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हास्य व्यंग्य

शिक्षा : कुछ साक्षात्कार
--रामेश्वर काम्बोज हिमांशु


शिक्षा वह उजाला है जो आदमी को उल्लू होने से तथा उल्लू को आदमी बनने से रोकता है। यह बात दूसरी है कि लोग उम्र भर उल्लू बने रहने पर कमर कस लेते हैं, ऐसे लोगों की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। समाज की इस रीढ़ की उपेक्षा भला कैसे की जा सकती है? जिसका शिक्षा से दूर का भी रिश्ता नहीं है वह भी बेहयाई से अपना मूल्यहीन परामर्श दे सकता है, जो परामर्श न ले उस पर जबरन थोप सकता है। इस गंभीर विषय पर कई अगंभीर व्यक्तियों का साक्षात्कार लिया गया। शिक्षा जैसे सामयिक विषय पर सबने अपनी सामथ्र्य के अनुसार जुगाली की।

शिक्षा शास्त्री श्री जड़मतिजी कूपमंडूक के विचार–
मैं तो आधी उम्र तक अपनी भैंसों के लिए घास खोदकर लाता था। शिक्षा नामक भैंस को बीन बजाकर मोहित करने की कला मुझे बखूबी आती है, यद्यपि इस भैंस को अँगरेजी जमाने से पगुराने की आदत है। जो पद्धतियाँ दूसरे देशों में असफल हो चुकी हैं या जिन्हें घूरे पर फेंका जा चुका है, उन्हें मैं बड़ी सरलता से अपनाता रहा हूँ। इसी की कृपा से अपनी रोटी चल रही है। शिक्षा से समाज में परिवर्तन होता है, समाज में परिवर्तन होने से अपनी पूछ होगी ही।

प्रबंधक श्री चितपट सिंह–
मैं सिच्छा के बारे में कुछ ज्यादा नहीं जानता। पढ़ने से मैं बचपन में भी जी चुराता था, आज भी वही हाल है। मास्टरों को देखकर मेरी तबियत बहुत घबड़ा जाती थी। रोटी–रोजी के लिए यह दुकान बहुत बढ़िया है। खाली घुड़साल मिले या गौशाला, स्कूल खोल दो। जरा अँगरेजी मीडियम को छौंक लगा दो तो तबियत हरी हो जाए। बच्चों की लैन लग जाएगी। हज़ार-हज़ार रुपए महीने पर बहुत से ठलुए मास्टरी करने के लिए मिल जाएँगे। मोटी फीस वसूलने से भी स्कूल का माथा ऊँचा होता है। कुछ ही सालों में घर–परिवार की कंगाली दूर हो जाएगी। घाटा कभी होगा ही नहीं। जो अपनी चिलम न भरे, उसकी अगले दिन से छुट्टी। कमैटी में खूब उठा–पटक होती है। जो पहलवानी के दाँवपेंच नहीं जानता हो ,उसे धोबीपाट मारकर कभी भी चित्त किया जा सकता है। घर में नौकर रखने की जरूरत नहीं पड़ती। स्कूल के चपरासी किसी भी घरेलू काम में जोते जा सकते हैं।

प्रधानाध्यापक श्री मटियामेट जी–
शिक्षा का मतलब है मास्टरों की नकेल हमारे हाथ में रहे। अजगर, कछुआ, चीता, भेडि़या, खरगोश, बकरी आदि कई प्रकार के मास्टर होते हैं जिनसे काम लेना सचमुच टेढ़ी खीर है। प्रबंध समिति के लोग भी टाँग खींचने में पीछे नहीं रहते। भूचड़ लोगों की जी–हजूरी और सेवा–टहल में बेचारी शिक्षा की हालत बेवा औरत जैसी हो जाती है। कोई अच्छा काम हो गया तो प्रशंसा नहीं मिलेगी, कहीं गलती हो गई तो खाल में भुस भरने वाले सब तैयार रहते हैं। शिक्षा का सही उद्देश्य है व्यक्ति का चहुँमुखी विकास। यह विकास केवल वेतन से नहीं हो सकता। कुछ ऊपर की आमदनी भी होती रहे। सच कहूँ–अपना जोर तो कमजोर मास्टरों पर ही चलता है। जैसे चाहों, नचाओ उन्हें। जो अपनी बुद्धि,मर्यादा को खूँटी पर टाँग सकते हों वे ज्यादा सहायक बन सकते हैं। ये जूते की तरह पैरों में भी पहने जा सकते हैं और गठरी की तरह लाठी पर भी लटकाए जा सकते हैं। शिक्षा का भाड़–झोंकने के लिए भड़भूजे ज्यादा काम आ सकते हैं।

