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हास्य व्यंग्य

चमचा चिंतन
दिनेश


किसी भी संस्था में तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं:-
बॉस, ‘व्यस्त’ तथा चमचा। बॉस का कर्तव्य व्यस्तों को हाँकना, ‘व्यस्तों’ का कार्य हाड़ तोड़ परिश्रम में व्यस्त रहना तथा चमचों का कार्य बॉस की आड़ ले ‘व्यस्तों’ को त्रस्त करना होता है। इस त्रिवेणी में चमचा, बॉस तथा ‘व्यस्त’ के बीच कुछ उसी प्रकार से स्थित होता है, जिस प्रकार से भारत तथा चीन के बीच हिमगिरि विराजमान है। ‘व्यस्त’ चाहे जितना व्यस्त रहे, चमचे के चाहे बगैर बॉस को ‘व्यस्त’ की व्यस्तता का पता नहीं चल पाता। बॉस का ज्ञान बस वहीं तक पहुँचता है, जहाँ तक चमचा चाहता है। सो हुजूर, कोई माने या न माने और जो न माने बस अल्लाह से खैर मनाये-चमचा, बॉस तथा व्यस्त के बीच की जंजीर की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है। इस जंजीर का एक सिरा बॉस की अँगुलियों से खिलवाड़ करता है और दूसरे सिरे पर बँधी होती है व्यस्त की गरदन।

अब कोई भी बात बिना ठोस उदाहरण के सिद्ध नहीं होती। सो सुनिये-गोस्वामी तुलसीदास तब तक ढ़ाई किलो की रामचरितमानस लिख चुके थे। वे चाहते थे कि भगवान राम उन्हें ‘का कामिहि नारि पियारि जिमि’ प्यारे लगें। पर राम के कानों पर जूँ रेंगने से इन्कार कर रही थी। तुलसीदास जी ने बड़ी तिकड़म लगायी। काम न बना। तब उन्होंने हनुमान जी को पकड़ा, और ‘कछु अवसर पाई’ राम तक अपनी एप्लीकेशन पहुँचाने की बात की, तब जाकर काम हुआ। सो थोड़े लिखे में ज्यादा जानिये। यह उदाहरण हमें यही बताता है कि चमचा अत्यन्त प्राचीन काल से ही शासन तंत्र का एक अनिवार्य अंग रहा है।

चमचा एक अनिवार्य हस्ती-

लोग कहते हैं कि सीधी अँगुली से घी नहीं निकलता। सोचिये, भला क्यों नहीं निकलता घी, क्षमा कीजिएगा डालडा, सीधी अंगुल से, हुई न वही बात:-
एक तो बूझैं लाल-बुझक्कड़, और न बूझे कोय। टेढ़ी होके अँगुली भैया, चमचे जैसी होय। और आप तो जानते ही हैं कि- “जहाँ काम आवै चम्मच, कहा करै तलवार”। अब जब डालडा निकालने जैसा साधारण कृत्य चमचे के बिना संपन्न नहीं हो पाता तो भला विशाल कृत्यों की क्या मजाल कि चमचे के बिना संपन्न हो जायें। इसीलिए तो कहा गया है-
चमचा बॉस दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय।
बलिहारी चमचा जी आपनो, जिन बॉस को दियो जताय!

बस यह समझ लीजिये कि चमचा बॉस का डंडा है। चमचा बॉस का कान है। यहाँ तक कि चमचा बॉस की जबान है। बकौल रवींद्र नाथ ठाकुर (दुई बीघा जमीन) -
बाबू जतो बोले, पारिषाद दल,
बोले तार शतोगुण।
मतलब यह हुआ कि जब बॉस व्यस्त को एक सुनाता है तो उसका चमचा सौ सुनाता है।

चमचागीरी एक दुष्कर कृत्य-

चमचागीरी करना सबके बस की बात नहीं-
चमचा को काज करार कहाँ,
तलवार की धार पै धावनो है।
बॉस जब चमचे को डॉटता है तब चमचा मुस्कराता है, कारण – “सैंया को झटकन, मोरे लेखे लटकन।” चमचा बॉस से ज्यादा बॉस की बीबी का और बॉस की बीबी से ज्यादा बॉस के कुत्ते का ख्याल रखता है। जब नेपोलियन ने अपनी भावी पत्नी जोसेफिन से पूछा - "मेरे दिल की मलिका, भला तुम्हारी निगाहें - लुत्फ क्योंकर मुझ पे ठहरेंगी।" तब उसने फट से जवाब दिया था- "मा चेर! लव मी, लव माय डाग।" अर्थात "मेरे प्यारे! मुझे प्यार करो, मेरे कुत्ते को प्यार करो।" और जो चमचा बॉस के कुत्ते को इसी प्रकार से प्यार करता है, उसी के लिए यह बात लागू होती है-"सैंया भये कोतवाल, अब डर काहे का।" यहाँ हम यह भी बता दें कि चमचा बॉस के बिना और बॉस चमचे के बिना नहीं जी सकता- 'ओ साथी रे ऽऽऽऽ तेरे बिना भी क्या जीना ऽऽऽऽ।"

चमचा एक उद्दीपक-

अक्सर यह देखा गया है कि चमचे के उकसाये बिना बॉस कुछ करने को तैयार नहीं होता। याद कीजिए! वानर-भालूओं का थका माँदा दल समुद्र के किनारे बैठा हुआ है। सब एक-एक करके समुद्र पार करने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर चुके हैं-जाम्बवंत बूढ़े हो गये हैं, अंगद को 'फिरीती बारा' में 'कुछ संशय' है। ऐसे में जाम्बवंत कहते हैं-
जाम्बवंत कह सुनु हनुमाना।
कस चुप साधि रहेऊ बलवाना।

और परिणाम तो आप जानते ही हैं-
अट्टहास करि गरजा,
लागा कपि आकाश!

