विजयोत्सव
—डॉ विद्यानिवास मिश्र
यह अंक जिस समय निकल रहा है, जिस महीने में निकल रहा
है उस महीने में विजयादशमी, कोजागरी और दीपावली : यह
तीन पर्व हैं। विजयादशमी के दिन राम ने रावण पर विजय
प्राप्त की। अन्याय के युग के अंत का यह पर्व है। यह
पर्व अश्विन शुक्ल की दशमी को पड़ता है।
कोजागरी अश्विन शुक्ल पूर्णिमा को मनाई जाती है। इस दिन रात भर लक्ष्मी घर-घर झाँकने जाती है - कौन जाग रहा है। इसी को शरद पूर्णिमा
भी कहते है। इस रात्रि में लोग खीर पका कर छत पर रखते हैं और चाँदनी की वर्षा में
खीर रात भर सिंचती रहती है। वही खीर सवेरे लोग इस भाव से ग्रहण करते हैं कि अमृत से
यह सिक्त हो गई है।
कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीपावली पड़ती है। इस
भाव से लोग दीपावली मनाते हैं कि राम का अयोध्या में राज्याभिषेक हुआ है और अयोध्या
में घर-घर दीप जलाए गए हैं कि हम यह अनुभव करें कि रावण विजय करके राम - सीता,
लक्ष्मण, हनुमान, सुग्रीव, अंगद, विभीषण, सबके साथ अयोध्या लौटें हैं। उनका विधिवत
राज्याभिषेक हुआ है। इस खुशी में घर-घर दीप जलाए जा रहे हैं।
हम विजय की बात करते हैं। उसका अर्थ क्या है? क्या
यह अधिपत्य है, अथवा यह कोई अपने लिए किसी वैभव की प्राप्ति है? यदि हम ध्यान से
प्राचीन दिग्विजयों का वर्णन पढ़ें तो तीन बातें स्पष्ट होती हैं -
एक तो इन दिग्विजयों का उद्देश्य अधिपत्य स्थापित
करना नहीं रहा है। कालिदास ने एक शब्द का प्रयोग किया है - 'उत्खात प्रतिरोपण'। यानी उखाड़ कर फिर से रोपना। जैसे धान के बीज बोए जाते हैं, फिर पौधे होने पर उखाड़
कर पास के खेत में रोपे जाते हैं। और इस धान की फसल बोए हुए धान की अपेक्षा दुगुनी
होती है। इसमें अपने आप में दुर्बल पौधे नष्ट हो जाते हैं और सबल पौधे अधिक सबल हो
जाते हैं। यह उस क्षेत्र के हित में होता है जिसमें जोत कर पुन: उसी क्षेत्र के
सुयोग्य शासक को वहाँ का आधिपत्य सौंपा जाता है। उस क्षेत्र की दुर्बलताएँ अपने आप
नष्ट हो जाती है और उसकी शक्ति और अधिक उभर कर आ जाती है।
दूसरी बात इस प्रकार की विजय यात्रा में निहित थी
कि किसी सामान्य जन को सताया नहीं जाय, उसकी खेती न नष्ट की जाय। युद्ध उस भूमि पर
हो जो ऊसर हो - और युद्ध से केवल सैनिक प्रभावित हों, साधारण जन न हों। उनके युद्ध
में मारे गए सैनिकों को जीतने वाला पक्ष पूरा सम्मान देता था। विभीषण किसी भी
प्रकार रावण की चिता में अग्नि देने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। राम ने कहा कि
वैर मरने के बाद समाप्त हो जाता है। रावण तुम्हारे बड़े भाई थे, इसीलिए मेरे भी
बड़े भाई थे, इनका उचित सम्मान के साथ अंतिम संस्कार करो।
तीसरी बात यह थी कि दिग्विजय का उद्देश्य उपनिवेश
बनाना नहीं था, न अपनी रीति नीति आरोपित करना था। भारत के बाहर जिन देशों में भारत
का विजय अभियान हुआ, उन देशों को भारत में मिलाया नहीं गया, उन देशों की अपनी
संस्कृति समाप्त नहीं की गई, बल्कि उस संस्कृति को ऐसी पोषक सामग्री दी गई कि उस
संस्कृति ने भारत की कला और साहित्य को अपनी प्रतिभा में ढाल कर कुछ सुंदरतर रूप
में ही खड़ा किया। 'कंपूचिया में अंकोरवाट' और 'हिंदेशिया में बोरोबुदुर' तथा 'प्रामवनम'
इसके जीवंत प्रमाण हैं, जहाँ पर अपनी संस्कृति के अनुकूल उन-उन देशों के लोगों ने