शिक्षक श्री रामभरोसे लाल–
शिक्षक को हमेशा अपने कक्षा–कक्ष के दरवाजे पर तैनात रहना चाहिए। न जाने किस भेष में शिक्षा जी मिल जाएँ। अच्छा शिक्षक वह होता है,जिसे बच्चे पढ़ाते हैं। वह बच्चों को पढ़ाकर उनके कोमल मस्तिष्क को विकृत नहीं करता। उनकी क्षमताओं के विकास को अवरुद्ध नहीं करता। बच्चे अपने पैरों पर तभी खड़े हो सकते हैं जब वे किसी रामभरोसे पर भरोसा न करके अपने आपको भगवान के भरोसे छोड़ दें। जो शिक्षक घंटा बजते ही कक्षा में स्थापित हो जाता है, वह कक्षा के माहौल को प्रदूषित करता है। उसके लोक और परलोक दोनों ही बिगड़ जाते हैं। शिक्षक, शिक्षा का चौकीदार है अत: उसे दरवाजे पर खड़े होकर यत्र–तत्र–सर्वत्र काक–दृष्टिपात करते हुए छात्रों के भविष्य का निर्माण करना चाहिए। ज्यादा विद्यादान करने से वह किसी दिन फकीर हो सकता है अत: उसे खुद को किसी ऐसे खतरे में नहीं डालना चाहिए

छात्र दूरदर्शन कुमार–
विद्यालय और शिक्षक के दर्शन निश्चित दूरी से ही करने चाहिए। ज्यादा निकटता से स्वास्थ्य खराब हो सकता है। मैं रोज–रोज विद्यालय में क्यों जाऊँ? मैं विद्यालय का नौकर थोड़े ही हूँ। मुझसे पूछकर पाठ्यक्रम नहीं बनाया जाता, मुझसे पूछकर शिक्षकों की नियुक्ति नहीं होती, मुझसे पूछकर प्रश्न–पत्र नहीं बनाए जाते, मेरी इच्छानुसार परीक्षा–भवन में नकल के आवश्यक साधन नहीं जुटाए जाते, फिर भला विद्यालय से मेरा लगाव क्यों हो? अध्यापक जी मुझसे ही माँगकर बीड़ी पीते हैं, मुझे गुंडागर्दी करने के लिए उकसाते हैं, मेरे घर बार–बार दावत खाते हैं, ट्यूशन पढ़ने के लए बाध्य करते हैं। कक्षा में बैठे–बैठे अँखियाँ थक जाती हैं–परंतु गुरु ब्रह्या,गुरु विष्णु या किसी महागुरु के पूरे–दिन दर्शन तक नहीं होते। थोड़े कहे को ही बहुत समझें। जो बिना कहे रह गया है, वह बहुत मायने रखता है।

मुझे वे गुरु ज्यादा अच्छे लगते हैं जो कक्षा में भी नशा करके आ सकते हैं। इनकी उपस्थिति में छात्र सो सकते हैं, परीक्षा में नकल कर सकते हैं। अधिक नशा करने पर जब इन्हें लादकर घर ले जाया जाता है, उस समय स्कूल हीन और गुरुजी महान लगते हैं। ये हमारी जिस पीढ़ी को तैयार कर रहे हैं, वह सपने में भी इन्हीं का नाम लेते है। जो छात्र ऐसे गुरुओं की निंदा करता है,उसे अगले जन्म में सियार बनना पड़ता है।

२७ अप्रैल २००९

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