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विज्ञान वार्ता

गरमा-गरम चाय की प्याली: आप के
स्वास्थ्य के नाम

डॉ गुरुदयाल प्रदीप

जी हाँ, गरमा-गरम चाय की एक प्याली वह भी आज कल सर्दियों के मौसम में... क्या कहना! वह भी अपने मन-भावन स्वाद एवं गंध वाली हो तो सोने में सुहागा समझिए और कहीं उसे बना कर पिलाने वाली या वाला प्यार की चाशनी घोलने वाला या वाली हो तो फिर बात ही क्या है! सर्दी दूर, तन-मन की थकान छूमंतर, बोरियत ख़त्म... चुस्ती-फुर्ती से भर कर आप फिर से काम पर चल दीजिए। सर्दियों में ही क्यों? यह तो शाश्वत पेय है, साल के बारहों महीने कभी भी पीजिए, उसका मज़ा एक जैसा रहता है। मज़े की छोड़िए, चाय का हमारे स्वास्थ्य के विभिन्न पहलुओं पर भी तात्कालिक एवं दूरगामी प्रभाव पड़ता है, वह भी अधिकतर अच्छे रूप में। यह हम नहीं, वैज्ञानिक शोध कहते हैं। यही कारण है कि विज्ञान वार्ता के इस अंक में चाय पर चर्चा की जा रही है। आख़िर, जब सवाल आप के स्वास्थ्य का हो तो हम पीछे कैसे रह सकते हैं? स्वास्थ्य तो विज्ञान का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।

संभवत: लगभग ४७०० साल पूर्व के कैमेलिया साइनेंसिस नामक पौधे से बनाए गए काढ़े को लोकप्रिय
बनाने के लिए इस की खोज को दंत कथाओं में वर्णित सम्राट शेन्नांग से जोड़ा गया। इस कथा के अनुसार सम्राट शेन्नांग जब पानी उबाल रहा था तो इस पौधे की कुछ पत्तियाँ अचानक उस पानी में गिर पड़ीं और चाय का काढा तैयार हो गया। बाद में उसी के मुँह से यह कहलवाया गया कि चाय में आलस्य दूर करने से ले कर फुडिया-फुंसी, टयूमर, युरिनरी ब्लैडर आदि से संबंधित बीमारियों से लडने की शक्ति होती है।उस समय इन दावों के पीछे कोई वैज्ञानिक शोध का आधार था या नहीं, लेकिन आधुनिक समय में किए जा रहे शोध चाय के तमाम स्वास्थ्यवर्धक गुणों को प्रकाश में ला रहे हैं, साथ ही इसके बारे में किए गए कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण दावों को नकार भी रहे हैं। इस संबंध में हम चर्चा बाद में करेंगे। आइए, पहले चाय के बारे में तो अच्छी तरह जान लें।

दक्षिण-पूर्व एशिया की उपजाऊ दोमट मिट्टी वाली पहाड़ियों पर, जहाँ पर्याप्त पानी बरसता है और ठंडी हवा बहती है, इस सदाबहार पौधे की विभिन्न प्रजातियाँ स्वाभाविक रूप से पनपती हैं। सब से पहले चाय के पौधे के बीज को नर्सरी में उगाया जाता है। इन बीजों से उत्पन्न पौधे जब ६ से १८ माह के बीच की उम्र प्राप्त कर लेते हैं तो इन्हें चाय के बाग़ानों में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। समय-समय पर इन की छँटाई की जाती है जिस से इन की ऊँचाई लगभग एक मीटर तक बनी रहे और इन में नई-नई पत्तियाँ आती रहें। कम ऊँचाई वाली पहाड़ियों पर उगने वाले पौधों की पत्तियाँ लगभग ढाई साल में ही परिपक्व हो जाती हैं तो ऊँची पहाड़ियों पर उगने वाली प्रजाति की पत्तियाँ लगभग पाँच साल में परिपक्व होती हैं। सब से अच्छी चाय उन पौधों से पाप्त होती है जो १००० से २००० मीटर की ऊँचाई वाली पहाड़ियों पर उगती हैं। ठंडी हवा में पनपने वाले इन पौधों की बाढ़ धीमी तो होती है परंतु इन से प्राप्त चाय का ज़ायक़ा बेहतर होता है। दार्जिलिंग की चाय संभवत: इसीलिए विश्व-प्रसिद्ध है।

