हिंदी दिवस पर बहुत सारे नारे लगते हैं। और अगर कहा
जाए कि हिंदी–दिवस है ही नारों का दिवस तो ये बात आपको वैसे ही हजम होगी जैसे यह कि
चुनाव–दिवस है ही नारों का दिवस। चुनाव और हिंदी, दोनों बहने ही तो हैं – – दोनों
में राजनीति होती है, दोनों में जो नहीं हो सकता उसका आश्वासन दिया जाता है तथा
दोनों में हाथी दाँतिया इस्टाईल में आंदोलन होते हैं। इसलिए इस हिंदी–दिवस पर मैंने
भी नारा लगा दिया, "हिंदी माथे की बिंदी।" वैसे यह नारा मेरा नहीं है, बरसों से हर
बरस इस नारे को लगाकर प्रसन्नता इस अंदाज़ में व्यक्त की जाती है जैसे बरसों की
प्रतीक्षा के बाद लड़कियों वाले घर में लड़का पैदा हुआ हो।
वे बोले, "सारे माथों पर तो अंग्रेज़ी लगी है, ये बिंदी किस पर लगाओगे?" यह कहकर
उन्होंने अपना माथा छिपा लिया। वे आदरणीय है। मैंने ध्यान से देखा, उनके चेहरे पर
सबकुछ था, माथा नहीं था। जीवन में जो आदरणीय जन इस तरह की चुनौतियाँ देते हैं,
अक्सर उनके माथे ग़ायब ही होते हैं। मैं हिंदी की बिंदी के लिए माथा ढूँढने निकल
पड़ा।
वे मुझे बीच रास्ते में ही मिल गए। इस देश के निर्माताओं को वे हिंदी पढ़ाते हैं,
इसलिए परम आदरणीय हैं। हिंदी की खाते हैं, हिंदी की ही पीते हैं। हिंदी के बारे में
उनके विचार बड़े पवित्र और नेक है। उनका सत्य वचन हैं, हिंदी भी कोई पढ़ने पढ़ाने की
'वस्तु' है। वो अत्यधिक धार्मिक स्वर में अकसर कहते हुए पाए जाते हैं – हिंदी तो गऊ
माता है जिसका दूध निकालने के बाद उसे गंदगी में मुँह मारने के लिए छोड़ दिया जाता
है, फिर मज़े से आदमी उसका चारा खाता है।"
मैं जब उनसे मिला तो वे चारा खाने का सत्कर्म ही कर
रहे थे। कृष्ण की तरह उनके चेहरे पर चारा लिपटा हुआ था और वो गा रहे थे, "मैया मोरी
मैं नहीं माखन खायों!" उनके सुर में सुर मिलकर उनकी पत्नी भी गा रही थी, "ओ ससुरी
मैया, ये नहीं माखन खायो" और मैया बेचारी कहीं कोठरी में पड़ी दिन गिन रही थी।
मैंने पूछा, "आपके बिंदी लगाऊँ?"
वे बोले, "बाबा माफ़ करो, आगे जाओ। यू नो डौली डॉटर का पब्लिक स्कूल में एडमिशन
कराना है, ट्वेंटी थाउजेंड का डोनेशन चढ़ाना है। यू नो कि कितना कंपीटीशन हो गवा है,
ससुर सी.एम. की एप्रोच तक नहीं चलती है। तुम्हारे पास माल पानी है तो लाओ, फिर चाहे
शरीर में जितनी चाहे बिंदियाँ लगाओ।"
मैंने कहा, "हे हिंदी ज्ञानदाता! हे भारत भविष्य विधाता! बिंदी चाहे मत लगाओ हिंदी
तो शुद्ध बोलो, राजनीति में तो भ्रष्टाचार का मिश्रण करते हो, इसमें तो अंग्रेज़ी
मत मिलाओ। शुद्ध हिंदी बोलो बाबा, शुद्ध हिंदी।"
"तुम शुद्ध हिंदी की बात करते हो, यहाँ तेल से लेकर राजनीतिक खेल तक सब अशुद्ध है।"
यह कहकर वे अपने पब्लिक स्कूली माथे के साथ आगे बढ़ गए।
मैं अपनी कुँवारी बिंदी के साथ और आगे बढ़ा। आजकल
जिसे राजनीति में आगे बढ़ना हो वह दिल्ली आता है और जिसे फ़िल्म में आगे बढ़ना हो वह
