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हास्य व्यंग्य

कोई जूते से ना मारे
राकेश शर्मा


जूते का मानव सभ्यता से बड़ा गहरा संबंध रहा है। कहते हैं कि किसी ज़माने में किसी नाजुक बदन और तुनक मिजाज़ राजा को बागिचे में टहलते हुए काँटा चुभ गया। फिर क्या था उसने सारी पृथ्वी को चमड़े से मढ़ देने का आदेश दिया। अब इतना चमड़ा आखिर पैदा कैसे हो, तो किसी बीरबल टाइप दरबारी ने एक छोटे से चमडे़ के टुकड़े को काट कर राजा के पाँव में पहना दिया और तब से धरती पर जूते का चलन चल पड़ा।

अब आदमजात की यह बड़ी अजीब आदत रही है कि वो हर उपयोगी वस्तु का बहुमुखी उपयोग कर लेना चाहता है। यही उसने जूतों के साथ भी किया। सदा पैर में पड़े जूतों का सम्माननीय उपयोग करते हुए किसी ने शादी-ब्याह में इसे पैसे ऐंठने का माध्यम बनाया, किसी ने इसकी माला बना स्वागत-सत्कार की पारंपरिक पद्धति को मौलिक आयाम प्रदान किया, तो किसी हत्थकटे ठाकुर ने जूते में कील छिपाकर एक नवीन हथियार का विकास कर लिया। परंतु जूते से खोपड़ी तोड़ने के तरीके की ईजाद ने जूते के इतिहास को सदा के लिए बदलकर उसे एक नई उँचाई प्रदान की।

हिंदुस्तान में तो जुतियाने को सदा से ही एक विशिष्ट हुनर का दर्जा दिया गया है। इसकी अपनी तकनीक है। कहनेवाले कहते हैं कि जूतियाने से पहले अगर जूते को रात भर पानी में भिगो दिया जाए तो सुबह जुतियाते बखत आबाज़ अच्छी आती है। यह भी कहा गया है कि जुतियाने का सही तरीका यह है कि गिनती के साथ जूते बरसाना शुरु करो और ३०-४० तक पहुँचते-पहुँचते गिनती भूल जाओ और फिर नए सिरे से शुरू करो। जूते के साथ भारतीय पौराणिक साहित्य में भी एक कथा आती है कि भरत ने कूटनीतिक चालाकी से राम की पादुका को सिंहासन पर रख दिया और राम को नंगे पाँव ही गहन वन में भेज दिया ताकि चौदह बरस तक काँटे-कंकड़ खाते हुए राम वन में ही सेप्टिक-गैंग्रिन से मर खप जाएँ और चौदह बर्ष बाद सत्ता हाथ से निकलने का टेंशन ख़त्म हो।

अब यह तो हो गई परंपरा और पुराण की बात परंतु लगभग बरस भर पहले प्रात: स्मरणीय मान्यवर मुंतजर अल जैदी के एक जूते के प्रक्षेपण ने जूते से जुड़ी समस्त धारणाओं-मिथकों को बदल कर रख दिया। बेचारा जूता जो लाचार जबान लड़की के बाप के पैरों में पड़ा घिसता था वही अचानक बुश जैसे महापुरुष के मस्तक पर सवार हो सारी दुनिया में अपनी प्रतिभा का जूता मनवाने लगा। यह वही जूता है जो जैदी के हाथ से प्रक्षेपित होकर आदम के पैर से निकल कर दिमाग की मरम्मत करने का अनन्य प्रतीक बन गया। यह वही जूता है जिसने अपना नंबर बुश की मुँदी-मुँदी-सी आँखों को पढ़वाकर भारत सहित सारे विश्व में जूता क्रांति उपस्थित कर दी। इस पादुका प्रक्षेपण के बाद तो जो जूताफेंक होड़ चालू हुई उसने क्या हिंदुस्तान, क्या चीन सभी मुल्कों को अपनी जद में ले लिया। जहाँ देखो वहाँ जूते ऐसे बरसने लगे मानों किसी परम कृपालु देवता का आशीष बरस रहा हो। जो जूता जैदी के करकमलों से निकल कर बुश का मुखचुंबन करने निकला था उसका निर्माण करनेवाली कंपनी के लिए मानो छींका ही टूट गया। पाँचो उँगलियाँ जूते में डालकर उसने जूतों से कमाई की जो फसल काटी है उसकी मिसाल कोई और नहीं।

