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विज्ञान वार्ता

दो माँओं की बेटी ‘कागुया’
डा गुरू दयाल प्रदीप 

कागुया अपने नवजात शिशुओं को साथ

जीहाँ, कागुया की उत्पति प्रजनन तथा जेनेटिक इंजीनियरिंग के क्षेत्र में एक नया चमत्कार है। क्लोनिंग द्वारा उत्पन्न भेड़ ‘डॉली’ की याद है न? वह भी अपने समय में प्रजनन की अनूठी विधा का परिणाम थी। ‘डाली’ उस मादा भेड़ की हूबहू नकल थी, जिसके स्तन की कोशिका के केंद्रक को निषेचित डिंब के केंद्रक में प्रतिस्थापित किया गया था; परंतु ‘कागुया’ की उत्पति में एक बिल्कुल ही नई विधा का उपयोग किया गया है, जिसमें नर की कोई भूमिका नहीं है। इस विधा के बारे में विस्तार से जानने के पहले आइए, ‘कागुया’ के बारे में तो जान लें।

जापान की एक लोक कथा है– बहुत समय पहले फूजी पर्वत के पास एक नि:संतान बूढ़े दंपति रहते थे। वहाँ के जंगलों से बाँस काट कर वे अपनी आजीविका चलाते थे। एक दिन बाँस काटने गए बूढ़े व्यक्ति को एक पतला लेकिन अद्भुत चमक वाला बाँस दिखाई दिया। जैसे ही बूढ़े ने इस बाँस को काटा, उसमें से एक बहुत ही सुंदर कन्या प्रकट हुई।बूढ़ा उसे घर लाया। उसकी बूढ़ी पत्नी ने तुरंत उस कन्या को अपनी बेटी के रूप में अपना लिया और उसकी अप्रतिम सुंदरता से अभिभूत हो कर उसका नाम रखा –‘ नायोटेक नो कागुया हाइम’ यानि ‘पतले बाँस की कांतियुक्त राजकुमारी’। कहावत है– इस घटना के बाद जब–जब बूढ़ा बाँस काटने जाता, उसे उसमें से धन मिलता। धीरे–धीरे बूढ़े दम्पति धनी हो गए।

कन्या भी धीरे–धीरे बड़ी होने लगी साथ ही उसकी सुंदरता में भी चार चाँद लगने लगे। जाहिर है, एक से एक सुंदर, बलशाली तथा समाज में प्रतिष्ठित नवयुवक इससे विवाह के लिए लालायित हो उठे। अंततोगत्वा उस इलाके के सबसे शक्तिशाली शासक से उसने विवाह किया। अपने पति के प्रेम तथा समर्पण को देख कर बहुत दिनों तक वह उससे अपनी उत्पति के वास्तविक रहस्य को छिपा नहीं सकी। उसने रहस्य से पर्दा उठाते हुए अपने पति को बताया कि वास्तव में वह चाँद पर बसे लोगों की राजकुमारी है और वहाँ के कैलेंडर के अनुसार आठवें महीने के पंद्रहवें दिन अर्थात् पूर्णिमा के दिन उसके पिता उसे यहाँ से वापस ले जाने के लिए आएँगे।

और, वास्तव में ऐसा ही हुआ। अपनी सारी शक्ति लगाने के बाद भी कागुया का पति उसे वापस जाने से नहीं रोक सका। पति के विछोह से दु:खी कागुया ने उसे एक जादुई शीशा देते हुए बताया कि जब भी वह इस शीशे में देखेगा उसे कागुया का प्रतिबिंब दिखाई देगा। इतने भर से कागुया के पति को कभी संतोष नहीं हुआ। एक दिन वह कागुया के विछोह में इतना दु:खी हुआ कि उसकी खोज में निकल पड़ा और पागलों की तरह फूजी पर्वत की चोटी पर चढ़ गया। हताशा में आखिरकार उसने उस जादुई शीशे को अपने सीने से लगाए हुए इस शांत ज्वालामुखी के अंदर छलांग लगा दी। छलांग लगाते ही ज्वालामुखी भभक उठा। तबसे यह मान्यता है कि जब भी यह ज्वालामुखी भभकता है, कागुया के हताश पति के गहरे विछोह को व्यक्त करता है। मान्यता तो यहाँ तक है कि इस ज्वालामुखी की चमकीली लपटों में कभी–कभी कागुया की छवि प्रतिबिंबित होती है।

