मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


हास्य व्यंग्य

चल वसंत घर आपणे…!!!
डॉ. अशोक गौतम


वसंत पेड़ों की फुनगियों, पौधों की टहनियों पर से उतरा और लोगों के बीच आ धमका। सोचा, चलो लोगों से थोड़ी गप-शप हो जाए।

वे चार छोकरे मुहल्ले के मुहाने पर बैठे हुए थे। वसंत के आने पर भी उदास से। वे चारों डिग्री धारक थे। दो इंजीनियरिंग में तो दो ने एमबीए की हुई थी, फारेन से। चारों ही प्राईवेट कंपनियों में लगे हुए थे, तगड़े पैकेज पर। पर आजकल उन्हें आर्थिक मंदी ने मारा हुआ था। कंपनी कभी भी उन्हें नौकरी से हटा सकती थी। उनके चेहरे ऐसे पिचके हुए थे कि ऐसे तो बेरोजगारों के भी नहीं पिचके होते। वसंत चुपचाप उनके पीछे खड़ा हो गया, मुस्कुराता हुआ।

''यार! समझ नहीं आ रहा अब क्या किया जाए?'' पहले ने दूसरे की जेब में सिगरेट के लिए हाथ डाला पर जिस जेब में हमेशा सिगरेट का पैकेट रहता था उसमें से उस वक्त सिगरेट का टोटा निकला। उसने चुपचाप वह सिगरेट का टोटा ही तीसरे की जेब से माचिस निकाल जलाया और सोच में पड़ गया।

''हमारी मैनेजमेंट ने तो कभी भी छोड़ने के आदेश जारी कर दिए हैं।'' तीसरे ने लंबी साँस ली और पहले के हाथ से सिगरेट का बुझने के कगार पर पहुँचा सिगरेट का टोटा ले कश लगाया।
''अपना तो चक्कर पड़ गया।'' दूसरे ने कहा।
''कैसा!!''
''उस गाड़ी के लिए जो लोन ले रखा था अब उसकी किश्त कहाँ से निकलेगी?''
''यार, तुझे गाड़ी की किश्त की पड़ी है इधर लगता है अपनी शादी ही खटाई में न पड़ जाए।'' कह वह पेड़ की फुनगियों को ताकने लगा। वसंत ने चारों के सामने सिगरेट का पैकेट रख कहा, ''हाय! मैं वसंत।''
''ओ थैंक्स फार दिस पैकेट आफ सिगरेट।'' चारों ने एक साथ कहा। फिर दूसरे ने पूछा, ''पहले कभी तुम्हें देखा नहीं। मुहल्ले में नए आए हो क्या?''
''नहीं, हर साल इन्हीं दिनों आता हूँ।''
''ओके… ओके. फिर मिलना…'' चारों ने एक साथ कहा और अपने अपने रोने में शामिल हो गए।

हद है यार नौजवानों को उसके आने की खुशी नहीं होगी तो किसको होगी? मेरे देश के नौजवानों को ये क्या हो गया भगवान!
वसंत ने कुछ सोचा और सरकारी दफ्तर की ओर चला। दफ्तर की सीढ़ियाँ चढ़ते ही सामने स्टूल पर अलसाया हुआ खुमारी में बैठा पीउन। वसंत ने सोचा कि इसे मेरे आने का पता चल गया है तभी तो डयूटी टाइम में इस तरह टाँगें कहीं तो बाजू कहीं फरकाए बैठा है। टोपी से लेकर जूतों तक मदहोशी ही मदहोशी।

वसंत उसे बाइपास कर भीतर साहब के पास जा पहुँचा। साहब व्यस्त।
''राम! राम! साहब।''
कागजों में उलझे साहब ने सिर उठाया, ''कौन?''
''साहब, मैं वसंत! कई दिन हो गए थे आए हुए। आज सोचा आपसे मिल लूँ।''
''क्या काम है?''
''कुछ नहीं। मैं तो बस यों ही चला आया था।''
''हद है यार तुम्हारी भी। लोग यहाँ काम होने के बाद भी आने के लिए आने से पहले बीस बार सोचते हैं और तुम हो कि… बड़े अजीब शख्स हो...'' कह वे फिर कागजों में खो गए। काफी देर तक जब वसंत वहाँ चुपचाप खड़ा रहा तो साहब ने कुढ़ते हुए कहा'' देखो यार! ३१ मार्च सिर पर है। साल भर का पेंडिंग काम पड़ा है। लाखों का बजट लैप्स हो जाएगा। ऊपर से इनकम टैक्स, इनकम का पता नहीं, अब टैक्स ही टैक्स बचा है। मुझे काम करने दो प्लीज। आजकल तो मरने का टाइम तक नहीं। ३१ मार्च तक तो हमने बीवी से मिलना भी बंद कर रखा है। उसके बाद जब चाहे चले आना। जितनी देर चाहोगे तुम्हारे साथ गप्पें मारूँगा। प्रॉमिज, ओके।''

