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						 नाम में दम
 आलोक सक्सेना
 
 बंधु, जब 
						से मंत्री महोदय के घर में जासूसी का सनसनीखेज मामला उजागर 
						हुआ है, तब से हमारे दिलोदिमाग में तो जासूसी पूर्ण बेडरूम 
						तक खुफिया कैमरे पहुँचाने का तिलिस्म समझ ही नहीं आ रहा। 
						आखिर किसी मंत्री की खटिया के नीचे जासूसी करने से मीडिया 
						और विपक्ष को क्या मिलेगा? मुझे तो लगता है कि इस बातूनी 
						समाज में जब किसी को कुछ भी न मिले और सामने वाला सुनने को 
						तैयार ही न हो तो बस जासूसी कर ली जाए या करवा ली जाए। 
						जासूसी अब जासूसी नहीं रही है, वह तो कोई भी मुद्दा उछाल 
						कर प्रतिबद्धता जमाने का खेल हो गई है। 
 जासूसी का मामला हो या न हो क्या फर्क पड़ता है मना करने 
						में। सरकार और स्वयं मंत्री जी मना भी करें तो भी जासूसी 
						का क्लिप दिखा कर योजना बनाने और प्रदर्शन में जासूसी 
						करवाने वाले की बल्ले-बल्ले तो होती ही है। इसलिए यदि 
						पीड़ित मना भी करे तो भी करवा दो जासूसी और चूस लो खून किसी 
						का भी। एक बार किसी बड़े जासूस ने गड़े मुर्दों की जासूसी 
						करनी चाही तो कब्रिस्तान में से मुर्दे भी उठ खड़े हुए और 
						बोले जासूसी करने वाले को यह पता नहीं कि जासूसों के बाप 
						यहाँ दफन हैं। उखाड़ोगे तो कुछ भी नहीं मिलेगा सिवाय नमक 
						में गली हुई परतों की बदबूदार लुगदी के।
 
 विपक्ष सरकार को घेरने के प्रयास में चुप रहे या बोले सब 
						कुछ संदेह के घेरे में आता है। संदेह का घेरा जासूसी का 
						पक्षप्रधान होता है। सबकी नजर उस पर टिकी होती है। हर नजर 
						खुफिया कैमरे पर होती है वह चाहें खटिया के नीचे से उसे 
						देखे या ऊपर छत पर लगे सीलिंग फैन के अंदर फिट करके। 
						बॉलीवुड की कई फिल्में इसी प्रकार के जासूसों के रहस्य का 
						प्रमाण बन कर आँखें चार करती हैं। दरअसल में जासूसी करने 
						वाला यदि चालाक न हो तो सब गुड़ गोबर हो जाता है। उसका 
						जासूसी करना किसी काम का नहीं। वैसे सच तो यह है कि जासूसी 
						करने का जज़्बा तो प्रत्येक आदमी के अंदर पहले से ही मौजूद 
						रहता है, फर्क सिर्फ इतना है कि कोई इसे अपना व्यवसाय बना 
						लेता है तो कोई चुपचाप घुटघुट कर भी जासूसी करता रहता है। 
						प्रत्येक आदमी की चाल को देखकर आप यह नहीं बता सकते कि यह 
						अपना आदमी ही अपनी जासूसी कर रहा है। ऐसे लोग मुँह में राम 
						बगल में छुरी की जगह खुफिया कैमरे लेकर चलते हैं। जब चाहा, 
						जहाँ चाहा वहाँ कर दिया स्टिंग ऑपरेशन। इनकी चाल, ढाल को 
						देखकर और इनकी ईमानदारी भरी बातों को सुनकर आप किसी भी कोण 
						से नहीं कह सकते कि वह स्वयं ही बड़ा शातिर जासूस है।
 
 ऐसे शातिर लोग गुप्त कर्म में पूर्णतः अपना विश्वास रखते 
						हैं। इससे पहले लोग-बाग इनकी खाट खड़ी करें, इनका बिस्तर 
						गोल करें, वह सामने वाले की खाट खड़ी कर देने में विश्वास 
						रखते हैं। खाट भी ऐसी जो खड़ी होने पर जरा भी चुर्र 
						पौं..... चुर्र पौं..... न करें। वैसे पप्पू हर बार पास 
						नहीं होता, कभी-कभी फेल भी होता है। क्योंकि कभी-कभी 
						जासूसी करने वाले की भी जासूसी होकर नाक में दम होते देर 
						नहीं लगती।
 
 फिलहाल राजनीति में जासूसी का प्रवेश हो चुका है। यहाँ ऐसे 
						जासूसों की जिम्मेदारी बनती है जो निष्पक्ष होकर अपना 
						भला-बुरा सोचे बिना सरकार की मदद करें, वरना उनका भी वही 
						हश्र होगा, जो जासूसी के दम पर कुर्सी हथियाने में विश्वास 
						रखते हैं, उनका होता है। हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा ही 
						आए के चक्कर में लाल-पीले हुए बिना जासूसी करना कहाँ का 
						इंसाफ हो सकता है? भारतीय जासूसी के तार अमेरिका तक भले ही 
						फैले हों मगर भारतीय जनता की साख इन सबसे ऊपर है, यह सब 
						जानते हैं। उल्लू किस शाख पर बैठा है यह पता लगाना किसी 
						भारतीय नेता को आम इंसान से ज्यादा आता है। राजनीति की दो 
						नहीं, चार आँखें होती हैं। वह आँखें चार करने की कला का 
						पारंगत खिलाड़ी होता है। उसकी दो आँखें आगे देखती हैं व दो 
						पीछे। ऐसे में कोई बड़ा जासूस यदि गाजर का जूस पीकर भी अपनी 
						जासूसी करे तो भी शातिर जासूस करमचंद ही परास्त होगा और 
						कोई दूसरा नहीं।
 
 सभी को पता है कि नए मुद्दे खोजने के लिए 'गूगल सर्च' आज 
						के युग का सबसे बड़ा अहिंसक हथिहार है। इसी सर्च के माध्यम 
						से पता चलता है कि एक जेम्स बांड नाम का एक जासूस हुआ करता 
						था। उसका जासूसी के क्षेत्र में बड़ा जलवा था। जिसकी जासूसी 
						करता उसके खानदान तक के पुरखे प्रताड़ित हो जाया करते। वह 
						कब्रिस्तान में सोये हुए लोगों की भी जासूसी करने में 
						माहिर था। जासूसों में जेम्स बांड की अपनी धाक थी। लेकिन 
						जेम्स बांड साहब जासूसी के दम पर अपना दम दिखाते थे मगर 
						आजकल उल्टा जमाना है। आजकल के जासूस तो पहले ही यह तय कर 
						लेते हैं कि किसमें कितना है दम। भला 'एक्स' आदमी या 
						मंत्री जासूसी लायक है भी या नहीं। वह किसी भी ऐरे गेरे 
						नत्थू खैरे के कहने पर जासूसी नहीं करते। वह अपने महँगे 
						कारतूस किसी भी 'एक्स' पर फिजूल में खर्च नहीं करना चाहते। 
						यदि जासूसी के इतिहास पर नजर डालें तो वर्तमान में यह भी 
						कहा जाता है कि वह सरकार और मंत्री ही क्या जिसकी जासूसी न 
						हो। इसलिए मंत्री बने हो तो जासूसी से मत डरो चाहे आपके 
						सामने जासूस करमचंद आए या जेम्स बांड की जगह जेक्स बांड 
						बनकर कोई दूसरा आ जाए।
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