वह था त्रेता। अब है घोर कलियुग। आजकल घटना क्रम यों घूमता है:- चमचा किसी व्यस्त की तुष्टि से असंतुष्ट है। वह उसे पाठ पढ़ाना चाहता है। बॉस दफा ३०६ से काम चलाना चाहता है और चमचा लगवाना चाहता है दफा ३०२। बॉस को लगता है कि सजा अभियोग की तुलना में ज्यादा है। तब चमचा संभावी अनुशासनहीनता के घातक संक्रमण की दुश्चिंता व्यक्त करता है। बॉस पर अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसे में चमचा दु:खी चेहरा बना, वाणी में वेदना भर कहता है-"सर! सर! ऐसा है सर! क्या बताऊँ सर! सर! मुझसे आपकी सर! बेइज्ज्ती नहीं देखी जाती सर!" इतने सारे सरों का नशा सर के सिर में चढ़ते ही सर की अँगुलियाँ 'व्यस्त' तथा चमचे की कान्फीडेंसियल रिपोर्टों में 'उचित' एन्ट्री करने को खुजला उठती हैं।

चमचा एक धैर्यवान जीव-

चमचा जीव होता है, बहुत धैर्यवान। उसे मालूम होता है कि-
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, रितु आये फल होय।
सो माली रूपी चमचा, बॉस रूपी वृक्ष को चुगली रूपी जल से सींचता रहता है - और धीरे-धीरे समय बीतने के साथ जड़ कट जाती है व्यस्त की (!)। अगर शुरू में बॉस चमचे की बात पर ध्यान न दे तो चमचा मन ही मन अपने आपको सांत्वना देता है-
करत-करत अभ्यास के, जड़ मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात के, सिल पर होत निसान।
सो चमचा व्यस्त के विषय में बॉस का ज्ञान बढ़ाने में जुटा रहता है। और मजे की बात यह है कि ज्ञान तो बॉस का बढ़ता है पर लाभ चमचे को होता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे कि नवनीत लेपन की चिर परिचित क्रिया में लेप तो किसी को (सामान्यतया बॉस को) लगता है पर लाभ लेपनकर्ता को होता है।

इस धैर्य की परीक्षा में चमचा कभी हारता नहीं। वास्तव में चमचा हार को जीत में तथा जीत को दिग्विजय में बदलने में माहिर होता है। अब जब बदलने की बात चल ही पड़ी है तो हम बता दें कि बॉस के बदलने के साथ-साथ बॉस के विषय में चमचे की धारणायें भी बदलती हैं। पर इस निरंतर परिवर्तनशील संसार में तीन बातें स्थिर रहती हैं-बॉस का चमचे पर विश्वास, चमचे का हास तथा व्यस्तों का त्रास। कहा भी गया है-
चंद्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार।
पै चमचा प्रति बॉस को, टरै न मृदु व्यवहार।

चमचों की कला के आयाम-

चमचों की कला अपनी पराकाष्ठा पर तब पहुँचती है जब उसे दो बॉसों की चमचागीरी करनी होती है। ऐसे में जल्दबाज दर्शक दो नावों की सवारी करने जैसी बातें करने लगते हैं। पर चमचा महान होता है और उसकी कला अति महान। सो दोनों बासों की नाव डूब जाती है। चमचे की तरक्की का कारवाँ आगे बढ़ जाता है और व्यस्तों का समूह तथा त्रस्त बॉस-द्वय गुबार देखते रह जाते हैं।

चमचे की कलात्मकता का परिचय इस बात से चलता है कि उसके रहते व्यस्तों का मेहनत से किया गया काम बॉस की पारखी निगाह में तुच्छ होता है और चमचे का सुगमतापूर्वक किया कृत्य बॉस की दृष्टि में महान उपलब्धि। और तो और, अक्सर होता यह है कि काम व्यस्त करता है और नाम चमचे का होता है।

चमचे की कार्य प्रणाली-

यद्यपि यह मानी हुई बात है कि बॉस चमचों के अभाव में अपने को बॉस नहीं मानता पर यह बात केवल गुणीजन जानते हैं कि चमचा अपने लिए बॉस का चुनाव खुद करता है। इस काम में भतृहरि का नीति श्लोक-''रे रे चातक सावधानमनसा।" उनके बड़े काम आता है। मालूम है इस श्लोक में क्या लिखा है - इसमें कहा गया है-"अरे पपीहा! सावधान मन से मेरा वचन सुन। आकाश में अनेक मेघ हैं, परन्तु सभी समान नहीं हैं। उनमें से कुछ ही जल की वर्षा करते हैं और अन्य तो बस नाम के बादल होते हैं। इसलिए तू जिस-जिसको देख उस-उसके समक्ष ही दीन वचनों को न बोला कर" चमचे के लिए इस श्लोक का महत्व कम्युनिस्टों के लिए माओ की लाल किताब से कम नहीं।

