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आज सिरहाने


लेखक
चित्रा मुद्गल
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प्रकाशक
सामयिक प्रकाशन
नेता जी सुभाष मार्ग
दरियागंज
नई दिल्ली ११०००२, 
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पृष्ठ ५४४
°

मूल्य : ५०० रूपये

आवाँ (उपन्यास)

सुपरिचित कथाकार चित्रा मुद्गल का बृहद उपन्यास 'आवाँ' स्त्री–विमर्श का बृहद आख्यान है, जिसका देश–काल तो उनके पहले उपन्यास 'एक जमीन अपनी' की तरह साठ के बाद का मुंबई ही है, लेकिन इसके सरोकार उससे कहीं ज्यादा बड़े हैं, संपूर्ण–स्त्री विमर्श से भी ज्यादा श्रमिकों के जीवन और श्रमिक राजनीति के ढेर सारे उजले–काले कारनामों तक फैले हुएऌ जिसकी जमीन भी मुंबई से लेकर हैदराबाद तक फैल गई है। उसमें दलित जीवन और दलित–विमर्श के भी कई कथानक अनायास ही आ गए हैं। इस रूप में इसे आज के स्त्री–विमर्श के साथ–साथ दलित–विमर्श का महाकाव्य भी कह सकते हैं, जिसे लिखने की प्रेरणा चित्रा मुद्गल को मुंबई में जिए गए अपने युवा जीवन से मिली। 'आवाँ' का बीज चाहे मुंबई ने रोपा, लेकिन खाद–पानी उसे हैदराबाद से मिला और श्रमिकों के शहर कोलकाता में बैठकर वह लिखा गया तो दिल्ली ने आधार कैंप का काम किया। इस रूप में यह लगभग पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करने वाला हिन्दी उपन्यास है, बड़े, बहुत बड़े फलक का उपन्यास। सही अर्थों में एक बड़ा उपन्यास, जिसमें लेखिका की अकूत अनुभव–संपदा काम आई है।

'क्यों' के रूप में, आभार में, ब्लर्व में जो कुछ कहा गया है, उसे चूक, असावधानी, अदूरदर्शिता, अनुभवहीनता, लोभ तथा मासूम चालाकी अपनी भावना से आप कुछ भी कह और समझ सकते हैं, लोगों ने समझा ही है, लेकिन मुझे सबसे बड़ा खतरा 'आवाँ' को लेखिका का आत्मकथात्मक उपन्यास समझ लिए जाने का लगता है। 'आवाँ' की सर्जक की कोशिश और आकांक्षा कुछ–कुछ 'जिंदगीनामा' जैसा ही इतिहास बनकर जन सामान्य (स्त्रियाँ खासकर) में बहने, पनपने, फैलने और सांस्कृतिक पुख्तापन के साथ जिंदा रहने की है और खाकसार को विश्वास है कि ऐसा होगा। काफी कुछ हुआ भी है, और यह सिलसिला अभी जारी रहेगा, देर तक और दूर तक। यह उम्मीद भी हमें है।
 

नमिता पाँडे तो खैर चित्रा मुद्गल का प्रतिरूप नहीं है, लेकिन नमिता पाँडे की प्रतिरूप हर्षा जरूर सुरेंद्र वर्मा के उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' की नायिका वर्षा वशिष्ठ की याद दिलाती है और संयोग देखिए कि दोनों नायिकाएँ ब्राह्मण हैं, लेकिन 'पीली छतरी वाली' नहीं हैं, गोकि 'पीली छतरी वाली लड़की' जैसा हाल नमिता पाँडे का करने के लिए 'आवाँ' में पवार मौजूद भी था, चित्रा चाहतीं तो वैसा या उससे भी ज्यादा रतिरंग 'आवाँ' में बिखेर सकती थीं, संजय कनोई से बिखरवाया भी है पर अंततः वे नमिता पाँडे को उस पंक से निकाल ले गई हैं।