कहानी अच्छी है न? चलिए, आप के लिए न सही, बच्चों के लिए तो है ही। उन्हें ही सुनाइए। थोड़े–बहुत नमक–मिर्च के साथ इसके बहुतेरे संस्करण उपलब्ध हैं या फिर आप भी कुछ नया गढ़ ही सकते हैं। अब सवाल यह है कि हमने राजकुमारी कागुया की कहानी, और वह भी विज्ञान वार्ता में, सुनाई क्यों? क्यों कि आगे हम जिस ‘कागुया’ की कहानी सुनाने जा रहे हैं, वह न तो कोई राजकुमारी है और नहीं किसी चाँद से आई है। यह ‘कागुया’ तो अदना सी एक चुहिया है, जिसका जन्म सामान्य चूहों से जरा हट कर हुआ है। इसका जन्म दो मादाओं के डिंबो  के निषेचन से हुआ है। नर चूहे का इसमें कोई योगदान नही है। प्राकृतिक रूप से, विशेषकर स्तनधारियों  में, ऐसा नही होता। अब चूँकि यह अद्भुत कारनामा टोमोहिरो कानो के नेतृत्व में टोकियो युनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर के जापानी वैज्ञानिकों ने कुछ कोरियाई सहयोगियों के साथ कर दिखाया, फलत: उपरोक्त जापानी लोक कथा की राजकुमारी कागुया के नाम पर इसका नाम भी ‘कागुया’ रख दिया गया। कारण,संभवत: दोनों की अप्राकृतिक उत्पति तथा सुंदरता (?) में समानता रही होगी।

जी हाँ, इन वैज्ञानिकों को गुलाबी कानों (गालों नहीं) तथा भूरे रंग वाली यह चुहिया निश्चय ही खूबसूरत लगी होगी! और लगेगी भी क्यों नहीं, अपना सृजन किसे सुंदर नहीं लगता?  लगभग चौदह महीने की यह वयस्क चुहिया सभी चूहों को सुंदर लगती है या नहीं, इसका पता तो हमें नहीं है। फिर भी उन चूहों को यह अवश्य सुंदर लगी है, जिनके साथ प्राकृतिक ढंग से सहवास कर इसने सामान्य संतानों को जन्म दिया है। इसके सृजन की कहानी को आगे बढ़ाने के पहले यह जानना आवश्यक है कि प्राकृतिक प्रजनन की विधा क्या है और क्यों कर उच्च श्रेणी के जंतुओं में प्राकृतिक रूप से समलैंगिक प्रजनन नहीं होता।

चूहे ही क्यों, सभी स्तनधारियों एवं अधिकांश उच्च वर्ग के जंतुओं में प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था दे रखी है कि अगली पीढ़ी के सदस्यों के जन्म के लिए नर–मादा, दोनों की आवश्यकता होती है। मादा के शरीर से उत्पन्न ‘डिंब’ तथा नर के शरीर से उत्पन्न ‘शुक्राणु’ में शरीर की सामान्य कोशिकाओं की तुलना में क्रोमोज़ोम्स की संख्या आधी होती है, क्योंकि इनका उत्पादन जनांगों में अर्धसूत्रीय कोशिका विभाजन के फलस्वरूप होता है। निषेचन की प्रकिया के दौरान डिंब तथा शुक्राणु का संलयन होता है, जिसके फलस्वरूप निषेचित डिंब में क्रोमोज़ोम्स की संख्या पुन: शरीर की सामान्य कोशिका के बराबर हो जाती है। इनमें से आधे क्रोमोज़ोम्स तो डिंब के अपने होते हैं तथा आधे शुक्राणु से मिलते हैं। प्रकृति ने संभवत: आने वाली संततियों में विभिन्नता बनाए रखने एवं नर–मादा, दोनों के महत्व को बनाए रखने के लिए ही ऐसी व्यवस्था दी है। हालाँकि नए भ्रूण का विकास डिंब के ही कोशिका–द्रव्य से ही होता है, परंतु सामान्यतया यह तब तक संभव नही है जब तक डिंब के अंदर शुक्राणु के क्रोमोज़ोम्स न पहुँच जाएँ। शुक्राणु के क्रोमोज़ोम्स के प्रवेश के साथ ही नि:षेचन की प्रक्रिया पूरी होती है तथा इसके बाद ही निषेचित डिंब को भ्रूणीय विकास के लिए समसूत्रीय कोशिका विभाजन के संकेत मिलते हैं।