चाय के उत्पादन के लिए परिपक्व पौधों की सबसे छोटी एवं नवजात पत्तियों को अनुभवी मज़दूरों द्वारा  हाथ से तुड़वाया जाता है। इन पत्तियों से मुख्य रूप से तीन प्रकार के चाय का उत्पादन किया जाता है:
१. काली चाय, जो इन पत्तियों को पूरी तरह फरमेंट कर के तैयार की जाती है। इस के लिए इन पत्तियों को सब से पहले सुखाया जाता है। जब ये पत्तियाँ नरम एवं लचीली हो जाती हैं तब इन्हें रोलर द्वारा कुचला जाता है ताकि इन के सेलवाल टूट जाएं एवं उन से एंज़ाइम बाहर निकलने लगे। यह विधा चाय को ज़ायका देती है। रोलर में कुचलने के बाद प्राप्त पत्तियों के थक्कों को तोड़ा जाता है और फिर फरमेंटेशन कक्ष में इन्हें ऑक्सिडाइज़ होने के लिए रख दिया जाता है। इस से पत्तियाँ तांबई रंग की हो जाती हैं। अंत में इन्हें गरम हवा द्वारा सुखाया जाता है जिस के कारण ये काले रंग की हो जाती हैं।

२. ऊलांग चाय, जिसका रंग लाल होता है, लगभग उसी प्रकार उत्पादित की जाती हैं जैसे काली चाय। बस, फर्मेंटेशन का समय कम होता है। इस प्रकार की चाय के लिए ताइवान एवं दक्षिणी चीन में पनपने वाले चाय के पौधे ज़्यादा अनुकूल होते हैं। इस चाय का ज़ायका थोड़ा तीखा होता है।
३. हरी चाय भी उपरोक्त तरीके से ही उत्पादित की जाती है, बस पत्तियों को रोलर में कुचलने के पहले गरम कर लिया जाता है ताकि इन की कोशिकाओं का एंजाइम नष्ट हो जाए। इस से पत्तियाँ सदैव हरी रहती हैं तथा इन में काली चाय जैसी खुशबू नहीं पनपने पाती। इन को फर्मेंट भी नहीं किया जाता।

वैसे सफ़ेद चाय, हर्बल चाय आदि भी होती है।

संसार में पानी के बाद संभवत: चाय ही सब से ज़्यादा पी जाती है। संसार के अधिकांश देशों में यह पारिवारिकता एवं सामाजिकता का अभिन्न अंग बन चुका है। कोई इसे दूध और चीनी के साथ पीता है तो कोई बस मात्र गरम पानी के साथ ही इस की चुस्की का आनंद लेता है तो कुछ स्वादप्रिय लोग अदरक, नींबू, काली मिर्च, लौंग, इलायची आदि-आदि के साथ इसे और भी ज़ायकेदार बना कर इस की चुस्कियाँ लेते हैं। चाय रे चाय...तेरे कितने रूप! और इसे बनाने के तरीके भी तरह-तरह के! इसे बनाने के तरीके बताने की गुंजाइश तो विज्ञान वार्ता के अंक में नहीं है और न ही इस की आवश्यकता। भई, वैसे भी चाय बनाने में है ही क्या? पानी गरम किया, चाय की पत्ती डाल ली, साथ-साथ दूध, चीनी वगैरह-वैगरह भी स्वादानुसार डाल लिया, बस हो गई चाय तैयार। कुछ लोग सब-कुछ पानी में डाल कर तब उबालते हैं तो कुछ लोग पानी को उबाल कर तब सब-कुछ डालते हैं। वैसे सही तरीका क्या है, यह शोध का विषय हो सकता है। यथा गरम पानी में चाय की पत्ती डालनी चाहिए या फिर चाय की पत्ती में उबलता पानी डालना चाहिए, आदि-आदि। किस विधि से चाय के कौन-कौन से गुण बरकार रहते हैं और कौन-कौन से नष्ट हो जाते हैं, आदि। इस विषय में काफ़ी-कुछ शोध हो भी रहे हैं।

