संस्मरण

ये कैसा उत्सव रे भाई!!!
समीर लाल


कुछ साल पहले, भारत से कनाडा आते वक्त फ्रेंकफर्ट, जर्मनी में एक दिन के लिए रुक गया। सोचा, ज़रा शहर समझा जाए और बस, इसी उद्देश्य से वहाँ की सबवे(मेट्रो) का डे-पास ख़रीद कर रवाना हुए। जो भी स्टेशन आए, मैं और मेरी पत्नी उतरें, आस पास घूमें। वहाँ म्यूजियम या दर्शनीय स्थल देखें और लोगों से बात चीत करें, ट्रेन पकड़ें और आगे। यह एक अलग ढंग से घूम रहे थे तो मज़ा बहुत आ रहा था। जर्मन न आने की वजह से बस कुछ तकलीफ़ हो रही थी, मगर काम चल जा रहा था।

इसी कड़ी में एक स्टेशन पर उतरे। बाहर निकलते ही मन प्रसन्न हो गया। एकदम उत्सव का सा माहौल। स्त्री, पुरुष सभी नाच रहे थे रंग बिरंगी पोशाक में। ज़ोरों से मस्त संगीत बज रहा था। संगीत की तो भाषा होती नहीं वो तो अहसास करने वाले चीज़ है। इतना बेहतरीन संगीत कि खुद ब खुद आप थिरकने लगें।

खूब बीयर वगैरह पी जा रही थी। जगह जगह रंग बिरंगे गुब्बारे, झंडे और बैनर। क्या पता क्या लिखा था उन पर जर्मन में। शायद 'होली मुबारक' टाइप उनके त्यौहार का नाम हो। एक बात जिससे मैं बहुत प्रभावित हुआ कि महिलाएँ एक अलग समूह बना कर नाच रही थीं और पुरुष अलग। न रामलीला जैसे रस्से से बँधा अलग एरिया केवल महिलाओं के लिए और न कोई एनाऊन्समेन्ट कि माताओं, बहनों की अलग व्यवस्था बाईं ओर वाले हिस्से में है, कृपया कोई पुरुष वहाँ न जाए और न कोई रोकने टोकने वाला। बस, सब स्वतः।

सोचने लगा कि कितने सभ्य और सुसंस्कृत लोग हैं दुनिया के इस हिस्से में भी। महिलाओं के नाचने और उत्सव मनाने की अलग से व्यवस्था। इतनी बीयर चल रही है फिर भी मजाल कि कोई दूसरे पाले में चला जाए नाचते हुए। पत्नी महिलाओं की तरफ़ जा कर एक तरफ़ बैंच पर बैठ गई और हमने बीयर का गिलास उठाया और लगे पुरुष भीड़ के साथ झूम झूम कर नाचने। अम्मा बताती थी मैं बचपन में भी मोहल्ले की किसी भी बरात में जाकर नाच देता था। बड़े होकर नाचने का सिलसिला तो आज भी जारी है। वो ही शौक कुलांचे मार रहा होगा।

चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई नाचते नाचते तो देखा ढ़ेरों टीवी चैनल वाले, अखबार वाले अपना अपना बैनर कैमरा और संवाददाताओं के साथ इस उत्सव की कवरेज कर रहे थे। लगता है, जर्मनी के होली टाईप किसी उत्सव में आ गए हैं। टीवी वालों को देख उत्साह दुगना हो गया। कमर मटकाने की और झूमने की गति खुद-ब-खुद बढ़ गई। झनझना कर लगे नाचने। दो एक गिलास बीयर और सटक गए। वहीं बीयर स्टॉल के पास एक झंडा भी मिल गया जो बहुत लोग लिए थे। हमने भी उसे उठा लिया।

फिर तो क्या था, झंडा लेकर नाचे। इतनी भीड़ में अकेला भारतीय। प्रेस वाले नज़दीक चले आए। टीवी वालों ने पास से कवर किया। प्रेस वालों ने तो नाम भी पूछा और हमने भी असल बाद दबा कर बता दिया कि इसी उत्सव के लिए भारत से चले आ रहे हैं और सभी को शुभकामनाएँ दीं।
खूब फोटो खिंची। मज़ा ही आ गया। खूब रंग बरसाए गए, कइयों ने हमारे गाल पर गुलाबी, हरा रंग भी लगाया, गुब्बरे उडाए गए, फुव्वारे छोड़े गए और हम भीग-भीग कर नाचे। कुल मिला कर पूरी तल्लीनता से नाचे और उत्सव मनाए।