दलित पवार और ब्राह्मण नमिता के पारस्पारिक आकर्षण के माध्यम से 'आवाँ' में अगर दलित–विमर्श का जरूरी मामला आया है तो नमिता के पिता देवीशंकर पांडे की बिनब्याही दूसरी पत्नी किशोरी बाई के माध्यम से परकीया प्रेम पका है और किशोरी बाई की बेटी सुनंदा का सुहेल से प्रेम हिंदू–मुस्लिम विवाह की समस्या को उजागर कर गया है। विवाह के लिए धर्म परिवर्तन, सुनंदा इसे स्वीकार नहीं करती। सांप्रदायिक दंगे में उसकी बलि पाठक को हिलाकर रख देती है। उसकी बेटी अपनी नानी किशोरी बाई के पास पलती है। नमिता अपने पिता और किशोरी बाई के अवैध प्रेम संबंध को सहज रूप से स्वीकार करती है और संजय कनोई से अपने अवैध संबंध के बाद लुट–पिटकर अपनी इच्छा, अपने निर्णय से जब लौटती है तो सौतेली माँ किशोरी बाई के पास लौटती है, जहाँ है उसकी सौतेली बहन सुनंदा की अनाथ रह गई बेटी। तय है कि इस अनाथ बच्ची की जिम्मेदारी अंततः नमिता को ही लेनी है तो यह नायिका और लेखिका की जीवन–दृष्टि, अनाथों और बूढ़ों की सार–सँभाल की ओर संकेत करती हुई एक सही जीवन–दृष्टि, सार्थक जीवन–दृष्टि, सही और सार्थक साहित्य का सृजन करती हुई स्त्री–दृष्टि, जो 'आवाँ' को और–और बेहतर उपन्यास बना देती है।
भाषा के बहुस्तरीय उपयोग के लिहाज से देखें तो 'आवाँ' का जोड़ीदार दूसरा स्त्री उपन्यास नहीं मिलेगा। मनोहर जोशी को ही भाषा में यह कमाल करना आता है और कुछ–कुछ आता है कृष्णा सोबती को भी। मुंबई के झोपड़पट्टी जीवन के चित्रण में जगदंबाप्रसाद दीक्षित के 'मुरदाघर' की भाषा की कुछ–कुछ छाप वैसे परिवेश के चित्रण में 'आवाँ' में दिखती है। चित्रा मुद्गल के पास मुंबइया हिंदी का ठोस आधार है, जिसमें ब्रज और अवधी की सरसता कुछ इस कदर घुलमिल गई हैं कि उनकी भाषा कबीर की तरह सधुक्कड़ी या कह लें पंचमेल खिचड़ी हो गई है, जो आम जनता के लिए सुपाच्य है जिसमें 'खड़ी बोली' का ठाठ तो है ही, राष्ट्रभाषा के जनभाषा में रूपांतर का अटपटा–सा लगने वाला सायास प्रयास भी दिखता है।

