| 
 ”पन्चबैग” यानी मुक्केबाज़ द्वारा 
अभ्यास के दौरान धुनाई किये जाने वाला थैला। पिटाई सहते रहने के अलावा भला उसकी भी 
कोई ज़िन्दगी होती है? और पिटाई भी ऐसी वैसी नहीं वरन मुक्केबाज़ों के तगड़े हाथों 
द्वारा हड्डीतोड़ धुनाई। अपने होशोहवाश में भला कौन इन्सान उसकी जैसी ज़िन्दगी जीना 
चाहेगा? परंतु लगता है कि कम्यूनिस्ट चीन में दशकों से शासकों के हाथों पिटते-पिटते 
वहाँ के अनेक नागरिकों को पिटाई सहने की ऐसी आदत पड़ गई है कि उन्होंने प्रतिदिन 
पिटाई-प्राप्ति के उपाय ढूँढ लिये हैं। 
 
उनमें से एक हैं बौक्सिंग-कोच ज़ियाओ लिन, जिन्होंने अपने को किराये पर उपलब्ध 
"पन्चबैग" घोषित कर दिया है। वह जिम में अपने चेलों (जिनमें स्त्री और पुरुष दोनों 
होते थे) को पन्चबैग पर मुक्का मारने की प्रैक्टिस कराया करते थे। इस दौरान 
उन्होंने देखा कि किसी किसी दिन उनके किसी किसी चेले में विशेष जोश आ जाता था और 
अन्य दिनों की अपेक्षा उस दिन वह बहुत अधिक पावर के पंच मारता था। इसका कारण जानने 
के लिये उन्होंने उस दिन ऐसे मुक्केबाज़ों से अलग से पूछताछ करनी प्रारंभ कर दी। 
उन्होंने पाया कि जब कोई व्यक्ति तनावग्रस्त होकर आता था, तब वह अधिक पावर के पंच 
मारता था- विशेषतः स्त्रियाँ यदि अपने पति अथवा सास से लड़कर आई हुई होतीं थीं, तो 
अपना आपा खोकर पंचबैग की धुनाई करतीं थीं। उन्होंने यह भी महसूस किया कि पंचबैग की 
ऐसी धुनाई के पश्चात वे काफ़ी शांत हो जातीं थीं और ऐसा अनुभव करने लगतीं थीं जैसे 
उन्हें दोनों जहान की खुशी मिल गई हो।  
 
ज़ियाओ लिन को उन स्त्रियों के मनोभावों पर मनन करने से ऐसा लगा कि वे अपनी पूरी 
ताकत से अपने पति अथवा सास की धुनाई पंचबैग की भाँति ही करना चाहतीं थीं। इसीलिये 
पंचबैग पर अपना क्रोध उतार लेने पर उन्हें सांत्वना मिलती थी। उन्होंने सोचा कि यदि 
उन स्त्रियों को पंचबैग के बजाय आदमी के शरीर की पिटाई का चांस मिले, तो वह उसे 
अपने पति, प्रेमी अथवा सास का शरीर समझकर पूर्ण मनोयोग से धुनाई मे जुटेंगी और कई 
गुना अधिक संतुष्टि प्राप्त करेंगी। ज़ियाओ लिन को तो रोज़ रोज़ पन्च खाने की पुरानी 
आदत थी और उनका शरीर भी मज़बूत बन चुका था, अतः उन्होंने सोचा कि मुक्केबाज़ों के 
भारी-भरकम पन्च खाने के बजाय क्यों न ऐसी दिलजली नाज़नीनों के पंच खाकर अपनी 
रोज़ी-रोटी चलाई जाये। अपने इस विचार की सफ़लता की आज़माइश हेतु उन्होनें "किराये का 
पंचबैग" शीर्षक एक विज्ञापन निकलवा दिया, "पति, प्रेमी अथवा सास से झल्लाई हुई वे 
महिलाएँ, जिन्हें अपने दिल का ग़ुबार निकालने का अन्य कोई उपाय न सूझ रहा हो, ज़ियाओ 
लिन को पंचबैग की भाँति धुनने हेतु उनसे सम्पर्क करें। केवल चार डालर प्रति घंटे की 
दर में असीमित धुनाई की उपलब्धता - धुनाई के उपरांत क्रोध-शांति गारंटेड।"  
 
अखबार में विज्ञापन निकलने के दिन ही उन्हें दो महिलाओं के फोन प्राप्त हुए- एक के 
पति ने बेवफ़ाई की थी और दूसरी की सास ने उसका झोंटा खींचते हुए उसकी पिटाई कर दी 
थी। पहली वाली महिला ने लिन के आने पर उनकी पीठ पर मुक्केबाज़ी तो की, परंतु बाद में 
सिसकते हुए उस पर आँसू भी बहाए। दूसरी वाली महिला इतने क्रोध में थी कि सास के 
बाज़ार जाते ही लिन को अपने घर बुला लिया और उनके अन्दर घुसते ही पहले घूँसों से और 
जी न भरने पर फिर लातों से उनकी पीठ का भुरकुस बना दिया। बाद में उसने अपना क्रोध 
शांत कर देने के लिये लिन साहब को बारम्बार धन्यवाद दिया तथा लातों की पिटाई के एवज़ 
में दो डालर अतिरिक्त दिये। लिन साहब की पहले दिन की आमदनी उनकी दैनिक कमाई से कहीं 
अधिक थी, अतः पीठ पर आई चोट भी उन्हें प्यारी ही लगी।  
 
प्रथम दिवस पर संतुष्ट हुई महिलाओं ने अन्य दिलजली महिलाओं में लिन साहब का ऐसा 
प्रचार किया कि उनकी माँग दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गई। अब उनकी न केवल दैनिक आय कई 
गुनी बढ़ गई है वरन उनकी "पंचबैग थेरैपी" से संतुष्ट अनेक महिलाएँ उनकी फ़ैन भी बन 
गईं हैं और उन्हें अन्य कारणों से उत्पन्न मन की अशांति दूर करने हेतु भी बुलाया 
करतीं हैं।  
 
अब उनकी पंचबैग थेरापी इतनी प्रचलित हो गई है कि किसी भी दिन लिन साहब के धंधे की 
सीमा उस दिन उनकी पीठ की मुक्के सहने की क्षमता से ही निर्धारित होती है। यदि आप इस 
सूचना से प्रभावित होकर पंचबैग थेरापी क्लिनिक यहाँ खोलने की सोचने लगे हों, तो बस 
एक बात का ध्यान रखियेगा-भारतीय महिलाएँ मुक्केबाज़ी तो नहीं जानती हैं पर मूसलबाज़ी 
में बड़ी कुशल होती हैं।   |