भीड़ बढ़ती जा रही थी मगर व्यवस्था में कोई गड़बड़ी नहीं। स्त्रियाँ अलग और पुरुष अलग। कभी गलती से नज़र टकरा भी जाए तो तुरंत नीचे। कितने ऊँचे संस्कार हैं। मन श्रद्धा से भर भर आए। पूरा सम्मान, स्त्री की नज़र में पुरुष का और पुरुष की नज़र में स्त्री का। एकदम धार्मिक माहौल। जैसे कोई धार्मिक उत्सव हो। शायद वही होगा।
थोड़ी ही देर में भीड़ अच्छी खासी हो गई। प्रेस, प्रशासन सब मुस्तैद। जबकि कोई ज़रूरत नहीं थी पुलिस की क्योंकि लोग तो यों ही इतने संस्कारी हैं, मगर फिर भी। अपने यहाँ तो छेड़े जाने की गारंटी रहती है, फिर भी पुलिस वाला ऐन मौके पर गुटका खाने निकल लेता है। मगर यहाँ एकदम मुस्तैद!!

धीरे-धीरे भीड़ ने जलूस की शक्ल ले ली। मगर महिलाएँ अलग, पुरुष अलग। वाह!!! निकल पड़ा मुँह से और सब निकल पड़े। पता चला कि अब यह जलूस शहर के सारे मुख्य मार्गों पर घूमेगा। जगह-जगह ड्रिंक्स और खाना सर्व होगा। मज़ा ही आ जाएगा। हम भी इसी बहाने नाचते गाते शहर घूम लेंगे। खाना पीना बोनस और प्रेस कवरेज के क्या कहने। पूरे विश्व में दिखाए जाएँगे।

कई नए लोग जुड़ गए। नए-नए बैनर झंडे निकल आए। अबकी अंग्रेज़ी वाले भी लग लिए। हम भी एक वही पुराना वाला जर्मन झंडा उठाए थे तो सोचा किसी अंग्रेज़ी से बदल लें। इसलिए पहुँच लिए झंडा बँटने वाली जगह। अंग्रेज़ी झंडा मिल गया। लेकर लगे नाचने। फिर सोचा कि पढ लें तो कम से कम कोई प्रेस वाला पूछे तो बता तो पाएँगे।

पढ़ा!!!!!!!!!!!!!!
अब तो काटो तो खून नहीं। तुरंत मुँह छिपा कर भागे। पत्नी को साथ लिया और ट्रेन से वापस एअरपोर्ट। मगर अब क्या होना था टीवी और अखबार ने तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कवर कर ही लिया। दरअसल, अंग्रज़ी के जो बैनर और झंडे पढ़े तो पता चला कि अंतर्राष्ट्रीय समलैंगिक महोत्सव मनाया जा रहा था जिसे वो रेनबो परेड कहते हैं और वो झंडा हमारे हाथ में था, कह रहा था कि मुझे समलैंगिक होने का गर्व है। क्या बताए, कैसा कैसा लगने लगा।

कनाडा के जहाज़ में बैठ कर बस ईश्वर से यही प्रार्थना करते रहे कि कोई पहचान वाला इस कवरेज को न देखे या पढ़े।
सोचिये, ऐसा भी होता है कि सी. एन. एन. और बी. बी. सी. टाइप चैनल आपको कवर करे और आप मनाएँ कि कोई पहचान वाला आपको देखे न। जबकि ज़रा-सा अखबार में नाम आ जाए या टीवी पर दर्शक दीर्घा में भी हों तो एक पोस्ट लिख कर, ईमेल करके, फोन पर सब पहचान वालों को लिंक, स्कैन कॉपी और प्रोग्राम टाइम बताते नहीं थकते।

सब मौके मौके की बात है। टीवी पर तो तुम बम धमाके करके भी आ सकते हो मगर चाहोगे क्या कि कोई अपना तुम्हें देखे। वैसे अब सोचता हूँ तो लगता है कि इस परेड का अर्थ क्या है? जलूस निकालने और नाचने जैसी आखिर बात क्या है? किस बात की प्रदर्शनी कर रहे हो, क्या बताना चाहते हो?

एक साधारण स्त्री पुरुष तो झंडा उठा-उठा कर नाच-नाच कर यह नहीं बताते कि हम प्रकृति द्वारा निर्धारित आम प्रवृति के लोग हैं फिर तुम ही क्यों यह सब करते हो पूरे विश्व में??
कहीं कुछ कुंठा या हीन भावना तो नहीं?
बताओ न!!!

नोट: इस तरह के संबंधों के प्रति श्रद्धा रखने वालों की यह कतई खिलाफत न समझी जाए। बस, अपने मन के भाव कहे हैं। अतः वह आहत न हों।

१ दिसंबर २००८