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हास्य व्यंग्य

या इलाही ये माजरा क्या है
- सूर्यबाला


बाहर कार का हॉर्न बजा और कुछ भद्र महिलाएँ उतर कर अंदर आती दिखीं। मैंने स्वागत में हाथ जोड़े और पूछा - कहिये कैसे आईं?

उन्होंने लगभग एक साथ उत्तर दिया - हम अपना स्त्री-विमर्श करवाने आई हैं।
मैं बुरी तरह चकराई, क्या कहा आपने?
- यही कि हमें अपना स्त्री-विमर्श करवाना है।

मैंने लगभग हकलाते हुए कहा - देखिये स्त्री-विमर्श किया जाता है, करवाया नहीं जाता। लेकिन ये बैठे बिठाये आप लोगों को स्त्री-विमर्श करवाने की क्या सूझी?

वे हुमक गईं -‘आपको नहीं करना है तो मत करिये, साफ साफ कह दो, हम किसी और से करवा लेंगे... बहाने मारने की जरूरत नहीं... हम इज्जतदार घरों की महिलाएँ हैं, खुद कोई काम करने की न आदत, न इजाजत, न टाइम ही। खुद ही अपना स्त्री-विमर्श करेंगे तो दुनिया हँसेगी कि देखो डाइमंड-टावर वालियों को, अब इस नौबत को आ गईं कि अपने आप अपना स्त्री-विमर्श-

साफ था कि वे तुली बैठी थी और मैं, ‘या इलाही ये माजरा क्या है’ के बीच ख़ब्त। नरमी से समझाया - देखिये मेरा मतलब यह जानना था कि आखिर क्या वजह है आपकी जो आप लोग स्त्री-विमर्श के लिये कमर कस के निकल पड़ीं इस काम के लिये...
अब वे भी नरम पड़ी। खुलासा करते हुए बोलीं - वजह कुछ खास नहीं, जैसा कि आपको बताया, हम लोग खाते-पीते इज्जतदार घरों से हैं। भगवान का दिया सब कुछ है। सारी सुख-सुविधाएँ, ऐशो आराम... सिवाय स्त्री-विमर्श के। उसी की कमी रह गयी है। तो सोचा आप पढ़ी लिखी हैं, लेखिका भी हैं, आपके यहाँ से कराना अच्छा रहेगा...

- लेकिन जब आप लोग सुख सुकून की जिंदगी बसर कर रही हैं तो स्त्री-विमर्श के पचड़े में क्यों पड़ रही हैं...?
- वो आपसे कहा न कि हम बड़े घरों की स्त्रियाँ हैं तो पढ़ी-लिखी इलीट सोसाइटी की लेडीज के बीच में उठना बैठना चाहती हैं लेकिन हमसे कहा गया कि उन लोगों के साथ उठने-बैठने की पहली शर्त स्त्री-विमर्श है। बिना स्त्री-विमर्श के आप उनके बीच पूरी तरह अनफिट रहेंगी तो सोचा, ठीक है, जैसे फेशियल करवाते हैं, पैडीक्योर, मैनीक्योर करवाते हैं, वैसे ही स्त्री-विमर्श भी करवा लेंगे, और उन लोगों के बीच उठ बैठ लेंगे।

-समझ गई, बस इतनी सी बात अरे ये तो आप लोग बेहद आसानी से-
वे उत्साहित होकर बताने लगीं - ‘हमने सोशल वर्क भी काफी किये हैं। कई बार औरतों, बच्चों को सिलाई मशीने, पाउडर-मिल्क, स्कूल बैग और किताबें भी बांटी हैं। हमारे फोटो भी लोकल अखबारों में छपे हैं लेकिन हर बार हमसे यही कहा गया कि खाली सिलाई मशीनें बांटने से काम नहीं चलेगा। इसके पीछे सॉलिड मकसद होना चाहिये, स्त्री-विमर्श टाइप-

- ओह! स्त्रियों के लिये आपके दिलों में इतनी करुणा है... तो बस अपनी-अपनी गाड़ियाँ निकालिये और पास के गाँव, कस्बों की दुःखियारी स्त्रियों, बूढ़ियों और बच्चियों की दुनिया से शुरू कीजिये। उनके दुख-सुख, तकलीफों और लाचारियों को जानिए। उनकी उम्मीदों और सपनों को सच करने में लग जाइए। सच की भारतीय स्त्री तो वहीं बसती हैं... और आपके पास तो साधन भी है, कुछ करने का जज़्बा भी।

लेकिन उनका चेहरा उतरता चला गया - अरे, आपने तो खासे झमेले में डाल दिया। हम हरिभजन को आये थे, आप कपास ओटाने लगीं। कहना आसान है - ‘गाँवों में जाइए‘ कभी गई हैं आप गाँवों में? कानो सुनी और आँखो देखी में जमीन आसमान का अंतर होता है। इतना कूड़ा-कचरा, गड्ढे गड़हियों से पटी सड़क कि टायर पंचर हो जाए। बदबू इतनी कि नाक फट जाये... आपने भी कहाँ ला पटका... हमने तो सुना था, लाइब्रेरियों में हो जाता है स्त्री-विमर्श, व्याख्यान, वक्तव्यों से भी...। उस कैटेग्री की कुछ पढ़े लिखों वाली तरकीबें सुझाइए - आप स्वयं स्त्री हैं, लेखिका भी, यह सब करती ही रहती होंगी।

-सच पूछिए तो, मैं तो अब तक अपने अंदर वाली स्त्री का विमर्श कर ही नहीं पाई...
अरे?... उन्होंने अचंभे से आँखें झपकाई - देखने में तो पढ़ी-लिखी और मॉडर्न लगती हैं आप -
मैंने उसी कातर भाव से कहा - फुर्सत ही नहीं मिली न!

उन्होंने आग्नेय नेत्रों से मुझे घूरते हुए कहा -‘खैर फुर्सत न मिलना तो एक बहाना है लेकिन अगर सचमुच नहीं किया तो आपने समाज और समूची स्त्री-जाति के प्रति धोखा किया है-
-देखिये मुझे गलत मत समझिए, मेरा काम है लिखना, स्त्री पर भी मैंने बहुत लिखा है। कभी अवसर आया तो आप जैसी पर भी लिख सकती हूँ -
उन्होंने फिक से मुँह बनाया, - उससे क्या बनेगा?
मैंने कहा बनेगी न। एक पूरी, मुकम्मल स्त्री।

उनका चेहरा एकदम से चमका फिर बुझ गया - लेकिन ऐसी स्त्री का हम क्या करेंगे जिसका विमर्श ही न हुआ हो।

अप्रैल २०१६

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