मरा हुआ
लेखक सवा लाख का (व्यंग्य संग्रह)
'मरा हुआ लेखक सवा लाख का'
संजय ग्रोवर के उन व्यंग्यों का संकलन है जो पिछले कुछ
वर्षों में हिंदी की अग्रणी पत्र–पत्रिकाओं में छप चुके
हैं। यद्यपि संग्रह के अधिकतर व्यंग्य 'साहित्यिक
अंडरवर्ल्ड' में कसमसाते लेखकों का भोगा हुआ सच उगलते हैं
लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो वैचारिक प्रवाह में बहते हुए कई
सामाजिक पहलुओं को छूते हैं। सामाजिक कुरीतियों से लेकर
भ्रष्टाचार तक और कट्टरवाद से लेकर छदम् राष्ट्रवाद तक
संजय ने हर दिशा में अपने व्यंग्य–वाण छोड़े हैं। लेकिन
सभी व्यंग्यों में अगर एक उभयनिष्ठ तत्व देखने को मिलता है
तो वह है झूठ और पाखंड से जूझता सच।
बिना किसी
चमत्कारी शिल्प और शाब्दिक जोड़–गांठ के भी अपनी बात
प्रभावी ढंग से कही जा सकती है। यह चीज अधिकांश व्यंग्यों
में देखी जा सकती है जैसे – 'क्या जुगाड़ लगाई जाए जिससे
रचना बिना जुगाड़ के ही छप जाए' (बिना जुगाड़ के छपना),
'भारत को सारे जहां से अच्छा देखना है तो कम–अज़–कम उतनी
ही दूरी से देखना चाहिए जितनी से राकेश शर्मा ने देखा था।
पास से देखने से मज़ा खराब हो जाता है।' (दूर से देश को
देखो)
धार्मिक–सामाजिक–राजनैतिक पाखंड पर लेखक ने कहीं–कहीं
शब्दों के माध्यम से अपने गुस्से को बाहर निकाला है और
बहुत हद तक प्रभावी भी हुआ है। 'बेरोजगार युवक–युवतियों से
मेरी अपील है कि वे आलतू–फालतू चक्करों में न पड़ें। वे
राष्ट्रप्रेम करें। इससे बढ़िया धंधा कोई नहीं। अब प्रश्न
उठता है कि राष्ट्र प्रेम किस विधि से करें ताकि दूसरों को
यह राष्ट्र प्रेम लगे और अपना फायदा भी हो सके। बहुत आसान
है। राष्ट्र की कमियों को भूलकर भी कमिया न कहें बल्कि
खूबियां कहें। अंधविश्वासों और कुप्रथाओं को सांस्कृतिक
धरोहर बताएं। राष्ट्र के शरीर पर उगे फोड़े फूंसियों को
उपलब्धियां बताएं। अनुवांशिक और असाध्य रोगों को अतीत का
गौरव कहें। अपनी सभ्यता और संस्कृति में भूलकर भी कमियां न
निकालें। भले ही विदेशी और तरीकों पर मन ही मन मरे जाते
हों, पर सार्वजनिक रूप से इन्हें गालियां दें। बच्चों को
पढ़ाएं तो अंग्रेजी स्कूलों में मगर नाम उनके संस्कृत में
रखें। स्त्रियों का भरपूर शोषण करें मगर उन्हें 'देवी'
कह–कह कर।' (राष्ट्रप्रेम) या फिर 'सच्चा समाज–सेवक वह है
जो तोड़े नहीं जोड़े। साहित्य को माफिया से . . .माफिया को
धर्म से . . .इन दोनों को चंदाखोरो और करचोरों से .
. .इन्हें समाज सेवा के पाखंड से . . .पाखंड को प्रतिष्ठा
से . . .प्रतिष्ठा को . . .(समाजसेवक)
संजय
ग्रोवर के व्यंग्य हंसी और गुदगुदी की परिधि में विरले ही
आते हैं। वे कभी दिल दुखाते हैं तो कभी झुंझलाते हैं। तो
कभी–कभी आईना भी दिखाते हैं। इन सबके बीच पाठक की दिलचस्पी
बरकरार रहती है। शब्दाडंबर और भाषागत परहेज से दूर लेखक ने
जो कहा है सीधे कहा है। सभ्यता और संस्कृति का ढिंढ़ोरा
पिटने वालों को आईना दिखाता एक व्यंग्य 'वे गालियां नहीं
बकते' में कई प्रश्नों को बड़ी सहजता से खरोचा है और
इतिहास, पुराण और धर्म मिथकों के दोहरेपन को उजागर किया
है।
भारतीय
सभ्यता–संस्कृति में बघारे गए रिश्तों के महिमा–मंडन का
जैसा 'प्रतिमा–खंडन' संजय के व्यंग्यों में हैं, बहुत कम
ही देखने को मिलता है। 'आदरणीय जीजाजी, 'पूज्य पिताजी',
बिन भाभी सब सून' और 'पौट्टूजी का दूसरों से प्रेम' जैसे
व्यंग्य इसके अच्छे उदाहरण हैं।
पिछले तीन
चार सालों से इलेक्ट्रानिक मीडिया खास कर टीवी चैनलों का
बाज़ार जिस तरह 'गरम' हुआ है उसने समाचार चैनलों को भी