भारतीय धर्म-संस्कृति को नया रूप प्रदान किया। एक उद्देश्य यह अवश्य था कि नाना
प्रकार के रंगों से इंद्रधनुष्य की रचना हो।
चक्रवर्ती होने का अर्थ यही था कि एक चक्र के अनेक
अरे मिल कर गतिशील हों और एक दूसरे की सहायता करें, एक दूसरे के साथ सामंजस्य रखें। प्रश्न है कि केवल राम का ही विजयोत्सव क्यों इतना महत्वपूर्ण है? उसके बाद अनेक
विजय अभियान हुए। वो इतने महत्वपूर्ण क्यों नहीं हुए? उनका उत्सव इस तरह क्यों नहीं
मनाया गया? इसका समाधान यही है कि राम की विजय यात्रा में राम के सहायक बनकर वन की
वानर व भालू जातियाँ हैं। अयोध्या से कोई सेना नहीं आई है। वह अकेले 'एक निर्वासित
का उत्साह' है, जिसने राक्षसों से आक्रांत अत्यंत साधारण लोगों में आत्मविश्वास भरा
और जिसने रथहीन हो कर भी रथ पर चढ़े रावण के विरुद्ध लड़ाई लड़ी।
ऐसी यात्रा से ही प्रेरणा ले कर गाँधी जी ने
स्वाधीनता के विजय अभियान में जिन चौपाइयों का उपयोग किया वे 'रामचरितमानस' की हैं
- 'रावनु रथो बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।' ऐसी विजय में किसी में पराभव
नहीं होता, राक्षसों का पराभव नहीं हुआ, केवल रावण के अहंकार का संहार हुआ। राक्षसों की सभ्यता भी नष्ट नहीं हुई। उसी प्रकार जैसे अंग्रेज़ों का पराभव नहीं
हुआ। अंग्रज़ों की सभ्यता नेस्तनाबूत करने का कोई प्रयत्न भी नहीं हुआ, केवल
प्रभुत्व समाप्त करके जनता का स्वराज्य स्थापित करने का लक्ष्य रहा। इसलिए
विजयादशमी आज विशेष महत्व रखती है। हम खेतिहर संस्कृति वाले लोग आज भी नए जौ के
अंकुर अपनी शिखा में बाँधते हैं और उसीको हम जय का प्रतीक मानते हैं। आनेवाली फसल
के नए अंकुर को हम अपनी जय यात्रा का आरंभ मानते हैं।
हमारे लिए विजययात्रा समाप्त नहीं होती, यह फिर से
शुरू होती है, क्यों कि भोग में अतृप्ति, भोग के लिए छीना-झपटी, भय और आतंक से
दूसरों को भयभीत करने का विराट अभियान, दूसरों की सुख-सुविधा की उपेक्षा, अहंकार,
मद, दूसरों के सुख की ईर्ष्या - यह सभी जब तक हैं, कम हो या अधिक, विरथ रघुवीर के
विजययात्रा के लिए निकलना ही पडेग़ा। आत्मजयी को इन शत्रुओं के ऊपर विजय प्राप्त
करने के लिए नया संकल्प लेना ही होगा।
विजयादशमी के दिन लोग नीलकंठ पक्षी देखना चाहते
हैं। नीलकंठ सुंदर-सा पक्षी है। गला उसका नीला होता है। उस पक्षी में लोग विषपायी
शिव का दर्शन करना चाहते हैं। आत्मजयी जब विजय के लिए निकलेगा तो उसे बहुत-सा गरल
पीना पड़ेगा। यह गरल अपयश का है, लोकनिंदा का है और सबसे अधिक लोकप्रियता का है। आज इस गरल को पीने के लिए कोई तैयार नहीं है। विजयादशमी का उत्सव सार्थक होता है
दक्षिण से उत्तर की राम की वापसी यात्रा से। इसमें राम रास्ते में अपने मित्र ऋषि
भारद्वाज से मिलते हैं और अपने मित्र निषादराज से मिलते हैं, गंगा फिर से पार करते
हैं। अंत में पहले भरत से मिलते हैं, फिर अयोध्या में प्रवेश करते हैं और सिंहासन
पर आसीन होते हैं।
वस्तुत: जन-जन के मन में वनवासी राम भी तो राजा ही
थे। केवल सिंहासन पर आसीन नहीं हुए थे, किंतु सिहांसन पर उनकी पादुका आसीन हुई थी। उनके प्रतीक चिह्न से शासन चल रहा था। भरत तो अपने को न्यायधारी मानते थे। महात्मा
गाँधी उसी प्रकार की स्तुति में जनता के शासक को देखना चाहते थे। शासन तो सनातन राम
का ही हैं। उनकी तरफ़ से प्रतिनिधि हो कर, धरोहरी हो कर शासन चलाना ही जनतंत्र के