आखिर क्या खास बात होती है शुक्राणु के क्रोमोज़ोम्स में कि बिना इनके भ्रूणीय विकास की प्रक्रिया प्रारंभ ही नहीं होती? क्या प्राकृतिक रूप में एक डिंब का दूसरे डिंब से निषेचन (शुकाणु–शुक्राणु के निषेचन की भी संभावना है, लेकिन इनमें तो इतना कोशिका द्रव्य नहीं होता जिससे भ्रूणीय विकास की दिशा में कोशिका विभाजन की प्रक्रिया चलाई जा सके) संभव है? और यदि है तो इस प्रकार से प्राप्त कोशिका से भूणीय विकास क्यों नही संभव है? आखिर डिंब–डिंब के निषेचन के फलस्वरूप भी तो क्रोमोज़ोम्स की संख्या शरीर की सामान्य कोशिका के क्रोमोज़ोम्स के बराबर हो सकती है।

निम्न श्रेणी के जंतुओं में अपवाद स्वरूप ऐसे बहुतेरे उदाहरण मिल जाएँगे, जहाँ डिंब बिना निषेचन के ही भूणीय विकास के रास्ते पर प्राकृतिक रूप से चल पड़ता है। रानी मधुमक्खी के डिंब बिना शुक्राणु के संलयन के ही नर मधुमक्खी ‘ड्रोन’ में विकसित होने लगते हैं। उसी प्रकार ‘व्हिप टेल’ सरीखे सरिसृप के अंडे भी बिना शुक्राणु से संलयन के ही भ्रूणीय विकास के रास्ते चल पड़ते हैं। लेकिन स्तनधारियों में ऐसा एक भी प्राकृतिक उदाहरण नहीं है।

मादा जनांग में अर्ध सूत्रीय विभाजन द्वारा डिंब निर्माण की प्रक्रिया के आखिरी चरण में बनने वाली ‘पोलर बॉडी’ के क्रोमोज़ोम्स को विशेष रसायनों अथवा विद्युत के झटकों की मदद से डिंब में रोक कर क्रोमोज़ोम्स की संख्या शरीर के सामान्य कोशिकाओं के बराबर कर भ्रूणीय विकास के लिए प्रेरित किया जा सकता है। परंतु थोड़े समय बाद विकास की यह प्रक्रिया रूक जाती है। प्राकृतिक निषेचन के बिना डिंब से अगली पीढ़ी की संतति के प्रजनन में, विशेषकर स्तनधारियों में, कागुया के जन्म के पहले किए गए  सभी प्रयास असफल होते रहे हैं।  