खैरियत यह रही कि इन कंपनियों ने की कोई 'जैदी' ब्रांड का जूता ही ना निकाल दिया। मार्केट में बाटा, एक्शन, रीबाक आदि पाँव जमाई कंपनियों के शेयर रातोंरात सातवें आसमान पर पहुँच गए। नेता और मंत्रियों के खेमे में हडकंप मच गया। अब ये सारे बदनाम प्राणी बुलेटप्रुफ़ को छोड़ कर जूताप्रूफ़ सुरक्षा की खोज़ में एडियाँ रगड़ने लगे। कई कंपनियों ने तो एक जोड़ी जूते के साथ एक अतिरिक्त एयरोडायनमिक्स जूता फ्री देने की भी योजना बना ली। एक जोड़ी जूता पाँव में डालिए और अतिरिक्त एयरोडायनमिक्स जूते को तह करके सदैव अपने साथ रखिए। क्या पता कब, किसे, कहाँ जूतियाने के मौका हाथ आ जाए। जो भी जिससे महीनों-सालों से खार खाए बैठा था उसे अपनी भड़ास निकालने का यह सुनहरा अवसर हाथ लग गया। सड़े अंडे, टमाटर फेंककर और काली रिबन पहन कर विरोध जताने का फंडा वैसे भी काफी पुराना हो गया था। ऐसे में मान्यवर जैदी जी ने विरोध की जो नई तकनीक ईजाद की वह मानो विरोध के उबाऊ वातावरण में ताज़ी हवा का झोंका था। मेरी मानें तो शांतिपूर्ण विरोध की इस अनुपम तकनीक की ईजाद के लिए शांति का अगला नोबल इन्हें ही मिलना चाहिए।

दूसरी ओर सस्ती या कहें कौड़ी के भाव की लोकप्रियता हासिल करने का भी इससे क्रांतिकारी तरीका कोई नहीं हो सकता था। बस मौका देखकर किसी नामी-गिरामी हस्ती को जुतिया दो और आपकी लोकप्रियता की टी.आर.पी. कुंलाचें भरती नज़र आएगी। अजी, फिर जाए तो नौकरी जाए और हो जाए गिरफ्तार कुछ हफ्तों के लिए तो हो जाएँ। चंद दिनों में आप रिहा होकर शान से निकलेंगे और जिसे जूता पड़ा होगा उसके विरोधी पक्ष आपको सर आँखों पर बिठाने के लिए दौड़ा चला आएगा। ईनामों की बरसात हो जाएगी और टी.वी. चैनल वाले अपनी टी.आर.पी. के चक्कर में आपको मशहूर करा देंगें सो अलग। जैदी का जूताकांड इतना हिट हुआ कि बगदाद में उनके नाम पर एक जूता स्मारक ही बना दिया गया।

गाहेबगाहे यदि आपका जूता भी निशाने पर लग जाए तो आप भी अपनी जूतानुमा समाधि बना कर इस मृत्युलोक में सदा के लिए अमर हो सकते हैं। हिंदी के महान क्रांतिकारी कवि स्वर्गीय सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने दमित, दलित और शोषित जनता के लिए प्रतीक चुना था- कुकुरमुत्ता। परंतु दमित शोषित जन के विरोध का प्रतीक क्या हो इस पर शायद उन्होंने सोचा नहीं। इसके लिए ऐसे क्रांतिकारी प्रतीक चुनने का श्रेय जाता है महान जूतामार क्रांतिकारी मुंतजर अल जैदी को।

