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आज सिरहाने


संपादक
उषा वर्मा और 
चित्रा कुमार
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प्रतिभा प्रतिष्ठान
१६६१ दखनीराय स्ट्रीट,
नेताजी सुभाष मार्ग,
नई दिल्ली ११०००२ 
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पृष्ठ १२८
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मूल्य : १२५ रूपये
विदेश में ५ पाउंड

सांझी कथा–यात्रा (कहानी संकलन)

उषा वर्मा और चित्रा कुमार द्वारा सम्पादित ब्रिटेन की बारह हिन्दी उर्दू महिला कथाकारों की कहानियों का संकलन "सांझी कथा–यात्रा" हिन्दी और उर्दू साहित्य के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं। ये लेखिकाएं हैं – अतिया खान, उषा वर्मा, उषा राजे सक्सेना, कीर्ति चौधरी, फ़िरोज़ मुखर्जी, फ़रोज़ा, ज़फ़र, दिव्या माथुर, नैय्यर खान, रमा जोशी, शैल अग्रवाल, सलमा ज़ैदी और साफ़िया सिद्दीक़ी।

पुस्तक में संकलित कहानियों को पढ़ने पर अनुभव होता है कि भौगोलिक रूप से चाहे भारत और पाकिस्तान को विभाजित कर दिया गया हो, इनकी लेखिकाओं के मन में वे आज भी अविभाजित हैं। विदेश में रह कर भी ये कथाकार इस संस्कृति को अभिव्यक्त कर रही हैं। अकसर होता यह है कि विदेश में रहने वाले भारतीय जब साहित्य रचते हैं तब या तो उनकी रचनाओं में नास्टेल्जिया होता है या अपने देश की भर्त्सना। इन कहानियों में ऐसा न होकर अपने आसपास के परिवेश के यथार्थ को व्यक्त किया गया है। सांझी कथा यात्रा की कहानियों को पढ़ने पर ऐसा लगता है कि इनकी लेखिकाओं ने और भी अच्छी कहानियां लिखी होंगी। यानी कहानी लेखन के क्षेत्र में ये परिपक्व तथा प्रतिष्ठित लेखिकाएं हैं। स्पष्ट है कि श्रेष्ठ हिन्दी कहानियां भारत से बाहर भी लिखी जा रही हैं, और कुछ अर्थों में तो ये कहानियां भारत में लिखी जा रही कहानियों के ढर्रे से अलग हैं, हालांकि इनकी जडें, इनमें व्यक्त जीवन–मूल्य भारतीयता से संबद्ध हैं। आज की तथाकथित प्रतिनिधि हिन्दी कहानी उस मासूमियत, निश्छलता, मार्मिकता और करूणा से रिक्त होती जा रही है जिससे ये कहानियां भीगी हुई हैं।

हिन्दी के बड़े कथाकारों ने बाल तथा नारी–मनोविज्ञान को चित्रित करनेवाली श्रेष्ठ रचनाएं दी हैं। इस संकलन में दो मार्मिक कहानियां – "रौनी" और "तब भी नहीं", बाल मनोविज्ञान का और अधिकांश कहानियां स्त्री की विवशता, छटपटाहट और उसके मानस संसार का चित्रण करती है 'दूर की आवाज़' और 'राख का ढ़ेर' श्रेष्ठ प्रेम कहानियां हैं।

हममें से बहुत से लोगों ने यह धारणा पाल रखी है कि हम पिछड़े और असभ्य हैं। हमारे देश में भेद–भाव, शोषण, और साम्प्रदायिक विद्वेष अधिक है। पश्चिमी देश श्रेष्ठ और सभ्य है। ऐसे लोगों को "रौनी" कहानी बताती है कि यह धारणा भ्रम है। ब्रिटेन जैसे अत्याधुनिक देश में भी अमानवीयता और क्रूरता कम नहीं हैं। "तब भी नहीं" एक मातृ–विहीन, छह वर्ष के बालक के मन में चल रहे संवाद को व्यक्त करती हैं। ऐसी कहानी लिखना कठिन होता है। अपनी मार्मिकता में ये दोनों कहानियां कहीं न कहीं प्रेमचन्द से जुड़ती है।