वर्षों के गहन अनुसंधान के बाद यह रहस्य समझ में आया कि सारा खेल डिंब तथा शुक्राणु के क्रोमोज़ोम्स में अवस्थित कुछ विशेष डीएनए की ‘इंप्रिंटिंग’ से जुड़ा है। इंप्रिटिंग एवं इसके नियंत्रण की प्रक्रिया काफी जटिल है। आसान शब्दों में यह कह सकते हैं कि इंप्रिटिंग, रासायनिक प्रतिक्रियाओं द्वारा डिंब या शुक्राणु के निर्माण के दौरान किसी–किसी क्रोमोज़ोम्स पर अवस्थित विशिष्ट जीन्स को निष्क्रिय कर दिए जाने की प्राकृतिक प्रक्रिया है। जो जीन्स शुक्राणु में निष्क्रिय हो जाते हैं, वे  डिंब में सक्रिय रहते हैं और जो जीन्स डिंब में निष्क्रिय हो जाते हैं, वे शुक्राणु में सक्रिय रहते हैं। निषेचित डिंब से भ्रूण के विकास तथा वृद्धि की प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने तथा नियंत्रित करने के लिए ऐसे जीन्स के जोड़ों  में से कम से कम एक जीन का सक्रिय रहना आवश्यक है। अब यह जीन चाहे निषेचित डिंब में शुक्राणु से प्राप्त क्रोमोज़ोम में सक्रिय हो या डिंब से प्राप्त क्रोमोज़ोम में सक्रिय हो।

शुक्राणु या डिंब के उत्पादन हेतु विभाजित हो रही कोशिका को यह कैसे पता चलता है कि किन–किन जीन्स को निष्क्रिय करना है और किन–किन को सक्रिय? इसके लिए कोशिका की मशीनरी अपने आस–पास के सूक्ष्म पर्यावरण का निरीक्षण करती कि यह अधिकांश नर–सदृश्य है या मादा–सदृश्य। नर–सदृश्य पर्यावरण में शुक्राणु का निर्माण होता है और उसमें कुछ विशिष्ट जीन्स को सक्रिय अथवा निष्क्रिय किया जाता हैा मादा–सदृश्य पर्यावरण होने पर डिंब का निर्माण होता है, जहाँ इन जीन्स को विपरीत ढंग से सक्रिय या निष्क्रिय किया जाता है।

लंबे अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों ने स्तनधारियों में लगभग 100 ऐसे जीन्स का पता लगाया है। उदाहरण के लिए चूहों में H19 एवं Igf2r जीन्स निषेचित डिंब में मादा द्वारा प्राप्त क्रोमोज़ोम पर सक्रिय रहते हैं, वहीं   Igf2 जीन नर द्वारा प्राप्त क्रोमोज़ोम पर सक्रिय रहते हैं। इन्हें सक्रिय या निष्क्रिय रखने में ‘डीएनए मिथाइल ट्रांसफरेज़’ जैसे एंज़ाइम का हाथ होता है। मजे की बात यह है कि ये एंजाइम्स H19 जीन को शुक्राणु के क्रोमोज़ोम में निष्क्रिय कर देते हैं तो Igf2 जीन को सक्रिय कर देते हैं। Igf2r को मादा क्रोमोज़ोम  में सक्रिय रखने के लिए भी ये एंज़ाइम्स ही जिम्मेदार हैं। निषेचित डिंब को भ्रूणीय विकास के रास्ते पर सुचारू ढंग से चलाने तथा नियंत्रित करने के लिए कुछ विशेष प्रोटीन्स तथा इंसुलिन जैसे वृद्धिकारकों की आवश्यकता होती है। ये रसायन उपरोक्त जीन्स के सक्रिय अवस्था में रहने पर ही संश्लेषित हो सकते हैं।

जाहिर है, शुक्राणु–शुक्राणु के निषेचन से प्राप्त कोशिका में H19 तथा Igf2r जीन्स दोनों ही क्रोमोज़ोम्स में निष्क्रिय रहेंगे, क्योकि इस प्रकार के निषेचन से निर्मित कोशिका के सभी क्रोमोज़ोम्स नर से ही प्राप्त होते है। डिंब–डिंब के निषेचन से प्राप्त कोशिका में Igf2 जीन दोनों ही क्रोमोज़ोम्स पर निष्क्रिय रहेंगे, क्योंकि यहाँ सभी क्रोमोज़ोम्स मादा से प्राप्त होते हैं। पहली स्थिति में H19 तथा Igf2r द्वारा संश्लेषित होने वाले प्रोटीन्स तथा रसायनों का अभाव रहेगा तो दूसरी स्थिति में Igf2 द्वारा संश्लेषित रसायनों का अभाव। फलत: दोनों ही प्रकार के निषेचन से प्राप्त कोशिका का संपूर्ण भ्रूणीय विकास संभव नहीं है।

