास डॉ•अशोक द्विवेदी की पीढ़ी के कवियों में
देखा–परखा जा सकता है। भोजपुरी गजल साहित्य में मनोज
'भावुक' इसी परम्परा की नवधा कड़ी हैं।
मनोज की ग़ज़लों की
वस्तुचेतना को निजत्व से उपजी सामाजिकता के विस्तार के रूप
में देखा जा सकता है। उनकी गजलों में आजादी के बाद मोह–भंग
से उपजी भारतीय जनजीवन की त्रासदी और छटपटाहट को ही
शब्दायित किया गया है। आजादी के बाद जो सत्ता का
हस्तान्तरण हुआ, उससे केवल शासन–सत्ता का ही परिवर्तन नहीं
हुआ वरन आम आदमी लोकतंत्र के तंत्र में ऐसा उलझा कि उसके
पास सपनों से भरा जो एक कोमल अबोध मन था, वह चालाकियों,
चाटुकारिता, छल–छद्म में बदल गया। मनुष्य के रूप में, जो
अत्यन्त बहुमूल्य धरोहरें थीं, सम्बधों की सहलाव भरी ऊष्मा
थी, वह सब खो गई। गांव, घर, सीवान, सबने कुछ न कुछ खोया ही
और यह खोना ही आजादी का हासिल बनता गया। शहर का कंक्रीलापन
पसरता हुआ उसके भीतर मन में समाता गया। 'तस्वीर जिन्दगी
के' संग्रह की पहली गजल ही, गहरी टीस और छटपटाहट को एक
प्रश्नाकुलता के साथ प्रस्तुत करती है –
बचपन के हमरा याद के दरपन
कहां गइल
माई रे, अपना घर के ऊ आंगन कहां गइल
आंगन को दर्पण कहना, शायद
पहली बार कविता में प्रयुक्त हुआ है। झील का दर्पण, आंखों
का दर्पण पहले भी प्रयुक्त हुआ है, लेकिन आंगन का ऐसा
दर्पण बन जाना, जिसमें यादों के अक्स उभरते हों, पहली बार
प्रयुक्त हुआ है। साथ ही साथ यह उस बदलाव की ओर भी इशारा
करता है, जहां बढ़ता शहरातीपन, उसमें उगते सिमेन्ट और
कंक्रीट के जंगल निरन्तर पसरते चले जा रहे हैं। इस जंगल के
विस्तार में आंगन का खोना, अधुनातन भवन निर्माण और वास्तु
को खारिज करता है। गांव खो गए हैं, गांव की बगीचियां उजड़
गईं हैं, वहां का सहज आनन्द–उल्लास खो गया है। आत्मीयता से
लबालब स्नेह की सरिताएं सूख गईं हैं। तभी तो कवि लिखने को
विवश होता है –
खुशबू भरल सनेह के उपवन
कहां गइल
भउजी हो, तोहरा गांव के मधुबन कहां गइल
आपसदारियां खत्म हो गई हैं,
राजनीति धर्म और जातीय विभाजनों ने ऐसी दरारें पैदा कर दी
हैं, जिन्हें लोग प्रयत्न करके ढक तो लेते हैं लेकिन नष्ट
होने से बचाए भी रखना चाहते हैं। आवरणहीन खुलकर
मिलने–जुलने की रवायतें गुम हो गई हैं और उसका परिणाम
सामने है –
खुलके मिले–जुले के लकम अब
त ना रहल
विश्वास, नेह, प्यार–भरल मन कहा गइल
यही तो त्रासदी है विगत ५६
वर्षों की 'सुराज यात्रा की'। लोगों का कद बढ़ा है लेकिन
ऋणात्मक जीवन मूल्यों की दिशा में। शोषण की प्रवृत्ति ने
उन्हें बरगद बना दिया है, जो ऊपरी तौर पर तो छाया देता है,
लेकिन अपने नीचे उगते किसी और विरवे को वृक्ष बनने से
रोकता है। इतना ही नहीं वरन आसपास के पेड़ों के हिस्से की
खुराक और उनकी जीवनी–शिंक्त भी छीन लेता है –
जे भी बा, बाटे बनल बरगद
इहां
पास के सब पेड़ के रस चूस के
इसी का परिणाम है कि कुछ
लोग अपने मूल्यों, आदर्शों और मानवीय सरोकारों के लिए आज
भी अशरीरी होकर जीवित हैं, स्मृतियों में कौंधते हैं जब कि
तमाम सारे दूसरे लोग दैहिक वजूद रखते हुए भी स्मृतियों के
विलोपन में चले गए हैं। यह स्मृतियों का विलोपन ही तो
मृत्यु है –
बहुत बा लोग जे मरलो के बाद