भारत के हिन्दू मुसलमान आजीविका के तलाश में विदेश गए। वहां जाकर बसे। वहां की जीवन पद्धति को अपनाया। वहां के समाज के खुलेपन का दावा किया और उसकी प्रशंसा की लेकिन जब अपने परिवार और संतान को लेकर ये प्रश्न उठे तो रूढ़िवाद, संकीर्णता कैसे सिर उठाने लगते हैं – इस विडंबना को देखना है तो "दूर की आवाज़", "राख का ढ़ेर" और "जब समंदर रोने लगा" कहानियों को पढ़िए। विडम्बना को व्यक्त करने के साथ ही ये अत्यंत पठनीय, प्रभावित करने वाली प्रेम कहानियां भी हैं। इनमें व्यक्त प्रेम पर उपभोक्ता संस्कृति, ब्रिटेन के समाज के खुलेपन और वर्जनाओं का घिराव है। साथ ही है स्थितियों पर तीखा व्यंग्य।

सांझी कथा यात्रा की सम्भवतः सभी कथाकार अभिजात कुलीन परिवारों की हैं, लेकिन लेखन के क्षेत्र में यह उनकी सीमा नहीं है जैसा कि सामान्यतः पाया जाता है। अपनी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति के बल पर ये लेखिकाएं कहानी का विषय निम्नवर्गीय पात्रों के जीवन से भी उठाती हैं। केवल कहानी का विषय ही नहीं उठातीं, उन निम्नवर्गीय पात्रों के प्रति सहानुभूति और ममता का भाव भी रखती है। "छुट्टी का दिन" कहानी में एक घर में काम करनेवाली नौकरानी को बहुत दिन बाद अपने मन की करने का मौका मिला है क्योंकि घर के सभी लोग पिकनिक पर गए हैं। नौकरानी तरह तरह की योजनाएं बनाती हैं कि वह क्या करेगी। लेकिन सब लोगों के चले जाने के बाद उसे लगता है कि उसका शरीर दुख रहा है, उसे बुखार भी है। वह जैसा सोच रही थी वैसा कुछ भी नहीं कर पाती। इसी क्रम में फाटक खुलने की आवाज़ आती है और मालिक की कर्कश आवाज़ उसके कानों में पड़ती हैं। कहानी में आगे लिखा गया है, लपक कर दौड़ते हुए घर के अंदर दाखिल होते हुए उसने सोचा – धत तेरे की सारा दिन व्यर्थ ही गंवा दिया। कहां की बीमारी और कैसा बुखार। वह तो जैसी की तैसी हट्टी–कट्टी है। ये पंक्तियां निम्नवर्गीय लोगों के जीवन की यांत्रिकता, विवशता और आत्मनिर्वासित होने की स्थिति को तीक्ष्णता से व्यंजित करती है।

इस संकलन की कहानियां नारीवादी लेखन के क्षेत्र से बाहर पड़ती है। क्योंकि इनमें संवेदना की व्यापकता कहीं अधिक है। नारीवादी कहानी के अंतर्गत "राख का ढेर" जैसी कहानी नहीं लिखी जा सकती। लेकिन इन कहानियों में जो भावुकता, करूणा, मार्मिकता और नारी जीवन की विसंगतियां–विडम्बनाएं हैं और जिस प्रामाणिकता से चित्रित हुई हैं उसे देख कर यह अवश्य कहा जा सकता है कि इस प्रकार का चित्रण महिला कथाकार बहुत ज्यादा प्रभावशाली ढंग से कर पाती हैं। यह उनकी विशिष्ट संपत्ति है। ये कहानियां किसी भी पढ़ने वाले के आत्म का विस्तार करती हैं और किसी भी तरह से भारत में लिखी जानेवाली हिन्दी कहानियों से कम नहीं हैं।

विश्वनाथ त्रिपाठी
१६ दिसंबर २००४

 
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