दोपहर का एक बज रहा था। भीतर जोर-जोर का टीवी लगा हुआ था। वसंत को लगा कि इस घर में कोई है ही नहीं, जरूर कोई है। उसने दरवाजे पर दस्तक दी। एक बार... कोई नहीं आया। दो बार… कोई नहीं आया। जब तीसरी बार कुछ जोर से दस्तक दी तो एक अधेड़ा ने गुस्से में दरवाजा खोलने से पहले पूछा,
''क्या है?''
''नमस्ते जी।'' वसंत ने दोनों हाथ जोड़ें।
''हाँ कहो, क्या बात है?''
''जी में वसंत आया था आपसे…''
''कौन वसंत? कमेटी से आए हो? पड़ोसियों के आठ दिन से पानी नहीं आया है। अति कर दी है मुओ ने। रोज सुबह खाली बाल्टियाँ लेकर उठने से पहले दरवाजे पर खड़े रहते हैं। हाँ भैया! ठीक से ठीक कर जाना नल उनका।'' कह वह दरवाजा बंद करने को हुई तो वसंत ने फिर सानुनय कहा, ''जी मैं कमेटी से नहीं… मैं तो...''
''जहाँ जाना है आगे जाकर पूछ लो। भले चंगे सीरियल का मजा ले रही थी। सारा गुड़गोबर कर दिया।'' कह उसने इतनी जोर से दरवाजा बंद किया कि वसंत को तो लगा कि दरवाजा पक्का टूट गया। हाय रे दरवाजे!

वसंत थका हारा साथ लगते किसान के पास जा पहुँचा। किसान उस वक्त चिंता में बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था।
''और मामू, क्या हाल हैं पांय लागूँ?''
''जीते रहो। क्या हाल होंगे भैया! रो रहे हैं अपनी किस्मत को।'' कह किसान ने हुक्के की लंबी गुड़गुड़ाहट की।
''पहचाना नहीं क्या?'' वसंत ने हँसते हुए पूछा।
''हम औरों को क्या पहचाने भैया, हम तो खुद को पचानना ही भूल गए हैं।''
''तो हम वसंत हैं।''
''कौन वसंत? वो मंझली बहू के बुआ के लड़के? और कहो कैसे हैं सब वहाँ? सब ठीक तो हैं?''
''अरे मामू, वो वाला वसंत नहीं। जो इन दिनों हर साल आता है वो वाला।''
''अरे भैया, इन दिनों तो हजारों आते हैं अब किस किसको याद रखें।'' कह किसान सोचते सोचते पता नहीं कहाँ खो गया। वसंत ने वहाँ से उठने में ही अपनी भलाई समझी।

वसंत ने घड़ी देखी। अभी सांझ ढलने में देर थी सो वह एक नामचीन राइटर के घर जा पहुँचा। राइटर उस वक्त वसंत पर कविता लिखने में मस्त था। सामने पुराने कवियों की आठ दस वसंत पर लिखी कविताएँ खोली हुईं। महाशय कभी इस कविता से पंक्ति उठाते तो कभी उस कविता से। पर पक्तियाँ थीं कि एक दूसरे के साथ रहने में संकोच कर रही थीं। वसंत ने न चाहते हुए भी उनका ध्यान भंग कर ही दिया। राइटर ने सामने किसीको खड़े देखा तो पहले तो अपना ग्लास सामने से हटाया।

''लेना पड़ता है जब कविता भीतर से न निकले तो। आपकी तारीफ!''
''जी मैं वसंत। यहाँ से गुजर रहा था तो सोचा आपसे मिलता चलूँ।''
''कहाँ के रहने वाले हो?'' कह उन्होंने पुराने कवियों की वासंती कविताएँ परे फेंकने का नाटक करते कहा, ''कितनी हलकी कविताएँ लिखते हैं ये लोग। कविता के नाम पर कलंक। मेरी कविताएँ तो पढ़ी ही होंगी। कब आए?''
''सर्दियों के बाद हर साल चला आता हूँ।''
''अच्छा करते हो। सर्दियों में वैसे भी बैठै-बैठे हड्डियाँ जुड़ जाती हैं। आदमी को थोड़ा घर से बाहर भी निकलना चाहिए।''
''जी!''
''...पर अभी माफ कीजिए। कल आना। अभी मुझे एक पत्रिका के वसंत विशेषांक को वसंत पर कविता लिखकर भेजनी है। बहुत तनाव में हूँ। दस दिन हो गए उनको फोन करते हुए। हाँ, मेरी ये ताजी कविता ले जाओ। जरूर पढ़ना। बताना, कैसी लगी।'' उनसे अनमने कविता की प्रति ले वसंत वहाँ से उठा तो वे कुछ नार्मल हुए। बाहर आकर बड़ी देर तक वसंत कविता को देखता रहा तो कविता वसंत को।

शहर में रोशनियाँ जगमगा उठी थीं। वसंत भी वापस जा रहा था कि सामने से उसे एक गाड़ी में लड़खड़ाते हुए इसके कामदेव और उसकी रति आते दिखाई दिए। वसंत का चेहरा ये देख बाग बाग हो उठा। और उसने गाड़ी को हाथ दिया तो गाड़ी चीं करती हुइ बीस मीटर आगे जाकर रुकी।
''क्या है? पुलिस वाले हो?'' गाड़ी का शीशा खोलकर उसने अपना पर्स ढूँढते पूछा।
''नहीं, वसंत हूँ!'' मुस्कुराते हुए वसंत ने कहा।
''ओ यार! डरा ही दिया था तुमने तो। कहाँ जाना है?''
''बस यों ही हाथ दे दिया था। आप दोनों को इस हाल में देख कर बहुत खुशी हुई सो…''
''अच्छा अभी जल्दी में हूँ। इसे इसके घर छोड़ना है। पहले ही काफी देर हो गई है।'' कह उसने सौ का नोट वसंत के हाथ धरा और ओ गया कि ओ गया। वसंत बड़ी देर तक वहीं खड़ा कभी सौ के नोट को देखता रहा तो कभी अपने को देखता रहा।

१५ फरवरी २०१०

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।