जीयत बा
बहुत बा लोग जे जियते में, यार, मर जाला
एक अच्छी कविता जितना कहती
है, उससे कहीं अधिक गोपन रखकर संकेतों और व्यंजनों से अपने
अर्थ–आशय को व्याख्यायित करती है। कविता की यह गोपन
प्रक्रिया ही उसके आयाम को विस्तार देती है। मनोज 'भावुक'
की रचनाशीलता, कविता के इस स्वभाव की कसौटी पर खरी उतरती
है।
एक पोख्ता इमारत के लिए
जरूरी है कि उसकी नीव ठोस हो, लेकिन यहां तो नींव ही रेत
में रखी गई हैं। लोग नदी में कागज की नाव पर बैठे हैं और
अपने को सुरक्षित अनुभव करने का भ्रम पाले हुए हैं। यह
आश्वस्ति कितनी भयावह है। कागज की नाव की नियति है डूबना।
योजनाएं जो फाइलों में दब के रह गईं हैं, उनका पानी के
गहरे तल में डूबना सुनिश्चित है। आम आदमी समकालीन समय के
कैसे दबाव में पिस रहा है, इस त्रासदी को कवि ने बड़ी
खूबसूरती से प्रस्तुत करते हुए लिखा है –
कन्हा पे अपना बोझ उठवलो के
बावजूद
हरदम रहल देवाल छते के दबाव में
यह दीवार कौन है भला –
मेहनतकश आम आदमी और छत हैं वे लोग जिनका रिश्ता जमीन से
नहीं है लेकिन दीवार पर बोझ की तरह लदे हुए हैं।
गावों की जानी–पहचानी छवि
बदल गई है। उसका अस्तित्व ही खतरे में है। शहर अपनी सभी,
सभ्य मुखौटों के भीतर छिपी, कुरूपताओं के साथ उसकी आत्मा
को निगल गया है। वैसे लफ्फाजी भरे भाषणों में अब भी भारत
गांवों का ही देश है। देश का सत्तर प्रतिशत हिस्सा गांव है
लेकिन असलियत इसे नकारती है –
कहहीं के बाटे देश ई गांवन
के हऽ मगर
खोजलो पर गांव ना मिली अब कवनो भाव में
यह बात ध्यान देने की है कि
कवि आधुनिकता का विरोधी नहीं है बल्कि वह आधुनिकता की खाल
में इस खतरनाक आदमखोर यांत्रिकता का विरोध करता है जो आदमी
को मशीन में तबदील करती जा रही है। मनुष्य की कोमल मानवीय
संवेदनाओं का क्षरण कर रही है, उसे मार रही है;
लागत बा ऊ मशीन के साथे भइल
मशीन
तब ही त, यार, आज ले लवटल ना गांव में
हिन्दी नवगीत में 'घर' को
प्रेम से भरी संवेदनशील ईकाई के रूप में चित्रित किया गया
है। 'तस्वीर जिन्दगी के' की गजलों में ऐसे अशआर मिलते हैं
जो घर की संवेदना को, पारिवारिक रिश्तों की गर्माहट को
व्यंजना देते हैं –
होखे खपरैल भा महल होखे
नेह बाटे तबे ऊ घर बाटे
परे जब डाट बाबू के छिपी
माई के कोरा में
अजी, ई बात बचपन के मधुर संगीत लागेला
आधुनिकता ने मनुष्य के
स्वभाव की ईमानदारी और सहजता को छीन लिया है। परस्पर
संबंधों में एक कुरूप औपचारिकता का प्रवेश हो गया है। इसी
स्थिति की ओर संकेत करते हुए एक उर्दू के शायर ने लिखा है
– 'दिल मिले या न मिले/हाथ मिलाते रहिए। 'भावुक' का भी एक
शेर है –
प्रीत के रीत गजब रउआ
निभावत बानी
घात मन में बा, मगर हाथ मिलावत बानी
कविता क्या है? गीत क्या
है? इसे तरह–तरह से लोगों ने परिभाषित किया है। लेकिन गीत
की जो केन्द्रिय शर्त है वह है सौन्दर्य का आन्तरिक
अनुगायन। फिर वह चाहे सुखद हो अथवा विषादपूर्ण। गीत के इसी
स्वरूप को परिभाषित करते हुए कवि ने एक शेर में लिखा है –
रूप आ रंग के हम छंद में
बान्हत बान्हत
सांस पर साध के अब गीत कढ़ावत बानी
आचार्य हजारीप्रसाद
द्विवेदी ने कई वर्षों पूर्व वाराणसी के एक कार्यक्रम में