ये तो हुई साल भर पहले विश्व के राजनीतिक पटल पर जूते से मची हलचल की ख़बर। अब इस जूते ने फिर से कौन-सा नया गुल खिलाया है वो भी सुन लीजिए। अपने बुश साहब जो नाक पर मक्खी तक बैठने नहीं देते थे, जूते की मार से तिलमिलाए ज़रूर पर अपनी खीज को कूटनीतिक चालाकी से छिपा गए थे। अब जूता चलाना कोई ड्रोन चलाना थोड़े ही है कि आसमान से चोरी-छिपे हमला कर दिया। इसका प्रक्षेपण तो जनाब एक विशिष्ट कला है जो चलाते-चलाते ही आती है।  बुश साहब को यह ज़रूर पता था कि ईंट का जवाब पत्थर से देने की पुनीत परंपरा रही है पर कोई भरी महफिल में जूता दे मारे तो उसका जबाव आखिर किस चीज़ से दिया जाए इस बारे में अमरीका के घाघ कूटनीतिज्ञ भी एक-दूसरे की ओर ताक कर मौन रह गए।

आखिर एक साल के गहन अनुसंधान के बाद इसका जबाव पैरिस में खोज लिया गया है। जूते का जबाव जूते से- इसका उत्तर तो सरल है पर इसके पीछे बडा़ गहरा दर्शन छिपा हुआ है। जो पत्रकार महोदय एक वर्ष पूर्व बुश साहब से सवालों की बौछार करते करते अपना जूता ही जोर्ज साब की ओर उछाल बैठे थे आज वही जैदी साहब जब संवाददाता सम्मेलन में प्रश्नकर्ता की भूमिका को त्याग कर उत्तरदाता के रूप में शान से डेस्क पर विराजमान थे। तभी अचानक एक जूता उनकी ओर उछला और मान्यवर जैदी जी की खोपड़ी चाक होते होते बाल-बाल बची। यह तो वही बात हो गई कि कोई बंदूक के आविष्कर्ता की खोपड़ी में उसी के द्वारा आविष्कृत बंदूक की पहली गोली उतार दे।

शायद जैदी साहब से यह गलती हो गई कि इस आविष्कारी जूतामार फार्मूले को पेटेंट करवाने से वे चूक गए। अरे भई, किसी अमरीकी संस्था को कुछ दे-दिवा कर किसी प्रकार पेटेंट-शेटेंट करा लेते तो आज हर चलने वाले जूते पर कुछ रायल्टी बन जाती या नहीं? चाहे वो खुद को पड़नेवाला जूता ही क्यों ना हो। खैर, इस बात से रिटायर्ड बुश महोदय की जूते से छलनी आत्मा को ठंडक मिल गई होगी। डूबते व्यक्ति से भी प्रतिक्रिया लेने में माहिर हिंदुस्तानी मीडिया जैदी पर पड़े जूते पर बुश साहब की प्रतिक्रिया लेने में कैसे चूक गया यह शोध का विषय है। जो जूता लगभग साल भर पहले उनकी पूजा करने के लिए ब्रह्मास्त्र सा उनकी और बढ़ा था आज समय ने उसकी गति बूमेरां-सी निक्षेपकर्ता की ओर ही मोड़ दी।

एक जूतेमार के ऊपर ही जूते से प्रत्याक्रमण से हिंदी के कई मुहाबरों को चरितार्थ कर दिया। जैसी करनी वैसी भरनी, जैसा बोओगे वैसा काटोगे, ईश्वर के घर देर है अंधेर नहीं, जिसकी जूती उसीका सर आदि आदि। जिस जैदी ने शेर बनकर दुनिया के शहंशाह राष्ट्र के महामहिम की महिमा को नष्ट-भ्रष्ट करने की गुस्ताखी की थी आखिर उस शेर को आज एक सवा शेर मिल ही गया। स्थान बदल गया, लोग बदल गए पर इतिहास द्वारा खुद को दोहराने की प्रक्रिया में जिसे नहीं बदला वो था अमोघ शस्त्र जूता। जरनैल जी सावधान, अगला जूता...।

२१ दिसंबर २००९

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