शासक का लक्ष्य होना चाहिए। राम का राज्याभिषेक सत्य का राज्याभिषेक है, सात्विक
ज्ञान का राज्याभिषेक है।
अमावस्या की रात्रि सब से घनी अँधेरी रात्रि होती
है। उस दिन पावस के चार महीनों का सारा तम असंख्य-असंख्य कीट-पतंग बनकर एक बार
छोटे-छोटे दीपों के प्रकाश से प्रत्येक व्यक्ति के भीतर में जगती हुई रोशनी से
जूझना चाहता है और जूझते-जूझते ही समाप्त हो जाना चाहता है। आकाश का तारामंडल
अपने प्रतिनिधि रूप दीपों के प्रकाश के लिए ललकने लगता है। उन्हें कहाँ इतने
चैतन्यमय दृष्टियों का तम दूर करने का सुअवसर प्राप्त होता है। यह धरती पर और भगवान
की लीलाभूमि भरत की धरती पर ही संभव है।
पूर्वी भारत में दीपावली का पर्व कालीपूजा के रूप
में मनाते हैं, काली मोह और मद को मूल से उच्छिन्न करने वाली देवी है। इसलिए यह
पर्व ज्ञान के जागरण का पर्व है। हज़ारों वर्षों से इसी दिन भारत की अर्थव्यवस्था
सँभालनेवाले लोग हिसाब-किताब पूरा करते थे और उसके बाद नई शुरुआत करते थे। यह
आर्थिक वर्ष की समाप्ति की तिथि हुआ करती थी। आज भी अनुष्ठानिक रूप में यह है। आज
भी यह तिथि व्यवसाय की सच्चाई की नाप जोख की तिथि है। यह अलग बात है कि नाप जोख भी
अब सच्ची नहीं रह गई है। अब दो-दो बहियाँ काम आने लगी हैं - एक खुली, एक पोशीदा।
शायद दीपावली के वे दीये, विशेष रूप से मिट्टी के
दीये और स्नेह से बल पाकर रोशनी देने वाले दीये, अपनी लौ, अपनी काँपती हुई लौ से
स्मरण दिलाना चाहते हैं कि सच्चाई का कोई आवरण नहीं होता। होता भी है तो वह टिकता
नहीं हैं। उसको दूर करने के लिए आवाहन होता रहता हैं। प्रकाश के देवता का, सत्य का
सुनहले ढक्कन से मुँह ढका हुआ है। उसे उतार दो। उसे अपने आप चमकने दो।
इसी दीपावली के एक दिन पहले नरकचतुर्दशी होती है
और नरकासुर की कैद से हज़ारों राजाओं की बेड़ियाँ खोलने की खुशी भी मनाई जाती है। यह नरकासुर आज की राजशक्ति को, दंभी लोगों को अपना बंदी बनाए हुए है।
इनका उद्धार श्रीकृष्ण ही कर सकते हैं, श्रीकृष्ण की 'गीता' ही कर सकती हैं।
हमारे पर्व बाँसुरी की पोर की तरह होते हैं, जो
आदमी की स्पंदन वहिनी अँगुलियों के स्पर्श मात्र से अलग-अलग स्वरों में बज उठते
हैं। वे देखने में पीले या खोखले होते हैं, पर असंख्य लोगों से भरने के लिए इतनी
आकांक्षा लिए रहते हैं कि वे भरे हुओं से अधिक भरे होते हैं। इस दीपावली के दिन आज
भी मिट्टी के खिलौने, मिट्टी के गणेश, मिट्टी की लक्ष्मी, मिट्टी की टुन-टुन बजती
घंटियाँ, पटाखों के हाहाकार से कहीं अधिक सुंदर, मधुर और प्रीतिकर लगती हैं।
अतिभोग के दिखावे ने, खोखले ऐश्वर्य के दिखावे ने
इन सब को किनारे करने की साज़िश की है और इस साज़िश ने बच्चों से लेकर बूढ़ों तक का
मन वश में कर रखा है। पर आज भी हिंदुस्तान की नारी अपने घर में अनाज से भरे बरतन
प्रयोग करती हैं, मिट्टी का ही दीया जलाती है, मिट्टी के ही लक्ष्मी गणेश की धान की
खीलों से पूजा करती हैं। लगता है, संस्कृति का कोई एक कोना अभी भी सुरक्षित है,
जहाँ मन की पवित्रता, सच्चाई और कलादृष्टि के प्रति संवेदना बची हुई हो। विजयोत्सव
की यही शुभ परिणति होनी चाहिए। और ऐसी भावनाओं में भरे विजयोत्सव की हम अपने पाठकों
को बधाई देते हैं।
("साहित्य अमृत" से साभार)
१ अक्तूबर २०००
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