बंबई जाता है। जिसे साहित्य में आगे बढ़ना हो पहले वह प्रयाग जाता था आजकल दिल्ली ही
आता है, क्यों कि वह चाहे देश की राजनीति हो या साहित्य की, यहीं फल फूल रही है।
फ़िल्म–क्षेत्र में आगे बढ़ा हुआ वही माना जाता है जो करोड़ों कमाता है। मुझे हिंदी
की बिंदी के साथ आगे बढ़ना था, सुंदर माथा तलाशना था, इसलिए मैं भी मुंबई पहुँचा।
वह टॉप की हिरोईन है, पर उसके जिस्म से टॉप अक्सर
ग़ायब रहता है। अपने टॉपलेस सौंदर्य की बदौलत उसने हिंदी फ़िल्मों से करोड़ों कमाए
हैं।
मैंने कहा, "हिरोईन जी, बिंदी लगाऊँ?" वह अंग्रेज़ी में हकलाई, ' बिंदी लगाकर मुझे
मरवाओगे, मेरी मार्किट वेल्यू गिराओगे। इसे लगाकर इंडियन वूमेन लगूँगी, अपने जिस्म
की नुमाईश कैसे करूँगी? हिंडी हमारी भा. . . भा. . . , लेंग्वेज है। हिंदी गाना
बजाना अच्छा लगता है। हिंदी में लव करना अच्छा लगता है। पर हिंडी की बिंदी लगाने से
फ़िल्म स्टार गँवार लगता है।"
"पर आप तो हिंदी फ़िल्मों में काम करती है, यही आपकी रोज़ी–रोटी है। हिंदी फ़िल्मों
के कारण ही आपका भविष्य सुरक्षित है। ऐसा कहना आपको शोभा नहीं देता।"
"यह टुम कैसी डिफिकल्ट हिंडी बोलता है, मैन! ये वाला हिंदी हमको समझ नहीं आता, थोड़ा
सिंपल हिंदी बोलों नं। अभी हम शूटिंग को जाता" यह कहकर वह चल दी खंडाला।
सच कहा मेरे देश की हिरोईन, मेरे देश की लाखों
युवकों की आदर्श और करोड़ों दिलों की धड़कन ने। साला इस देश में कोई सरल हिंदी बोलता
ही नहीं है। सरल तो केवल अंग्रेज़ बोली जाती है। और अंग्रेज़ जितनी डिफिकल्ट होती
है उतनी ही खूबसूरत होती है, आदमी उतना ही पढ़ा लिखा भी लगता है। शुद्ध हिंदी तो
पोंगा पंडित बोलते हैं। साले तिलकधारी, धोतीप्रसाद, इन लोगों ने हिंदी को जितना
पिछड़ा बना दिया है उससे इनके लिए गालियाँ ही निकलती हैं। इन हिंदी वालों के कारण ही
तो देश प्रगति नहीं कर रहा है। फाईव स्टार होटल का बेयरा तक हिंदी में बात करना
पसंद नहीं करता है। हिंदी बोलते समय आदमी कितना अनपढ़ लगता है। पब्लिक स्कूल के
दसवीं फेल बच्चे की अंग्रेज़ देख लीजिए और इन एम.ए., पी-एच.डी हिंदी वालों की
अंग्रेज़ देख लीजिए – – ऐसे हकलाते है कि. . . बस अपने को तो शरम ही आ जाती है।
राधेलाल मेरा पड़ोसी है। हर समय उसके दिल में देश
सेवा के ऊँचे विचार आते हैं इसलिए देश चाहे कितना ग़रीबी की रेखा के नीचे जाए हमारे
राधेलाल जी मेवा ही खाते हैं। वह पचास बरसों से मेवा खा रहा है और जब चाहता है
जिसके, उसी के गुण गाता है। वह जितने गुण गाता है उतना गुणा पाता है। सही मायनों
में तो देश उसी के लिए स्वतंत्र हुआ है। उसके पास हर तरह की आज़ादी है, अनेक लोगों
की आज़ादी तो उसके पास गिरवी पड़ी है। उसका माथा बहुत चौड़ा है, उस पर तरह-तरह की
बिंदिया लगी हुई है।
मैंने राधेलाल से कहा, ''यार तू तो लगा ले हिंदी की
बिंदी।"
"लगा लूँगा, पर मिलेगा क्या?"
