हास्य व्यंग्य

अफसरी के प्यार में
संजीव निगम


स्वतंत्र भारत की प्रशासनिक शब्दावली में 'अफसर' शब्द बहुत ही आदरणीय स्थान रखता है। अपने बचपन में मुझे यह शब्द बिना किसी छेड़छाड़ के भी अक्सर गुदगुदा जाता था। कभी कभी माँ बाप भी लाड़ से भर कर कह दिया करते थे "अपने लल्लू को तो हम अफसर ही बनायेंगे।" यह सुनकर मेरा डेढ़ पसली का नाज़ुक बदन ऐसे अकड़ जाता था जैसे किसी बाँस को सीधा गाड़ दिया गया हो।

"अफसर" की एक हसीन कल्पना थी मेरे दिमाग में। मेरे ख्यालों में अफसर दारासिंह जैसा ताकतवर, खून चूसू महाजनों जैसा कड़क, फिल्म अभिनेताओं जैसा हैंड्सम, राजा -नवाबों की तरह से रँगीला और मुंबई के बिल्डरों की तरह से पैसेवाला हुआ करता था। इनके साथ साथ एक और बात जो मेरी कल्पनाओं के मीठे दूध में कॉम्प्लान घोलती थी, वह यह जानकारी थी कि अफसर बनने के बाद सुन्दर बीवी के साथ साथ लाखों का दहेज़ भी मिलता है।

अफसर बनना मेरे दिमाग में आतंकवादी फलसफे की तरह से जड़ें जमाये बैठा था। उन दिनों में जब मास्टर साहब क्लास में देश के बीते दिनों का इतिहास पढ़ा रहे होते थे, तब मैं अपनी अफसरी के मातहत देश के आने वाले दिनों के सपने देख रहा होता था। आखिरकार, पास फेल के भँवरों में डूबते उतराते हुए मैंने किसी तरह से शिक्षा की वैतरणी पार की। यदि शैक्षिक उपलब्धियों के आधार पर नौकरी मिलना तय होता तो अफसर बनने का मेरा सपना किसी नाकाम आशिक के दिल की तरह से चकनाचूर हो जाता। पर जब खुदा मेहरबान, तो निकम्मा भी पहलवान। मैंने 'करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान' वाले फ़ॉर्मूले की सहायता से एक प्रतियोगी परीक्षा पास कर डाली और अफसर बन गया, वह भी सरकारी।

पर अफसरी के हाईवे पर मेरा पहला कदम ही भगवान के वामन अवतार करिश्मे का एक्शन रीप्ले बन गया। मतलब यह कि मेरी पोस्टिंग अपने शहर से हज़ार किलोमीटर दूर बसे एक छोटे से शहर में हुई। दिल पर जोर का झटका, जोर से ही लगा। अरे जंगल में मोर नाचा किसने देखा? अफसरी के दिखने-दिखाने का असली मज़ा तो अपने शहर में अपने लोगों को है। जब मैं घर से सूट टाई पहन कर निकलता तो पास पड़ोस के लोग कैसी जलन भरी गरम गरम साँसे छोड़ते और अपने बच्चों से कहते," देखा, कल तक ये भी तुम्हारी तरह से नालायक था, पर आज अफसरा गया है।" लगता है कि भगवान् के दफ्तर में भी कोई कोटा सिस्टम है, तभी सबकी सब इच्छाएँ पूरी नहीं होती हैं। मैंने अपना सूट केस सम्भाला और पहुँच गया अफसरी के अखाड़े में ताल ठोंकने।

नए ऑफिस में कुछ दिन तो सब कुछ ठीक ठाक चला। नौकरी के शुरूआती दिनों में मुझे इसी बात से गुदगुदी होती रही कि अब मैं भी किसी को आदेश दे सकता हूँ, और इसी ख़ुशी में मैंने सावन के गधे की तरह से आदेशों की दुलत्तियाँ झाड़नी शुरू कर दीं। काम खुद समझने की बजाय दूसरों को समझाना शुरू कर दिया। कुछ दिनों तक तो वे मेरी इन गैर सरकारी हरकतों को बर्दाश्त करते रहे। किन्तु जैसे ही कुछ समय और बीता, वे अपने सरकारीपन पर उतर आये। मुझे ऐसा लगा कि आसमान में उड़ते गुब्बारे के पेट में किसी ने ऐसे छेद कर दिया हो कि धीरे धीरे उसकी सारी हवा फुस हो जाए। अपनी अफसरी में मुझे पहला सबक यही सीखने को मिला कि सरकारी कार्यालयीन संस्कृति में ज्यादा अफसरी छाँटना खुद ही साँड को लाल कपडा दिखा देने जैसा है।