स्त्री विमर्श का उपन्यास होते हुए भी 'आवाँ' की दृष्टि स्त्रीवादी नहीं है, वह एक श्रमजीवा की दृष्टि है, कामगार की दृष्टि, इसीलिए ऊपरी तौर पर वह श्रमिक राजनीति पर लिखा गया उपन्यास लगता है, लेकिन गहराई में जाएँ तो हर जगह स्त्री–विमर्श की छायाएँ ही छायाएँ मँडराती नजर आती हैं। 'आवाँ' की नायिका नमिता पाँडे कामगार अघाड़ी में ट्रेड यूनियन का काम करने वाले मजदूर नेता देवीशंकर पाँडे की बेटी है, जो एक श्रमिक आंदोलन के दौरान हुए जानलेवा हमले में बच तो गए, लेकिन पक्षाघात के शिकार हो गए, चलने–फिरने तक से महरूम। उनकी पत्नी क्रूर और कर्कशा है, जो उन्हें ही नहीं, अपनी बड़ी बेटी नमिता को भी हमेशा जली–कटी सुनाती रहती है। माँ–बेटी पापड़ बेलने का काम करके किसी तरह गृहस्थी की गाड़ी को चलाने की कोशिश करती हैं। फिर अन्ना साहब उसे अपने पिता की जगह कामगार अघाड़ी की नौकरी दे देते हैं। बेटी जैसा मानते और कहते हुए भी एक दिन अन्ना साहब उसका यौन शोषण करने का प्रयास करते हैं तो नमिता का मोहभंग हो जाता है और वह कामगार अघाड़ी छोड़कर अन्यत्र नौकरी ढूँढ़ती है और एक मैडम अंजना बासवानी उसे संजय कनोई जैसे धनपति के स्वर्णिम जाल में फँसा देती है। उधर कामगार अघाड़ी में अन्ना साहब जो करते हैं, सो करते हैं, एक दलित श्रमिक और उभरता नेता पवार नमिता से विवाह कर खुद को अन्ना साहब के समानांतर बड़ा नेता बनने के सपने पालने लगता है। नमिता उसे पसंद भी करती है, लेकिन पवार के जातिवादी जाल में फँसना उसे मंजूर नहीं। संजय कनोई का जाल लेकिन बहुत बड़ा है और महीन भी, जिसे काफी समय तक नमिता समझ ही नहीं पाती। समझ तब पाती है, जब संजय कनोई की औलाद की बिनब्याही माँ बनने जा रही होती है। अन्ना साहब की हत्या का समाचार पाकर वह सन्न रह जाती है और सदमे से गर्भपात हो जाता है। नमिता खुद भी माँ बनने की बहुत इच्छुक नहीं थी। गर्भ गिरने को संजय कनोई नमिता के ही किसी प्रयास का कारण समझ कर फट पड़ता है : 'जानती हो, बाप बनने के लिए मैंने तुम्हारे ऊपर कितना खर्च किया? उस मामूली औरत अंजना बासवानी की क्या औकात कि तुम्हारे ऊपर पैसा पानी की तरह बहा सके? उसका जिम्मा सिर्फ इतना भर था कि वह मेरे पिता बनने में मेरी मदद करे और सौदे के मुताबिक अपना कमीशन खाए।' लेकिन इसके बाद नमिता नहीं रूकी। संजय कनोई की ऐशगाह में। उसने उसे छोड़ दिया, हमेशा–हमेशा के लिए। वस्तुतः यही है स्त्री की सजगता, स्त्री की शक्ति। यह शक्ति और सजगता नायिका को कहाँ से मिलती है? उपन्यास की ही एक पात्र नीलम्मा से ही तो। विधवा नीलम्मा अपने बच्चों और बूढ़े ससुर का सहारा है। उसके साथ कोई जोर–जबरदस्ती नहीं कर सकता। यही नीलम्मा गर्भपात के बाद के कठिन समय में नमिता को भी तन, मन, धन हर तरह से सहारा देती है। उसके बारे में नमिता कहती है : "नीलम्मा ने बहुत बड़ी ताकत दी है। सच कहूँ तो नीलम्मा ही मेरी ताकत बन गई है।' और नीलम्मा कैसे बनती है नमिता की ताकत? नीलम्मा अपनी कर्मठता और स्वावलंबन से स्वाभिमान अर्जित करती है। एक स्वाभिमान ही है जो किसी निर्बल या अबला स्त्री को भी मोम से फौलाद बना देता है और जब अबला कही और समझी जाने वाली कोई स्त्री फौलाद में तब्दील होती है तो वह चेतना का पुंज बन जाती है।

उपन्यास में आए श्रमिक वर्ग के परिवेश हों, निम्न मध्यवर्गीय परिवार हों, कामकाजी महिलाएँ हों, दलाल मैडमें हों, संजय कनोई, अन्ना साहब, पवार, किरपू दुसाध जैसों का रहन–सहन हो, सबके बीच में हैं आज की स्त्रियाँ, स्त्रियाँ ही स्त्रियाँ, उनकी जीवन स्थितियाँ, उनके संघर्ष, उनके समझौते, उनके पतन, उनके उत्कर्ष, उनकी नियति, उनके स्वप्न, मोह, मोहभंग और उनके फैसले। कुल मिलाकर हर तरह की स्त्री जीवन 'आवाँ' के फोकस में है। इसीलिए यह मुझे स्त्री–विमर्श का उपन्यास लगता है, श्रमिक राजनीति के परिवेश में लिपटे होने के बावजूद संपूर्ण स्त्री–विमर्श का उपन्यास, स्त्रीवाद को धता बताता हुआ। देहवादी अंधकूपों में उतरकर भी उन कूपों के विरूद्ध बिगुल बजाता हुआ। स्त्री को माल या चीज के बजाय उसे मानवी रूप में स्वीकार करने की जिरह करता हुआ एक यादगार उपन्यास।

—बलराम

 
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