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दो पल

मुसाफ़िरी तीसरे दर्जे में

कोई माने या न माने, मुंबई की लोकल में मुसाफ़िरी का अनुभव ज़िन्दगी में लेना ज़रूरी है। हाँ, कमज़ोर दिल शायद ज़ख़्मी हो सकते हैं! यह वह ट्रेन है जहाँ लाखों लोग रोज़ाना एक जगह से दूसरी जगह पहुँचते हैं। जहाँ दरवाज़े कभी बंद नहीं होते, और कई इन्सान आधे अंदर, आधे बाहर लटके हुए मुसाफ़िरी करते हैं। एक या दो डिब्बे पहले दर्जे के, बाकी के सब तीसरे दर्जे के, आम जनता के लिए। दुनिया के बड़े-बड़े शहरों की ट्रेन के मुकाबले में शायद यह ट्रेन हाथी की गति से चलती है।

फिर भी, अगर दुनिया के मेले में आत्मीयता पानी है, तो इस ट्रेन की मुसाफ़िरी आवश्यक है।

इस बार मेरे मुंबई के सफ़र में इस ट्रेन के तीसरे दर्जे की मुसाफ़िरी अनायास ही हो गई। एक कवि सम्मेलन में जाना था। जयंत और मीरा मेरे साथ थे। जयंत मुझे कभी कोई खर्चा करने नहीं देता था। हम बोरिवली स्टेशन पर पहुँचे। चर्चगेट स्टेशन का टिकट लेना था। मैंने कोशिश की, मगर जयंत ने मुझे धक्का मार दिया और तीसरे दर्जे का टिकट लेकर आया। मेरे पैसे जेब में ही रह गए। मन को मना लिया कि यह तीसरे दर्जे का अनुभव यादगार बन सकता हैं।

मुझे मेरी जवानी याद आ गई। कॉलेज जाते समय इसी ट्रेन से रोज़ मुसाफ़िरी होती थी। प्लेटफार्म पर जब गाड़ी आती तब गाड़ी की गति की दिशा में दौड़ लगा कर, कोई उतरे उसके पहले कर चढ़ जाता और खिड़की की जगह कब्ज़ा कर लेता। खिड़की पा कर इतनी खुशी होती जैसे कोई लॉटरी लग गयी। वह खिड़की की खुली हवा दिल में उमंग भर देती।

"अभी छलांग मत मारना, आज शनिवार की दोपहर है, हमें बैठने की जगह मिल जाएगी।" जयंत बोल रहा था। गाडी को आते हुए देख कर मुझे जोश तो आ ही गया था, मगर मैंने जयंत की बात मान ली। हम तीनों चढ़ गए। एक खिड़की की जगह मिली। मीरा और जयंत ने खिड़की की जगह मुझे दे कर मेरा सम्मान कर दिया। खिड़की तो मिली मगर दिशा उलटी थी। खिड़की छोटी थी, और बाहर से उस पर जाली लगी हुई थी मानो बाहर की हवा के लिए कोई लक्ष्मण रेखा खींच दी गई हो!

"मीरा, यह खिड़की पर तो बाहर से जाली लगी हुई है, हवा के आने के छेद और भी छोटे हो गए हैं।"
मीरा हँस दी और बोली, "बड़े भैय्या, वह जाली तो आप की सलामती के लिए हैं। अगर बाहर कोई तूफ़ान हो जाए तो वह जाली आप की सुरक्षा करेगी!"
"यह खिड़की छोटी क्यों हैं, हवा भी थोड़ी-सी आएगी?" मैंने पसीना पोछते-पोछते बात आगे बढ़ाई।
"अरे, इस गाड़ी में सभी इतनी ही हैं, पहले दर्जे में भी।" जयंत बोला।
"जयंत, अगर हम पहले दर्जे के डिब्बे में होते तो और क्या फ़ायदा होता?" मैंने जयंत को प्यार से धक्का दिया, वह जो मुझे धक्का मार कर तीसरे दर्जे की टिकट ले कर आया था।
"कुछ नहीं, ख़ास कोई फ़र्क नहीं पड़ता। हाँ, आपको तीन गुना ज़्यादा दाम से गद्दी वाली बैठक मिलती। थोड़ा-सा डिब्बे का रंग नीला वीला नज़र आता। आदमी लोग थोड़ा अंग्रेज़ी ज़्यादा बोलते, बाकी सब एक ही बात है।" जयंत अपना बचाव करने लगा।
"थोड़ी भीड़ कम होती?"
"ख़ास फ़र्क नहीं, वहाँ भी इतनी धक्कामुक्की! हाँ, जब लोग गाली देते है तब अंग्रेज़ी में और उजले कपड़ों के लिबास में!"
"थोड़ा पसीना कम होता होगा?"
"पसीना? पसीना तो उतना ही वहाँ भी हैं। हाँ, पसीनों में अलग-अलग इत्र की सुगंध हो सकती है मगर जब पसीने में इत्र मिल जाता है तब वह हवा उठती है की सर को भारी दर्द हो जाता है।" जयंत कम दाम खर्चने के फ़ायदे गिना रहा था।

लोकल, सब स्टेशन पर रुकने वाली ट्रेन थी। धीरे-धीरे हम मंज़िल की ओर आगे बढ़ रहे थे। बोरिवली स्टेशन से मुसाफ़िरी शुरू की थी, जाना था अंतिम स्टेशन चर्चगेट तक। वैसे तो भीड़ का सिलसिला ऐसा होना चाहिए कि थोड़े से शुरुआत हो, फिर भरचक हो जाए, और मंज़िल करीब आते-आते कम हो जाए। मुझे ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ। मैंने गिनने की कोशिश भी की, हर स्टेशन पर कितने चढ़ते हैं, और कितने उतरते हैं। चढ़ने वाले ज़्यादा दिखाई दिए जैसे सब को एक ही मंज़िल की तलाश है और किसी का मुकाम आता ही नहीं!"

हवा तो ख़ास आई नहीं, भीड़ बढ़ती रही, और कुछ देर के लिए आँख बंद हो गई। सोचने लगा की इतने लोग एक ही ट्रेन में कहीं जा रहे है, क्या चल रहा होगा एक एक दिमाग में? शायद मैं हर एक को पूछ सकूँ, "आप कहाँ जा रहे हैं, आज क्या करने का इरादा है? कितनी ही ज़िंदगी की कहानियाँ होगी, आशा, उमंग, हताशा या अरमान भरे दिलों की।

आँख खुली तो देखा कि कुछ धमाचौकड़ी हो रही थी। हमारे सामने एक महिला अपने छोटे बच्चे को हाथ में लिए स्थिरता से खड़े रहने की कोशिश कर रही थी। महिला के साथ वाला पुरुष थोड़ी दूर सामान लिए खड़ा था। जयंत झट से खड़ा हो गया और बच्चे वाली महिला को अपने बैठने की जगह दे दी। मीरा और मेरे बीच में एक छोटा बच्चा अपनी माँ की गोद में। नज़र पड़ी तो देखा एक मुस्कुराते हुए छोटे बच्चे की आँखे।
चर्चगेट स्टेशन आ गया और मीरा ने पूछा, "अश्विन भाई, कोई ज़्यादा तकलीफ़ तो नहीं हुई?"
"नहीं मीरा, यह सफर कुछ अदभुत था। आज फिर ज़िंदगी से मुलाकात हो गई।"
मासूम बच्चे की वे आँखे मेरे सामने मुस्कुरा रही थी।

१५ सितंबर २०००

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