सुवीर का
चरित्र स्वाभाविक लगता है। शराबी आदमी दयनीयता, झक्कीपन,
बीमारी और आत्मदया को अपनी विशेषताएं बना लेता है। सुवीर
की आत्महत्या भी पाठक के मन में कोई भावुकता या सहानुभूति
पैदा नहीं कर पाते हैं। एक मानसिक रोगी को उसके निकटतमों
का सहयोग चाहिए न कि उनकी उपेक्षा। उपन्यास में सुवीर को
उपेक्षा ही मिली है। किसी का सहयोग नहीं। उसके पिता ने झूठ
बोलकर शादी कराई यह कोई नई बात नहीं है । लेकिन राग विराग
की नायिका में कोई हलचल नहीं होती। शायद प्रेम और संबंधों
के प्रति यह नये युग की संवेदनहीनता है।
राग विराग ने पुराने सभी उन नियमों और परम्पराओं को तोड कर
यह कहने की कोशिश की है कि अपनी बात को कहने के लिए अधिकतम
शब्दों की ज़रूरत कतई नहीं है। जो अपनी बात कम से कम शब्दों
में नहीं कह पाता उसे मुँह खोलने की भी जरूरत नहीं। आज की
दुनिया इतनी व्यस्त है कि उसे फालतू कुछ भी पढने का समय
उसी तरह नहीं जिस तरह देश के मुख्य पदों पर बैठे लोग केवल
अपने सहायकों द्वारा लगाए और चिह्नित किए गए समाचार ही
पढते हैं। प्रेम अब फालतू हो गया है। यह मात्र टाइम पास
है। इस पर रोने वाला न केवल मूर्ख है बल्कि वह अहमक है जो
अपनी बीमारी भी नहीं जानता। नए समय ने यही कुछ नए समाज को
दिया है
अंत में उपन्यास एक प्रश्न छोड़ जाता है – घटिया होती हुई
इस दुनिया में क्या अब ऐसा कुछ सचमुच नहीं बचा जो प्यार
जैसी भावना के पक्ष में खड़ा हो सके? दो में से कोई एक तो
प्यार करता होगा?
— कृष्ण
बिहारी
१६ जनवरी २००३
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