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हास्य व्यंग्य

पुलिसियाने में क्या हर्ज. है? 
—अतुल चतुर्वेदी  


मेरे पिताजी का सपना था कि मैं पढ़ लिख कर पुलिस की नौकरी करूँगा। यद्यपि पुलिस की नौकरी के लिए किसी विशेष अतिरिक्त योग्यता की ज़रूरत नहीं होती और जिस योग्यता की ज़रूरत होती है दौड़–कूद‚ सीना‚ पुल–अप वह अपन में नहीं। इसलिए अपने बापू के अरमान आँसुओं में बह गए। हमारे पिताजी मुफ़्त की सब्जियाँ‚ हफ़्ते की कमाई‚ जुगाड़ के पास से सर्कस देखने का लुत्फ़ नहीं उठा पाए। मेरा बेटा मोटर साइकिल पर 'पुलिस' लिखाकर नगर की कन्याओं के दिव्य दर्शन को निर्भय भाव से नहीं निकल पाया। मुझे बेहद अफ़सोस है कि मैं एक मध्यमवर्गीय पिता के अत्यंत, औसत स्वप्न की पूर्ति न कर पाया। यद्यपि इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ऐसे मलाईदार विभागों में नियुक्ति पूर्व जन्म के पुण्यों से ही प्राप्त होती है।

लगता है उस जन्म में भी अपना ट्रेक रिकॉर्ड ऐसा ही ख़राब रहा होगा परंतु पुलिस के प्रति एक विशेष श्रद्धा मिश्रित कौतूहल भाव मेरे मन में सदा बना रहा। यह भाव उन भावों के अतिरिक्त था जो एक सभ्य भारतीय नागरिक के मन में पुलिस की वर्दी देख उभरते है जैसे – भय‚ विस्मय‚ शोक‚ हास‚ जुगुप्सा‚ घृणा इत्यादि। पुलिस‚ सदैव मेरे अनुसंधान का विषय रही। मेरे मित्रों ने मेरी इस प्रवृत्ति को पहचान मुझे क्राइम रिपोर्टर बनने तक की सलाह दे डाली। लेकिन में साहस न जुटा सका। क्यों कि न तो अपना रोबदार दाढ़ी वाला चेहरा था‚ न नाटकीय संवाद शैली और न ख़तरे उठाने का दम। मुझको यह भी पता था कि पुलिस और मीडिया का संबंध अत्यंत संवेदनशील है। आप इसे भूत पीपली का संबंध भी कह सकते हैं।

यों भारतीय पुलिस के विषय में इतनी रोचक सूचनाएँ आए दिन प्राप्त होती रहती हैं कि किसी और मनोरंजन की आवश्यकता ही नहीं है। पुलिस को मानवीय और सभ्य बनाने की कोशिशें लगातार जारी हैं। लेकिन अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर वाला प्रभाव‚ छूटे तब ना। पुलिस के विषय में जो तथ्य सबसे ज़्यादा मुझे प्रभावित करता है वह है उसका अखिल भारतीय चरित्र। सर्वत्र एक-सा आचरण। कर्म के प्रति एकतानता। एक-सी निष्पक्षता। एक-सी निस्संग दृष्टि। याचक और पातक के प्रति समभाव। गीता के सच्चे अनुशीलक यही है। गांधी के दर्शन को हृदयंगम कर चलने वाले सर्वोदयी भी। सबका उदय हो‚ चौमुखी उदय। घर–परिवार‚ काया‚ अधिकारी‚ अपराधी‚ अपराध का सर्वतोमुखी उदय। इसमें ही कल्याण का भाव निहित है भोले नागरिक बंधुओ!

पुलिस के विषय में हमें अपनी मध्ययुगीन मानसिकता भी बदलनी होगी। हमारे पुलिस जन को भी अपनी‚ थुलथुल काया‚ रोबदार चेहरा‚ घनी मूँछों से छुटकारा पाना होगा। फिल्मों का इस क्षेत्र में योगदान सराहनीय है। उन्होंने पुलिस जन के कई संस्करण भारतीय जनता के सम्मुख रखे हैं। हास्यास्पद से लेकर चाकलेटी तक और खलनायक से लेकर ठेठ लंपट प्रेमी तक। चयन आपका अधिकार है।

यों पुलिस और श्लोक वाचन परंपरा का संबंध वेदकालीन दिखता है। ये श्रुति परंपरा के लोग ठहरे। वाचिक परंपरा ही हमें एकवचन‚ बहुवचन से लेकर‚ दुर्वचन और निर्वचन तक ले जाती है। क्रोध की माया ही ऐसी मतमंद होती है वत्स! एक दिवस हमने पार्क में एक पुलिस वाले को अपनी मंगेतर से नम्र निवेदन करते हुए सुना– 'ए. . . इधर आय ससुरी। वहन का कूं कूं. . .कर रही है' श्रृंगार का ऐसा सघन? रूप देख मन रोमांचित हो उठा। लगता है शिशुपाल इनके पूर्वज रहे होंगे। उन्होंने सौ गालियाँ तक का विश्व रिकॉर्ड बनाया था। इनका पता नहीं, क्यों कि अब इन्हें भला किसके चक्र से भय है? अब तो सुदर्शन से लेकर गदा तक इनके हाथ हैं और दुर्योधन से लेकर दु:शासन इनके साथ हैं। भला हुआ कृष्ण का जो द्वापर में ही हो गए वरना कलियुग में तो न जाने कितनी धाराओं में उलझते–फिरते।