तो, अब समय आ गया है कि हम चाय के स्वास्थ्यवर्धक गुणों को जाने-समझें। चाय में कई गुणकारी रसायनों की पहचान की गई है। इन में से प्रमुख हैं तरह-तरह के 'पॉलीफेनॉल्स' यथा टैनिन्स, लिग्निन्स, फ्लैवेन्वाएड्स आदि। कैटैकिन्स, कैफीन, फेरूलिक एसिड, इपीगैलोकैटेकिन गैलेट आदि रसायन इन के उदाहरण हैं। इन पॉलीफेनाल्स में से कई 'एंटी ऑक्सीडेंट' का काम करते हैं। ये एंटी ऑक्सीडेंट्स हमारी कोशिकाओं को ऑक्सिडेशन के हानिकारक प्रभावों से बचाए रखने में सहायक होते हैं। इसे अच्छी तरह समझने के लिए आइए, पहले हम ऑक्सिडेशन की प्रक्रिया तथा इन से होने वाली हानि को तो समझ लें। दरअसल, सभी जीवित कोशिकाओं में तरह-तरह की ऑक्सिडेशन प्रतिक्रियाएँ होती रहती हैं जिन में एलेक्ट्रॉन्स का स्थानांतरण एक रसायन से दूसरे ऑक्सिडाइज़िंग रसायन तक होता रहता है, जिस के फलस्वरूप H२O२, HOCl  जैसी क्रियाशील रसायनों के अतिरिक्त 'फ्री रेडिकल्स' यथा –OH, O२- आदि रसायनों का निर्माण होता है। ये रसायन 'लिपिड-पर-ऑक्सीडेशन' की प्रकिया द्वारा कोशिका को हानि पहुँचाते हैं या फिर ऐसे रसायनों के संश्लेषण में सहायक होते हैं जो डी-एन-ए से जुड‍कर उन्हें 'ऑंन्कोजीन्स म्युटेन्ट' में परिवर्तित कर कैंसर की संभावना को बढ़ा सकते हैं। माइटोकांड्रिया में तो ऐसी प्रतिक्रियाएँ लगातार चलती रहती हैं अत: इन से उत्पन्न क्रियाशील ऑक्सीजनयुक्त रसायनों को नष्ट करते रहना अति आवश्यक है। एंटीऑक्डिडेंटस इस कार्य को बड़ी दक्षता के साथ करते रहते हैं और कोशिकाओं को तरह-तरह की हानि से बचाते रहते हैं।

जापान के क्यूशू युनिवर्सिटी से संबंद्ध हिराफ्यूमी ताचिबाना की टीम ने अपने शोध से यह दर्शाया है कि हरी चाय के दो से तीन प्याले रोज़ पीने वालों में फेफड़ों के कैंसर से लेकर प्रोस्टेट एवं स्तन कैंसर के प्रति प्रतिरोध क्षमता ज़्यादा होती है। कारण, इसमें पाया जाने वाला इपीगैलोकैटेकिन गैलेट नामक पॉलीफेनॉल रसायन है जो कैंसरस कोशिकाओं की वृद्धि को मंद कर देता है। अमेरिका के नेशनल कैंसर रिसर्च इंस्टीटयूट के एक अध्ययन के अनुसार चाय में पाए जाने वाले कैटेकिन्स कोशिकाओं को हानि पहुँचने के पूर्व ही उन में उत्पादित ऑक्सिडेंट्स को निष्क्रिय कर देते हैं तथा टयूमरर्स की संख्या एवं आकार में कमी लाते हैं साथ ही कैंसरस कोशिकाओं की वृद्धि को भी रोक देते हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ़ जेनेवा में किए गए एक शोध के अनुसार हरी चाय में पाए जाने वाले कैफ़ीन एवं कैटैकिन्स जैसे पॉलीफेनॉल्स शरीर में ऊर्जा-व्यय को बढ़ा देते हैं। यह प्रक्रिया शरीर के वज़न को संतुलित रखने में सहायक हो सकती है।

एक अन्य अध्ययन के अनुसार हरी चाय का सेवन डायबिटीज़ की रोक-थाम में भी सहायक हो सकता है। चूँकि कोशिकाओं में स्वाभाविक रूप से बनने वाले ऑक्सिडेंट्स को बूढ़े होने की प्रकिया से जोड़ कर देखा जाता है अत: इस में कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ लोग चाय में पाए जाने वाले इन एंटीऑक्सडेंट पॉलीफेनॉल्स को बुढ़ापा आने की प्रक्रिया को धीमे कर देने वाले कारक के रूप में देखते हैं।