सांस्कृतिक उपनिवेशवाद और उपभोक्तावाद का प्रतिनिधि बना
दिया है। संचार माध्यमों की उपभोक्तावादी मानसिकता पर एक
व्यंग्य 'गज–भर एक्सक्लूसिव' वाकई सोचने पर मजबूर करता है।
स्त्री
विमर्श भले ही व्यंगों का केंद्र–बिंदु न हो लेकिन इसके
पुट कहीं न कहीं जरूर देखने को मिल जाते हैं। नारी–शोषण,
दहेज–उत्पीडन और असमानता पर लेखक ने जो चिंता जताई हैं वो
नया तो नहीं लेकिन अंदाज–ए–बयां अलग है।
संजय
व्यंग्य–विधा को भी नहीं बख्शते। बने–बनाए
खांचों–सांचों–ढांचों में वे अपने व्यंग्यकार को
दिलो–दिमाग़ सिकोड़कर बैठे रहने को विवश नहीं करते। बल्कि
दुस्साहस की हद तक अतिक्रमण करते हुए परिभाषाओं और
लीकों–लकीरों को छिन्न–भिन्न करते हैं और आलोचकों,
प्राचार्यों आदि को पुनः सोचने को मजबूर करने की कोशिश
करते हैं। कुछ उद्धरण देखें –
'व्यंग्यकार दो तरह के होते हैं। पहली श्रेणी के वे जो
व्यंग्यपूर्ण स्थितियों की समाप्ति के लिए व्यंग्य लिखते
हैं। दूसरे वे जो ऐसी स्थितियों को बनाए रखने के लिए लिखते
हैं। मैं तीसरी श्रेणी का हूं जो दूसरी श्रेणी की पूरक
होती हैं। हम लोग खुद ही व्यंग्यपूर्ण स्थितियां भी होते
हैं।'(एक कॉलम व्यंग्य)
'दर्शकों
में बैठा हुआ मैं एक निष्कासित की तरह चिढ़ते हुए,
खिलाड़ियों पर छींटाकसी करता। यह तो बाद में आकर पता चला
कि इस छींटाकशी को कलमबद्ध करके काग़ज़ पर उतार दिया जाए
तो साहित्य में कई बार इसे व्यंग्य का दर्ज़ा दे दिया जाता
है।' (क्रिकेट अपना–अपना)
'जब वे तीन
वर्ष के थे तभी उन्होंने निश्चय कर लिया था कि लोग अगर
मानसिक विकृतियों व सामाजिक विद्रुपताओं पर व्यंग्य लिखते
हैं तो मैं लोगों की शारीरिक बीमारिओं, क्षेत्रीय बोलियों
व मानसिक परेशानियों पर लिखूंगा।'(अगर तुम न होते)
इसी तरह
पत्र–पत्रिकाओं में छपने को लेकर चलने वाली तिकड़मबाजी और
संपादकीय नीति (?) को भी उन्होंने कई व्यंग्यों में निशाना
बनाया है। यथार्थ के धरातल पर रहते हुए शब्दों के सहारे
कल्पना की उड़ान व्यंग्य को न केवल रोचक बनाती है बल्कि
सोच के नए आयाम भी रचती है। संजय के व्यंग्यों में
कहीं–कहीं ही सही लेकिन यह बात दिख जाती है।
'कुदरत ने
अभी तक अपना कोई ऐसा दफ्तर नहीं बनाया जहां आदमी चपरासी को
चाय पानी के पैसे देकर बड़े साब के पास पहुंच जाए और उनसे
सैटिंग कर ले कि साब जब मेरे मुहल्ले में भूकंप आए तो मेरे
मकान का बाल भी बांका न हो या फिर मेरे हिस्से के झटके
मेरे पड़ोसी को लग जाएं' (भूकम्प भी भोजन है)
वास्तव में
पूरे संग्रह को दो भागों में बांटा जा सकता था। एक तो वे
जिनका प्रतिनिधित्व संग्रह का शीर्षक करता है और दूसरे वे
व्यंग्य जो इस परिधि से बाहर हैं। व्यंग्यकार का शब्द चयन
कलात्मक है लेकिन वाक्य संरचना कहीं–कहीं डगमगा गई हैं
जिसे और बेहतर बनाया जा सकता था।
'मरा हुआ
लेखक सवा लाख का' संग्रह जिन बातों के लिए सराहनीय है
उनमें से एक यह भी है कि अधिकतर व्यंग्य वर्षों पहले लिखे
गए थे लेकिन आज भी प्रासंगिक हैं। हालांकि कुछ व्यंग्य ऐसे
हैं जिन्हें बदले समय के साथ बदली परिस्थितियों में
संपादित कर और प्रभावी बनाया जा सकता था। बहरहाल व्यंग्यों
की 'दैनिक सप्लाई' और 'खपत' (एक कॉलम व्यंग्य) के जिस दौर
से हम गुजर रहे हैं उसमें अधिकतर व्यंग्य पढ़ने या सुनने
को मिलेंगे जो रोजमर्रा की देशी–विदेशी घटनाओं और राजनैतिक
उठा–पटक से प्रेरित हैं। हफ्ता–महीना बीतते ही इनका मतलब
समझना मुश्किल है। ऐसे में यह संग्रह पाठकों के संग्रह के
काबिल हैं जिसे वर्षों बाद भी पलट कर देखा जा सकता है।
—प्रमोद
राय
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