बॉस का चुनाव करने के बाद चमचा बॉस के हिसाब से कार्य प्रणाली अपनाता है। यह चमचे का गुह्यतम रहस्य होता है। चमचागीरी के लाभ गिनाने लगें तो आसमान के तारों का मनका बनाना पड़ेगा, और वे आसमान के तारों की तरह ही सब आँख वालों को आसानी से दिखाई पड़ जाते हैं, अत: हम इस बारे में ज्यादा नहीं कहेंगे। बस हम यह बताना चाहेंगे कि हरि और हरि कथा की तरह चमचागीरी और उससे लाभ भी अनन्त हैं, जिसे 'गावहिं गुनहिं, सुनहिं सब संता।' इतना सब होने पर भी जो अक्ल के दुश्मन पूछना चाहते हैं कि चमचा क्यों बना जाय - तो उनके लाभ के लिए हम बता ही देते हैं-
अजगर करै न चाकरी, चमचा करै न काम।
हम जस ग्यानी कहि रहै, सबके दाता राम।

चमचे की पहचान-

हमारे मुहल्ले में एक समाज सेवी रहा करते थे - छुन्नन गुरू। उनके बारे में प्रचलित था-
छुन्न गुरू की यह पहचान।
हाथ में सोंय, मुँह में पान।
इस कड़ी के चलते छुन्न गुरू को हजारों की भीड़ में पहचानना आसान हो जाता था। इसी बात को ध्यान में रख यहाँ कुछ विशिष्ट संकेत दिये जा रहे हैं जिनके सहारे चमचों को पहचानना सरल हो जायेगा।

सबसे पहले तो हम यह जाने लें कि चमचे कहाँ पाये जाते हैं। जाहिर है कि हाथी हिन्द महासागर में और मछलियाँ रेगिस्तान में नहीं मिलेंगी। उसी प्रकार से चमचा कभी अपनी मेज पर नहीं पाया जाता। वह पाया जाता है बॉस के कमरे में:-
चमचा मन अनंत, कहाँ सुचि पावै।
जैसे उड़ि जहाज को पंछी, पुनि जहाज पै आवै।
वैसे ही इक चमचा भईया, बॉस पास मंडरावै।
बाहर कठिन काम का सागर लहरा रहा है और बॉस के कमरे में प्रगति का द्वार खुला है। भला चमचा अपना समय और शक्ति अन्यत्र क्यों नष्ट करे। फिर उसे यह भी मालूम होता है कि (बकौल चाणक्य) - "राजा और लतायें उसी को अपना लेती हैं जो उनके पास रहता है," सो चमचा बॉस से बस चिपका रहता है।

अब हम चमचों की विशेष पहचान बतायेंगे। हमेशा 'यस सर!' कहते रहने से उनका सिर हिलने लगता है। बॉस के चुटकुलों को सुन-सुन हँसते रहने से उसके दाँत हमेशा निकले रहते हैं। इन दाँतों को घेरे ओठों पर बॉस को देखते ही मनमोहक मुस्कान तथा 'व्यस्त' को देखते ही हेय भाव उभर आते हैं। विधि की अनेक विडम्बनाओं के अनुरूप कभी-कभी चमचा व्यस्तों को बॉस कह बुलाता है।

चमचा एक अदभुत विष पुरुष होता है-जो व्यस्तों की घृणा का विष पीकर स्वास्थ्य लाभ करता है। चमचे का महान होना उसके द्वारा व्यस्तों से प्राप्त घृणा के समानुपाती होता है।

चमचों की पत्नियाँ उन्हें संस्था का स्तंभ मानती हैं-जिनके न रहने से संपूर्ण संस्था स्वाहा हो सकती है। फिर वे बॉस की पत्नियों की 'चमची' बनने का प्रयास करती हैं और व्यस्तों की बीबी से ऐसे दूर भागती हैं मानों उन्हें छूत की बीमारी हो।

चमचा एक काव्य पुरुष
उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट है कि-
चमचों का तो चरित्र स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है।
लगता है कि मेरा अध्ययन अभी पूरा नहीं हुआ। क्योंकि अभी तक मेरे भावुक हृदय में चमचा-गान के स्वर प्रस्फुटित नहीं हो रहे हैं। पर अभी मैंने दुनिया देखी कहाँ है! लेकिन जितनी देखी उससे यह जरूर सीखा है कि -
सकल पदारथ हैं जग माहीं।
टैक्टहीन जन पावत नाहीं।।
बिल्कुल वैसे ही, जैसे मेरे गाँव के गड़ेरिये कहते हैं-तिकड़म से बकरी चार बच्चे देती है। 

मार्च २०१५

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