भ्रष्टाचार को लेकर पुलिस पर बहुत आरोप लगते रहते हैं। मैंने एक उच्च पुलिस अधिकारी से पूछा तो वे बोले –'कौन-सा विभाग बचा है साहब! इनकमटैक्स वाले के यहाँ करोड़ों रूपए पकड़ें जाएँ और कस्टम अधिकारी के यहाँ किलो में सोना मिले परंतु एक कांस्टेबल की जेब से पचास रूपल्ली मिलने पर हल्ला।'
मैंने कहा–'कानून और अधिकार की रक्षा फिर कौन करेगा?'
वे बोले –'भ्रष्टाचार प्रत्येक सरकारी कर्मचारी का नैतिक अधिकार है‚' सर टामस रो तक जहाँगीर से तिजारत का पट्टा तब ही हासिल कर पाया था. . .और फिर तुम तो प्रश्न पूछने के पैसे लो‚ जन कल्याण की आड़ में आत्म कल्याण करो और हम समाज की कालिमा को मिटाने का मेहनताना भी न लें। मैं भी एक कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी रहा हूँ, मैं जानता हूँ कि हत्या का सबूत मिटाना‚ गवाहों को तोड़ना‚ पोस्टमार्टम रिपोर्ट बदलने जैसे काम सहज नहीं हैं। इसके लिए एक विशेष किस्म के साहस की आवश्यकता होती है और वह साहस वर्दी धारण करने के उपरांत ही आता है‚ वस्तुत: वर्दी का नशा ही कुछ ऐसा होता है कि वर्दी वाला आदमी कब वर्दी वाला गुंडा बन जाता है पता ही नहीं चलता। 'मैं अधिकारी जी का महान प्रवचन सुन अवाक रह गया। मानवाधिकार का ब्रह्म राक्षस भी पुलिस विभाग का पीछा नहीं छोड़ता है। एक थानेदार मित्र ने मुझसे गंभीर होते हुए कहा–  'यार कहीं इस विचार के जनक का पता मिलें तो बताना‚ स्साले को ऐसा फिट करूँगा कि सब भूल जाएगा। अधिकारों की देखरेख हमारी ज़िम्मेदारी है या जनता की।'

तभी एक मंत्री महोदय की गाड़ी आकर रुकी। थानेदार साहब ने सलाम ठोंका और उनके चमचों से गल–बहैया कर बतियाने लगे। मैंने फिर पूछा– 'सर‚ तो– मानवाधिकार?' 'हाँ–हाँ क्यों नहीं हमारे थानो में सुझाव पेटिका लगी है‚ हम उस पर लिखवाने वाले है–  'निंदक नियरे राखिए'‚ आप कभी पधारें। हमारे स्वागत कक्ष सदैव ऐसे मौलिक सुझावकों की प्रतीक्षा में रिक्त पड़े रहते हैं।' मैं घिघियाया। वे कुटिल मुस्कान फैंक आगे निकल गए।

यों बिहार‚ उतर प्रदेश‚ राजस्थान‚ हरियाणा की पुलिस की अंतर्राष्ट्रीय ख़्याति है। इन राज्यों के पुलिसकर्मियों का मनोबल कुछ ज़्यादा ऊँचा है। बात करते–करते हाथ छोड़ देना और हाथ लगाते–लगाते किया कर्म कर डालना इनके बाएँ हाथ का काम है। गुड़गाँव हो या मेरठ‚ जयपुर हो या दिल्ली पुलिस का एक्शन एक थ्रिलर फिल्म-सा आनंद देता है।

स्त्रियों के विषय में सामंती संस्कार भला कहाँ छूट पाए हैं 'जेहि की बिटिया सुंदर देखी तेहि पर जाय धरे हथियार' वाला अंदाज़ बरकरार है। इन सब ख़बरों को पढ़कर मैं पुलिस के प्रति अपार भक्ति एवं श्रद्धा भाव से भर जाता हूँ। वर्दी देखकर मेरी घिग्गी बन जाती है और डंडा देख काँपने लगता हूँ। क्या करूँ पुलिस के प्रति व्यवहार का यहीं संस्कार मुझे विरासत में मिला है। सोचता हूँ माँ–बाप भी अपने बच्चों को लेकर कितनी खुशफहमी के संसार में जीते हैं। मैं जो कभी अपने बच्चों को ढंग से गाली नहीं दे पाया‚ व्यवस्था को गाली नहीं दे पाया वह भला पुलिस मैं क्या ख़ाक भर्ती होता? क्यों कि न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता के बिना कैसे काम चलता? आप पुलिसयाने की सोच रहें है क्या? हाँ हाँ तो गरियाना चालू कर दें। ठीक बिल्कुल ठीक. . .पहले घर से ही शुरू करें। माँ–बाप से शुरू करें तो और भी अच्छा।

24 जनवरी 2006

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