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हास्य व्यंग्य

पानी बचाओ आंदोलन
-वीरेंद्र जैन


''पानी बचाओ'' आन्दोलन चलाने के दिन आ गए हैं। प्रतिवर्ष जब सूरज सिर पर चिलकने लगता है तो हम बाथरूम में नहाते हुए ''पानी बचाओ'' पर लिखने के बारे में सोच-सोच कर लोटा दर लोटा डालते रहते हैं।

पहला विचार तो यही आता है कि टीवी पर दिखाया जाने वाला सरकारी विज्ञापन, जिसमें घर में शौचालय बनवाने को प्रेरित किया जाता है तुरंत बन्द कर देना चाहिए। जब घर में शौचालय होता है तो पानी पर पानी बर्बाद होता है। घर में शौचालय न होने पर एक लोटे से ही काम चल जाता है जबकि घर में शौचालय होने पर प्रति व्यक्ति कम से कम दो-दो बाल्टी पानी बहाया जाता है। मुझे लगता है कि किए कराए पर पानी फेरने का मुहावरा घरों में फ्लश शौचालय बनने के बाद ही अस्तित्व में आया होगा। बाहरगाँव शौच जाने वाला बार-बार शौचालय जाने से बचता है जबकि घर में शौचालय हो तो आदमी खाली बैठे-बैठे बोर हो जाने पर शौचालय ही चला जाता है। क्या करें करने को कुछ नहीं है सो चलो फ्रेश ही हो लें। फिर जाके रिलायंस फ्रेश से टायलेट क्लीनर खरीद लाएँगें।

कई प्रदेश की सरकारों ने उन पंचों सरपंचों के चुनाव अवैध घोषित करने का फैसला लिया है जिन्होंने घरों में शौचालय नहीं बनवाए हैं। सरकार को शिकायत मिली होगी कि सरपंच के पास जब कोई गाँव का व्यक्ति किसी काम से आता होगा तो सरपंच की पत्नी घूंघट में दो उँगलियों से विक्टरी का चिन्ह बनाते हुए कह देती होगी कि सरपंच जी तो दिशा निस्तार के लिए गए हैं। इस बहाने को टालने के लिए सरकार ने सोचा होगा कि जब सरपंच के घर में ही शौचालय होगा तो फिर बहाना कैसे बनाएँगे! पंचायत के कामों की दुष्टि से यह फ़ैसला भले ही ठीक हो पर पानी की दृष्टि से ठीक नहीं हैं। जब से सरपंचों के घरों में शौचालय बनने लगे हैं तब से जो कोई सरपंच को तलाशने आता है तो उसकी पत्नी कह देती है कि वे तो नदी या कुएँ( जो भी दूर हो) से पानी भरने गए हैं। सरकार ने घर में शौचालय बनवा दिया है इसलिए वे सारे दिन उसके लिए पानी ही भरते रहते हैं। जब कोई बाहर शौच के लिए जाता है तो वहीं से नहा धोकर भी आता है पर घर में शौचालय होने से स्नान भी घर में ही करना पड़ता है, कपड़े भी घर में धोने पड़ते हैं। तालाब में नहाने पर तालाब का पानी नहीं घटता और सैकड़ों मनुष्य तथा हज़ारो पशु अपना मैल मछलियों को अर्पित कर देते हैं जिससे वे बड़ी हाने पर मनुष्य का भोजन बन सकें। तालाब बनाने का पहला विचार भी वियोगी के पहले कवि होने की तरह घर से बाहर शौच जाने वाले किसी महापुरुष के मन में आया होगा। उस दिव्य आत्मा की कृपा से आज ये तालाब पानी के भंडार भरे रखते हैं।

पानी बचाने के लिए हमें और कुछ गुरू, बाबा इत्यादि पैदा करने होंगे जो आयुर्वेदिक दवाओं की बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियाँ चलाएँगे व भगवा चोला ओढ कर मजदूरों को स्वयं सेवक बता कर उनके वेतन का हिस्सा पचाएँगे। आयुर्वेदवाले तेल मिर्च से परहेज़ बताते हैं। सभी जानते हैं कि तेल मिर्च खाने के बाद प्यास बहुत लगती है और आदमी घड़े के घड़े खाली करता जाता है। जब तेल मिर्च का प्रयोग नहीं होगा तो पानी भी कम लगेगा।