न्युटन के क्रिया-प्रतिक्रिया वाले सिद्धांत को व्यवहार में अगर कहीं देखा तो अपने सरकारी कार्यालय में ही देखा। यहाँ पर आप अपने अधीनस्थों को जितना अनुशासित करना चाहेंगे, वे उतने ही अनुशासनहीन होते चले जायेंगे। उनमें राजनैतिक चेतना भी कूट कूट कर भरी होती है। यदि आपने उनके मौलिक अधिकारों जैसेकि वक़्त- बेवक्त चाय पीना,पान खाने के लिए पूरी मण्डली बना कर जाना, आधा घंटे के आधिकारिक लंच टाइम को स्वाधिकार से पूरे घंटे का बना लेना, छुट्टी के समय से दस पंद्रह मिनट पहले खिसक लेना वगैरह का अतिक्रमण किया तो वे तुरंत असहयोग आन्दोलन पर उतर आते हैं। शायद इन्हें प्रेरणा देने के लिए ही हर कार्यालय में गाँधी जी की फोटो लगी होती है।

कार्यालय में अनुशासन लाने की मेरी भयंकर भूल के परिणाम भी भयंकर हुए। मेरे सख्त आदेशों के बाद सब लोग अपनी सीटों पर जमे रहने लगे थे, सब लगातार कलम चलाते हुए भी दिखते थे, पर मैं शाम तक बैठा फाइलों के आने का इंतज़ार ऐसे ही किया करता था जैसे करवाचौथ व्रती महिलाएँ चाँद के आने का किया करती हैं। छह छह इंच की दूरी पर रखी फाइलें इधर से उधर सरकने में छह छह दिन लेने लगी थीं । चपरासी मुझे पानी पिलाने या किसी मेहमान के आने पर चाय कॉफ़ी लाने में निर्दलीय सांसदों की तरह से नखरे दिखाने लगे थे। उन लोगों के इस रवैये की शिकायत ऊपर वालों से की तो सरकारी चक्की में पिसे हुए उन गेहूँ के दानों ने मुझे ही झाड़ पिला दी कि 'मैं क्यों अच्छे खासे चलते सौहार्द्रपूर्ण वातावरण को खराब कर रहा हूँ।'

आखिरकार एक बुज़ुर्ग साथी की गोपनीय सलाह मानकर मैंने एक दिन ऑफिस के यूनियन लीडर को चाय नाश्ते की दावत दी और इस कार्यालयीन चक्रव्यूह से मुझ अभिमन्यु को निकालने की खुशामद की। इस पर उसने पहले तो मुझे अफसरों की हवा निकालने के अपने पुराने कीर्तिमानों की सविस्तार जानकारी दी। जिसे मैंने खींसे निपोरते हुए बड़े दुखी मन से ग्रहण किया। उसके बाद उसने मुझसे भविष्य में ऐसी अफसराना बेवकूफियाँ न करने का वचन लिया जिसे लेने के बाद उसने संतुष्टि और अधिकार के साथ मेरा सरकारी फोन अपनी ओर खींच कर अपने नाते रिश्तेदारों को तड़ातड छह सात पर्सनल एस टी डी कॉल किये। इस प्रकार वह जाते जाते नेताओं वाली सज्जनता से यह भी इंगित कर गया कि अबसे इस सरकारी सम्प्रेषण यंत्र पर उसका निजी हक़ भी रहेगा। पर, मुफ्त के चाय नाश्ते और फ्री की एस टी डी कॉल्स का यह प्रभाव ज़रूर हुआ कि उसने संकटमोचक की भूमिका निभाते हुए मुझे ऑफिस में पुनः प्रस्थापित करवा दिया।

हमारी नौकरशाही का ढाँचा ही कुछ ऐसा बना है कि जिम्मेदारियों के मटकों का सारा संतुलन अफसर के सर पर टिका दिया जाता है। मैं अपने ऑफिस के क्लर्कों को देखता हूँ -कैसे हर समय हरे भरे बाग़ में बछड़ों की तरह से कुलाँचे भरते रहते हैं। न सफलता की चिंता, न नाकामी का डर। मर्ज़ी से ऑफिस आना, मर्ज़ी से जाना और जब मर्ज़ी हो तभी काम करना। शाम को एक बार ऑफिस से बाहर पैर निकाला तो दूसरे दिन ऑफिस के पायदान पर पैर रखने के बाद ही काम के बारे में कुछ सोचना। उसके ठीक विपरीत, बेचारा अफसर हर समय ताज़ा ताज़ा अनाथ हुए बच्चे की तरह से "हाय-हाय" करता रहता है। अपने पद की गरिमा को बनाए रखने के लिए घर के ताम झाम पर अपनी छोटी सी तनख्वाह के पैसे पैसे को नींबू की तरह से निचोड़ना पड़ता है।

खैर इस सबके बावजूद हम मजनूँ जैसी मोहब्बत के साथ अपनी इस अफसरी रुपी लैला के साथ वफादारी निभाये चले जा रहे हैं पर कमी सिर्फ यह है कि जब हम पर पत्थर पड़ते हैं तो यह लैला कभी यह नहीं कहती है कि "कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को।"

२९ अप्रैल २०१३