मैंने कहा, "हिंदी को इज़्ज़त मिलेगी।"
"अभी हिंदी बेइज़्ज़त हो रही है क्या! वैसे खाली पीली इज़्ज़त से होता भी क्या है।
कुछ माल पानी बने तो अप्पन इस बिंदी को कहीं भी लगाने को तैयार है। कुछ मिलता है उस
हिंदी की बिंदी से या फोकट में हमारे जिसम में इसकी पबलिसिटी करना चाहता है।"
"अरे प्यारे सरकार में पव्वा फिट हो तो सबकुछ मिल जाता है। हिंदी की उन्नति के लिए
विदेश जाओ, विश्व हिंदी सम्मेलन करवाओ, हिंदी की पालिटिक्स करो और मंत्री बन जाओ।"
राधेलाल चिंतन की मुद्रा में आ गया, बोला, "यार मुझे पता नहीं था कि हिंदी इत्ते
काम की चीज़ है। मैं तो समझता था कि यह हमारी बूढ़ी अम्मा की तरह है जो पड़ी-पड़ी अपनी
सेवा करवाती रहती है, खाली पीली दिमाग़ खाती है। तेरे आइडिया से तो हिंदी की एक
बढ़िया-सी दुकान खोली जा सकती है। चल लगा दे बिंदी मेरे माथे पर और एक हिंदी सम्मेलन
की तैयारी कर डाल। आजकल तो अपनी ही सरकार है। (वैसे सरकार कोई भी हो वो राधेलाल
जैसों की अपनी ही होती है।) पी.एम., को मैं पकड़ लाऊँगा। ग्रांट–व्रांट की चिंता मत
कर। बीस एक लाख तो मैं झटक ही लूँगा।"
बीस लाख की बात सुनकर हम दोनों के दिल में हिंदी
प्रेम के भाव आए जैसे चुनाव देख किसी नेता के दिल में झोपड़पट्टी के लिए प्यार जाग
जाए। चुनाव का मौसम भारतीय राजनीति में बड़ा हिट मौसम है। प्रजातंत्र की फसल इसी
मौसम में लहलहाती है, देश में प्रजातंत्र ज़िंदा है इसकी शुभ सूचना मिल जाती है।
सम्मेलन से दो दिन पहले राधेलाल मिला। बहुत चिंतित लगा, लगा जैसे इसके पिताश्री
अपना बीमा कराए बिना ही मर गए हैं या फिर इसने अपनी लड़की की शादी करनी है। हमारे
यहाँ लड़की की शादी करना पिता के मरने जैसा दुख उठाना ही है। पिता के मरने से सर से
साया उठता है, लड़की की शादी में घर का सब कुछ उठ जाता है।
मैंने पूछा, "बहुत दुखी दिख रहे हो, क्या हिंदी के रास्ते में अंग्रेज़ आ गई है?"
"हमारी बला से अंग्रेज़ आए, वंगरेज़ी आए, रंगरेज़ी आए, और हिंदी जाए भाड़ में। हमारी
परेसानी जे नहीं है।"
"फिर क्या पी.एम., सी.एम.एम. ने सम्मेलन में आने से मना कर दिया। या फिर अपनी सरकार
पर संकट के बादल आए हैं " (जबसे साझा सरकारों का मौसम आया है, राजनीतिक मानसून अधिक
सक्रिय हो गया है। जब देखो संकट के बादल मंडराते ही रहते हैं। ये बादल जब बरसते हैं
तो इसकी बाढ़ में अनेक सरकारें बह जाती हैं।)
"अरे बबुआ, पी.एम. हमारे फंक्शन में आने से मना कर देंगे तो पी.एम. बने रहेंगे
क्या? समर्थन वापस न ले लेंगे।"
"फिर ग्रांट नहीं मिल रही है क्या?"
"ग्रांटवा तो डबल मिल रही है, संस्कृति मंत्री को भी पी.एम. के साथ बिठा रहे हैं।
पर कुछ घुसपैठिए हमारा मंच हथियाना चाहते हैं। पेड़ हमने लगाया और अब उसपर फल लगने
लगे तो. . . अगर किसी ने ऐसा किया तो हिंदी शिंदी गई कडुवा तेल लेने हम सबकी खटिया
उलट देवेंगे। इस बार ससुर टिकट हमको मिलना चाहिए। हिंदी के लिए हमने अपना खून बहाया
है, किसी ने टाँग अड़ाई तो ससुर की सुपारी दे देंगे।"
मैं समझ गया, वे हिंदी की बिंदी को सीढ़ी बनाना चाह रहे थे।
मित्रों मैं इस हिंदी दिवस पर किसी सुहागन माथे की
तलाश में रहा जिसपर हिंदी की महिमा मंडित हो सके पर निराश ही रहा। आपको कोई सुहागन
माथा मिले तो बताना, नं नं नं. . . अपना माथा तलाश करने का कृप्या कष्ट न करें इससे
आपकी आत्मा को कष्ट होगा। मेरी आत्मा को तो बहुत हो चुका है।
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