सरकार को चाहिए कि वह कुकरों पर गैस से भी अधिक अनुदान देने लगे ताकि लोग कुकरों में ही खाना पकायें क्यों कि कुकरों में पकाए दाल चावल सब्ज़ी आदि में पानी कम खर्च होता है तथा ऊर्जा की बचत अलग से होती है।

साहित्यकारों को चाहिए कि वे अपनी रचनाओं में ऐसे मुहावरों का प्रयोग कम से कम करें जिनमें पानी की बर्बादी बताई गई हों, जैसे पानी पी-पी कर कोसना, भिगो-भिगो कर मारना, पानी तक को न पूछना, पानीदार होना, पानी से पतला क्या, आदि। इनके बदले 'पानी गए न ऊबरे...' जैसी पानी को बचा कर रखने की प्रेरणा देने वाली लोकोक्तियों का प्रयोग अधिक करना चाहिए।

देश का बहुत सारा पानी दूध में मिलाने में खर्च हो जाता है इसलिए सेनेटरी इंस्पैक्टरों द्वारा ऐसी मिलावट न रोक पाने की दशा में उनका हुक्का पानी बन्द कर देना चाहिए।

हमारे नेताओं ने गाँव-गाँव पानी पहुँचाने का का वादा किया था जिसे उन्होंने अपने प्रिय प्राइवेट सेक्टर की मदद से पूरा कराया है इस बात का भरपूर प्रचार होना चाहिए बहुत सारे लोग नहीं जानते कि सरकार की कृपा से आज गाँव गाँव में जो मिनरल वाटर के नाम पर पानी बिक रहा है उसमें हमारी सरकारों का बहुत योगदान है। इनकी कीमतें तो इसलिए रखी गई हें ताकि लोग पानी का मोल पहचानना सीख जाएँ व सरकार को यह बात विज्ञापन देकर न बतानी पड़े। सरकारी विज्ञापन एजेंसियों को वैसे भी बहुत सारी उपलब्धियाँ जनता को बतानी है क्यों कि इस मूर्ख जनता को पता ही नहीं है कि सरकार ने उसके लिए कितना काम किया है।

लालू जी की रेल में आरक्षित डिब्बे समाप्त करके भी पानी की बहुत बचत की जा सकती है। आरक्षित डिब्बे वाले बार-बार प्रत्येक स्टेशन पर उतर-उतर कर पानी की बोतलें भरते रहते हैं जबकि जनरल डिब्बों में सफ़र करने वाले जिस मुसीबत से डिब्बे में घुस पाते हैं तो फिर क्या मजाल कि वे अपनी सीट से हिलने की जुर्रत भी कर सकें। पानी तो छोड़िए कई बार तो वे अपने गंतव्य स्टेशन पर भी नहीं उतर पाते। रेल के जनरल डिब्बे की सवारियाँ तो वैसे भी पानी बचाने के मामले में सचेष्ट वर्ग में आती हैं। अगर आपको विश्वास न हो तो आप रेल के शौचालयों का निरीक्षण करके देख सकते हैं कि ये लोग कितना पानी बचाते हैं। ऐसे लोगों को सम्मानित किया जाना चाहिए।

बड़ी-बड़ी फीस लेने वाले व साम्राज्यवादी भाषा में शिक्षा देने वाले स्कूल अच्छी शिक्षा तो देने की बड़ी बड़ी घोषणाएँ करते हैं किंतु अच्छा पानी देने का कोई वादा न करके देश का बहुत सारा पानी बचाते हैं। यही कारण है कि इन स्कूलों में पढ़ने वाला प्रत्येक नौनिहाल अपनी पानी की बोतल टाँग कर अंग्रेज़ी स्कूल में अपने घर के पानी को वाटर की तरह पीता है। हमारे यहाँ तो नगर निगम के जलापूर्ति विभाग के कर्मचारी तक अपना पानी घर से साथ लाते हैं क्यों कि नगर निगम के पानी के बारे में उनसे ज़्यादा और कौन जानता है!

मैं लोटे पर लोटा डालते हुए कुछ और चिंतन करता पर नल में से पानी आना बन्द हो चुका था क्यों कि ऊपर की टंकी खाली हो चुकी थी। बदन पोंछते-पोंछते एक विचार यह भी आया कि पानी बचाने का एक उपाय यह भी हो सकता हैं कि पानी बचाने के बारे में नहाते समय न सोचा जाए।

२१ अप्रैल २००८

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