कविता की चर्चा करते हुए कहा था कि कविता रोटी नहीं देगी,
कपड़ा नहीं देगी, मकान नहीं देगी – फिर उसका हमारे लिए
क्या उपयोग हो सकता है? उन्होंने इन सवालों का उत्तर देते
हुए कहा था कि यह ठीक है कि कविता हमें किसी तरह का भौतिक
सुख नहीं दे सकती लेकिन वह उससे भी बड़ा और महत्वपूर्ण
कार्य करती है – एक बेहतर इन्सान बनाने का काम। जीवन में
वह सहचर भाव से हमारे साथ हमेशा रहेगी संवेदनों को निरन्तर
सम्पन्न बनाती हुई। कविता में निहित होती है सृजन की
आकांक्षा। वह जीवन को कोमल सहज तथा सुखद बनाए रखने का
प्रयास करती है –
आजले दे ना सकल पेट के रोटी
कविता
तबहूं हम गीत गजल रोज बनावत बानी
पेट में आग त सुनगल बा रहत ए 'भावुक'
खुद के लवना के तरे रोज जरावत बानी
यह कवि का लवना की तरह खुद
को जलाना ही तो कविता की सृजन की प्रक्रिया का हिस्सा है।
इसलिए कि किसी की आत्मा भूखी न रहे।
ग़ज़ल की विशेषता है कि
उसके शेरों के अर्थ एकहरे न होकर बहुआयामी, बहुकोणिय होते
हैं। सामान्य मानवीय प्रेम के धरातल और आध्यात्मिक
उर्ध्वगमन की प्रक्रिया उसमें एक साथ मिल जाती है –
देखाई आजले हमरा न ऊ पडल
कबहूं
हिया में, सांस में, धड़कन में जे समाइल बा
निकल के आईं कबो ख्वाब से हकीकत में
परान रउरे भरोसा पर अब टंगाइल बा
अब ठीक इससे उल्टी बात एक
शेर में देखें –
कहिये से जे बा बइठल, भीतर
समा के हमरा
हहरत हिया के धड़कन ओकरे सुनात नइखे
परिवर्तनशीलता प्रगति का
पर्याय है। समय के अनुरूप अपने को ढ़ालना मानवीय विवेक का
परिचायक है। लेकिन आंधी के हाथों में अपने को सौंप देना
विवेक नहीं, आत्महत्या है। बदलाव को ठीक–ठीक समझे बगैर लोग
इसके ताल पर थिरकने लगते हैं। यह तर्कसंगत नहीं है।
आधुनिकता किंवा पश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से खिंचकर
उसकी ओर भागना एक अंधी दौड़ है जो जड़ों से विच्छिन्न करती
है। कवि इसी ओर संकेत करते हुए लिखता है,
बदलाव के उठल बा अइसन ना
तेज आंन्ही
कहवां ई गोड़ जाता कुछुओ बुझात नइखे
गजल की एक विशेषता यह भी है
कि उसके शेरों में उर्द्धवणियता होती है और वे व्यापक जीवन
प्रसंगों में हमारे काम इसी तरह आते हैं जैसे तुलसी की
चौपाइयां कबीर–रहीम के दोहे। इस संग्रह में भी कई ऐसे शेर
हैं जो इस कसौटी पर खरे उतरते हैं, कुछ शेर बतौर बानगी
देखें –
जिन्दगी सवाल हऽ, जिन्दगी
जबाब हऽ
जोड़ आ घटाव हऽ, सांस के हिसाब हऽ
•••
धूप चल गइल त का, रूप ढल
गइल त का
बुढ़ भइल आदमी अनुभवी किताब ह
•••
संवेदना के लाश प कुर्सी के
गोड़ बा
मालूम ना ई लोग के कइसे सहात बा
•••
आई अबहूं रहे के मिलजुल के
जिन्दगी में अउर धइल बा का
•••
सुख के एहसास नइखे हो पावत
सुख के सामान सब भरल बाटे
यह देखकर सुखद लगता है कि
मनोज 'भावुक' ने परम्परा से सिर्फ शिल्प ही नहीं लिया है,
वरण विषयवस्तु भी वहां से ग्रहण की है, लेकिन कुछ इस तरह
कि वह उनकी मौलिकता को आहत न करे। यह परम्परा तुलसी में भी
रही है और अन्य अनेक कवियों में भी। कबीर की एक उक्ति को
किस खूबसूरती से अपने शब्दों में ढालकर वे कहते हैं। कबीर
का एक दोहा है –
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा
न मिलिया कोय
या मुख देखूं आपना मुझसा बुरा ना कोय
इसी मजमून पर मनोज का शेर
है –
छोड़ दिहले हंसल ऊ अनका पर
जब से खुद पर नजर परल बाटे
इसी तरह नायिका के सौन्दर्य
का चित्रण करनेवाला बिहारी का एक दोहा है –
लिखन बैठि जाकि सभी गहिगहि
गरब गरूर
भय के के जगत में चतुर चितेर क्रुरूर
इसी संदर्भ में भावुक का
शेर है –
बन्हाईल कहां ऊ कबो छन्द
में
जे हमरा के हरदम लुभावत रहल
रहीम का एक दोहा है –
रहिमन देखि बड़ेन को लघु न
दिजीए डारि
जहां काम आवे सुई कहां करे तलवारि
इसी आशय को व्यंजित करता
भावुक एक शेर है –
कबो कबो होला अइसन जे छोटके
कामे आवेला
देखिना सागर, इनार में, इनरे प्यास बुझावेला
पूंजीतंत्र को लेकर पूरब
में एक लोक कहावत है, "रेलिया ना बैरी, जहजिया ना बैरी,
पिया पइसवा बैरी ना, देशवा देशवा भरमावे इहे पइसवा बैरी
ना।"
ध्यातव्य है कि यहां नायिका
न रेल का विरोध करती है, न जहाज का, जो आधुनिक जीवन के लिए
उपयोगी हैं, वह सिर्फ पैसे पर, पूंजी तंत्र पर चोट करती
है। 'तस्वीर जिन्दगी के' का रचनाकार भी पूंजीतंत्र पर चोट
करते हुए कहता है –
पटना से दिल्ली, दिल्ली से
बम्बे, बम्बे से पूना
'भावुक' हो आउर कुछुओ ना पइसे नाच नचावेला
यह पूंजी तंत्र ही तो ऐसे
दृश्य, ऐसी स्थितियां प्रस्तुत करता है –
गाय कसाई के घर में कुतिया
ऐ• सी• कमरा में
चीन्हीं कइसे केहू के सौ चेहरा एक चेहरा में
'तस्वीर जिन्दगी के' कि
ग़ज़लें व्यापक जीवन की तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। इनमें
जहां एक ओर निजत्व भरा गहरा राग बोध है, वहीं दूसरी ओर
जीवन यथार्थ की बहुआयामी छवि भी। इस संग्रह की गजलों को
भोजपुरी–गजल यात्रा के विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप
में जाचा–परखा जाना चाहिए। एक बात विशेषरूप से ध्यान देने
की है कि जीवन यथार्थ पर भरपूर दृष्टि होते हुए भी कवि में
हताशा का भाव नहीं है। कई ग़ज़लों में एक गहरा आश्वस्ति
भरा आशावाद झलकता है, जो इस रचनाकार के सृजन कर्म को
प्रासंगिक बनाता है। गजल संख्या ४०, ४४ इसके अर्थवान
उद्धरण हैं।
इन ग़ज़लों को पढ़ते हुए एक
अन्य पहलू ने, जिसने अपनी ओर ध्यान आकर्षित किया, वह यह कि
उर्दू में गजल का हर शेर एक स्वतंत्र इकाई की तरह होता है।
इस संग्रह की गजलें भी उसका
निर्वहन करती हैं।
'मां' को लेकर विश्व में अनेक कविताएं लिखी गई हैं।
मनीषियों–चिन्तकों ने यह स्वीकार किया है कि इस जीवन में
'मां' ईश्वर की प्रतिनिधि ही नहीं वरण पर्याय है। एक
विचारक ने कहा कि चूं कि ईश्वर सबके पास नहीं पहुंच सकता,
इसलिए उसने 'मां' की रचना की। इस संग्रह में भी 'मां' पर
एक पूरी गजल है। इसमें 'मां' अपनी सम्पूर्णता में
अभिव्यक्त हुई है और वह तो चरम है जब कवि यह लिखता है –
'मनोज' हमरा हिया में हरदम
खुदा के जइसन रहेले माई
मुझे विश्वास है कि व्यापक
भोजपुरी जगत में ही नहीं, हिन्दी जगत में भी इस संग्रह को
पढ़ा, गुना और सराहा जाएगा। इस संग्रह की गजलों में गजल का
छान्दसिक अनुशासन भी हैं और कविता तथा अर्न्तनिहित संगीत
भी।
— माहेश्वर तिवारी
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