चाय में एक अन्य रसायन एल-थिएनिन नामक एमीनो एसिड की पर्याप्त मात्रा पाई जाती है। यह एमीनो एसिड शरीर मे एंटीबैक्टीरियल प्रोटीन के संश्लेषण में सहायक होती है। यह प्रोटीन बैक्टीरिया जनित रोगों के प्रतिरोधक का कार्य करती है। इस संबंध में किए गए गए प्रयोग में ११ कॉफी पीने वालों तथा १० काली चाय पीने वालों को शामिल किया गया था। ये प्रतिदिन ६०० मिली लीटर कॉफी या चाय का सेवन करते थे। चार सप्ताह बाद इन के रक्त का विश्लेषण किया गया तो पाया गया कि चाय पीने वालों में रोग-प्रतिरोधी प्रोटीन्स की मात्रा कॉफी पीने वालों की तुलना में पाँचगुनी पाई गई।

जापान में ही किए गए एक अन्य अध्ययन के अनुसार एल-लैसिथिन मस्तिष्क में अल्फा तरंगों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी करता है। ये तरंगे हमारे सतर्कता स्तर को बढ़ाती हैं। २००६ में किए गए इस प्रयोग में यह देखा गया कि दो या दो से अधिक कप चाय पीने वाले बूढ़े लोगों की तुलना में ऐसे बूढ़े लोगों में जो दो कप से कम चाय पीते हैं या फिर अन्य पेय का सेवन करते हैं, उन में संज्ञानात्मक क्षीणता का स्तर पचास प्रतिशत ज़्यादा होता है।

काली चाय का सेवन हमारा तनाव बढ़ाने वाले कॉर्टिसॉल हार्मोन्स की मात्रा को तीव्रता से कम करता है, फलस्वरूप हम शीघ्र ही तनाव वाली स्थिति से उबर कर सामान्य अवस्था में आ जाते हैं। इस प्रकार हम रक्तचाप से संबंधित बीमारियों से बचे रह सकते हैं। ब्लड-प्लेटलेट्स की सक्रियता का संबंध भी ब्लड-क्लॉटिंग एवं हार्ट-अटैक से होता है। काली चाय पीने वालों में ब्लड प्लेटलेट्स की सक्रियता का स्तर कम हो जाता है, फलस्वरूप इन में हार्ट अटैक का ख़तरा भी कम रहता है।

जनवरी २००६ में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार चाय को शुद्ध रूप में पीने में ही भलाई है। कारण दूध में पाए जाने वाल केसीन नामक प्रोटीन चाय में पाए जाने वाले इपीगैलोकैटेकिन गैलेट (जिस का ज़िक्र पहले भी किया जा चुका है) से जुड़ कर इस के प्रभाव को नष्ट कर देता है। इपीगैलोकैटेकिन गैलेट नामक यह रसायन ऊपर वर्णित प्रभावों के अतिरिक्त रक्तवाहिनियों को शिथिल कर रक्त के प्रवाह को बनाए रखने में सहायक होता है एवं हमें रक्तचाप तथा हार्ट अटैक जैसी स्थिति से बचाने में सहायक होता है। परंतु दूध की चाय पीने वालों को इस का लाभ नहीं मिलता। यह शोध जर्मनी के चैरिटी हास्पिटल, बर्लिन की वेरेना स्टैंगल तथा उन के साथियों ने की है। चाय में चीनी का प्रभाव निश्चय ही गुणकारी नहीं हो सकता। चीनी शरीर के लिए कितनी लाभदायक या हानिकारक है, यह अलग से चर्चा का विषय हो सकता है।

अब तक के कुल शोध का लब्बो-लुआब यह है कि चाय की प्याली, विशेषकर हरी चाय वाली, वह भी बिना दूध और चीनी के, हमारे स्वास्थ्य की असली प्याली है। वह भी दिन में कम से कम चार बार!

तो जनाब, चाय पीजिए, पिलाइए एवं स्वस्थ रहिए। इस के लिए जाड़े से अच्छा मौसम भला और कौन-सा हो सकता है। बस इस के साथ दूध और चीनी से परहेज़ रखिए। अभिव्यक्ति की ओर से चाय की इस प्याली के साथ २००७  के प्रारंभ में वर्ष भर...वर्ष भर ही क्यों, आजीवन सभी के स्वस्थ जीवन की शुभकामना प्रेषित है।

 

२४ जनवरी २००७

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