| उन्हें ईश्वर ने एक मिशन पर भेजा 
है। वे सदा घिरे रहते हैं दुखियारों से- दूर दूर से बस, ट्रेनों, स्कूटरों पर लद कर 
आये बेचारे काम के मारों से, प्रोमोशन-डीए-टीए की मृगतृष्णा से घिरे, अपने डेस्क से 
साहब के कमरे तक आने जाने के कुचक्र में उलझे, काम करने या न करने दोनों हालतों में 
डाँट पिलाते साहबों से संत्रस्त प्राणियों को वे कुछ क्षण दुख से त्राण दिलाते हैं। 
वे एक ही सी दिनचर्या ढोते इन दफतरी जीवों को उनके डेस्क-फाइलों के बंधन से मुक्ति 
दिलाकर उनकी सूखी जिह्वा पर समोसों-ढोकलों, बर्फी-गुलाब जामुनों के तीखे-मीठे रस की 
वर्षा करते हैं। साथ ही एक ऐसा माहौल बना कर देते हैं जहाँ ये लोग खुली हवा में 
सांस लेते हुए चटपटी गप्पों, स्कैंडलों, अपफवाहों और पर निंदा के जरिये अपने अंदर 
की तृष्णा और बुरे भाव निकाल कर पवित्रा हो सकें और दुबारा काम की घुटन भरी 
दिनचर्या को सहन करने के योग्य बन सकें।
 संत सुनेजा हमारे यहाँ ईश्वर के वरदान स्वरूप मौजूद हैं। सुनेजाजी प्रकृतिवश ही 
पार्टी आयोजक हैं। वे कहीं भी, कभी भी और कैसे भी पार्टी आयोजित कर लेते हैं। वे 
पार्टी-आध्यात्म के प्रणेता हैं। मुझ पर विशेष कृपा रखने के कारण वे अक्सर पार्टी 
के दर्शन और विज्ञान पर मेरा सामान्य ज्ञान बढ़ाते रहते हैं।
 वे कहते हैं कि पार्टी मानव जीवन 
का ध्रुव सत्य है। मनुष्य प्रागैतिहासिक काल से ही सामूहिक भोजों के जरिये आपसी 
सौहार्द्र बना कर समाज की जड़ें मजबूत करता रहा है। गुफावासी मानव जलती आग में 
सिंकते हुये पशु के इर्द-गिर्द नृत्य करते उत्सव मनाते थे। यहाँ ध्यान देने की बात 
ये है कि उस भुनते हुये पशु का शिकार किसने किया ये बात बिल्कुल मायने नहीं रखती 
थी। सब लोग उस भोजन पर ही ध्यान केंद्रित रखते थे। यहीं से सामूहिक भोज की परम्परा 
की नींव पड़ी जिसका भावार्थ व्यक्तिगत उपलब्धि का सामूहिक संहार करना था।
 आगे उन्होंने ये भी बताया कि भोज की परम्परा का आगे चहुँमुखी विकास हुआ। राजाओं को 
भोज देना अत्यंत प्रिय था क्योंकि उस भोज की व्यवस्था प्रजा ही करती थी। एक राजा तो 
ऐसे थे जिन्होंने अपना नाम ही ‘भोज’ रख लिया था। तब से राजा भोज देने लगे और गंगू 
तेली उस भोज की व्यवस्था, इस स्थिति के बावजूद कि एक कहीं और होता था और दूसरा कहीं 
और। भोज का मौलिक स्वरूप यानी एक का मुंडन और बाकियों की तृप्ति आधुनिक काल में भी 
जस का तस बना रहा। इस दौर में भोज ने अपना नाम बदल कर ‘पार्टी’ रख लिया।
 
 संत सुनेजा मानते हैं कि किसी सरकारी कार्यालय में काम करता हुआ आदमी भी आखिर एक 
सामाजिक प्राणी है। यहाँ वो काडर, सर्विस, ग्रेड आदि नाम के समूह बनाकर एक-दूसरे की 
टांग खींचते या हौसला बढ़ाते दिन काटता है। वह कार्यालीय समाज के सुख यानी डीए, 
इंक्रीमेंट, ट्रेनिंग, देशी-विदेशी दौरे, प्रोमोशन और मुफ्त छुट्टियाँ तथा दुख यानी 
काम करना, डाँट खाना वगैरह मिलजुल कर भोगता है। जाहिर है ये दिनचर्या अक्सर नीरस 
होती है।
 
 एक चीज यहाँ बहुतायत में होती है जिसका सदुपयोग अपने तईं कितना भी करो, फिर भी काफी 
मात्रा में बच जाता है। ये चीज है कार्यालय का वक्त। ऐसे में काम आती है पार्टी जो 
समय काटने का अचूक अस्त्र है। जरूरत है बस एक आदमी की जो पार्टी देने को मान जाये 
और एक कुशल पार्टी आयोजक की जो मौके की नजाकत के हिसाब से पार्टियों का स्वरूप और 
आकार तय कर उसका इंतजाम कर दे।
 
 ऐसे में सुनेजाजी के त्यागमय जीवन की दिनचर्या की झलक देखें। रोज दपफ्तर पहुँचते ही 
वे अपनी लिस्ट ‘चेक’ करते हैं। इसमें आस-पास के लोगों का जिन्दगीनामा है। आपका जन्म 
कब हुआ, उसके बाद अनुमानतः कुछ दिनों बाद मुंडन-छेदन, नामकरण, स्कूल जाना, पहली 
गर्ल-फ्रेंड या प्रेम-पत्र मिलने का दिन, परीक्षाएँ, नौकरी, शादी, हनीमून, बच्चों 
का जन्म-करम, शिक्षा-दीक्षा, नौकरी-शादी, बीबी से तलाक, अगर हुआ हो, वगैरह की 
तारीखें लिखी हैं। नौकरी के उपखंड में तो प्रोमोशन से लेकर इन्क्रीमेंट-डीए तक 
तारीखें ही तारीखें हैं। ऐसे सभी मौकों पर पार्टी देना हर व्यक्ति का मौलिक कर्तव्य 
है ही, बाकी किसी के चेहरे, कपड़े या जूतों पर चमक, नई स्टेश्नरी-फर्नीचर, नया 
चश्मा-चप्पल-रुमाल कुछ भी समोसे मँगवाने की अनिवार्यता बन सकता है।
 
 कई बार तो सामने वाला कुछ कहे इससे पहले ही वे पार्टी की माँग कर बैठते हैं। एक बार 
वे सास की मृत्यु की खबर दे रहे एक सहयोगी से पार्टी माँग बैठ थे। अपने समर्पण में 
वे ऐसी ऊँचाई को छू गये हैं कि वे राम का नाम भी लेते हैं तो मुँह से पार्टी ही 
निकलता है। सच्चे संत के यही लक्षण हैं।
 
 हमारा भी कर्तव्य बनता है कि दफ्तरी जीवन में सरसता लाने में संत सुनेजा के योगदान 
के प्रति कृतार्थ रहें और उनके वचनों के प्रति समर्पण भाव रखें।
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