कागुया के सृजन की प्रक्रिया काफी जटिल एवं श्रम–साध्य है। वैज्ञानिकों ने इसके लिए दो प्रकार की चुहियों का उपयोग किया। एक प्रकार की चुहियाँ तो सामान्य थीं, जो स्वाभाविक रूप से सामान्य डिंब का उत्पादन करती थीं। परंतु दूसरे प्रकार की चुहियों का जन्म ऐसे डिंब से हुआ था जिन्हें वैज्ञानिकों ने इस प्रकार अनुवांशिक रूप से संशोधित ( genetically modified) किया था कि इससे उत्पादित डिंब में सामान्य अवस्था में शुक्राणु में सक्रिय रहने वाले Igf तो सक्रिय रहें परंतु डिंब में सक्रिय रहने वाले  H19 तथा Igf2r  जीन्स निष्क्रिय हो जाएँ। इस प्रकार अनुवांशिक रूप से संशोधित डिंब से जन्मी  चुहियों के भ्रूणीय अवस्था में ही उनके अंडाशय से डिंब को अलग कर लिया गया। कागुया जैसे चुहियों के सृजन के लिए यह एक अति महत्वपूर्ण कदम था। कारण, जैसा कि पहले भी इंगित किया गया है, भूणीय विकास से संबद्ध ऐसे जीन्स की सक्रियता अथवा निष्क्रियता कोशिका के पर्यावरण पर भी निर्भर करती है। लंबे समय तक मादा शरीर में रहने की अवस्था में उन जीन्स के सक्रिय होने की आशंका थी, जो सामान्य डिंब मे सक्रिय रहते हैं।

उपरोक्त प्रकार से अनुवांशिक रूप से संशोधित चुहियों के भ्रूणीय अवस्था से प्राप्त डिंब का सामान्य चुहियों के डिंब से निषेचन कराया गया। लगभग 600 ऐसे प्रयासों में से केवल दो निषेचित डिंब ही भूणीय विकास की यात्रा पूरी कर पाए। इनमें से एक को तो अनुवांशिकीय विश्लेषण के लिए बलिदान कर दिया गया; परंतु दूसरी चुहिया, जिसे कागुया का नाम दिया गया, जीवित रही तथा वयस्क हो कर सामान्य नर चूहे से सहवास कर प्राकृतिक ढंग से अब तक दो बार अपनी संततियों को जन्म दे चुकी है। 

कागुया के जन्म ने एक नई बहस को भी जन्म दे दिया है। हम मनुष्यों में भी क्या एक डिंब का दूसरे डिंब से निषेचन तथा उसके बाद भ्रूणीय विकास संभव है? और यदि यह संभव है तो भविष्य में प्रजनन के क्षेत्र में पुरूषों की कोई भूमिका बचेगी? या फिर अंतत: पुरूषों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा? क्योंकि इस विधि से तो केवल मादा संतानें ही उत्पन्न होंगी। इन सभी शंकाओं पर विराम–चिन्ह लगाते हुए वैज्ञानिकों का मानना है कि मनुष्यों में ऐसी संभावना बड़े दूर की कौड़ी है। इसके पक्ष में वे कई कारण गिनाते हैं, यथा:

  • मनुष्यों के डिंब में किन–किन जीन्स में अनुवांशिक संशोधन करना होगा, यह अभी तक किसी को पता नहीं है। यदि पता लग भी जाए तो ऐसे संशोधित डिंब से जन्मी महिला पूरी तरह से स्वस्थ रहेगी, इसमें भी शंका है।

  • कागुया के सृजन में शुक्राणु सदृश्य व्यवहार करने वाले डिंब को अनुवांशिक रूप से संशोधित डिंब से जन्मी चुहिया के भ्रूणीय अवस्था से ही प्राप्त किया गया था। क्या मनुष्यों में ऐसा करना नैतिकता तथा समाजिकता की दृष्टि से उचित होगा?

  • एक कागुया के जन्म के लिए वैज्ञानिकों को लगभग 600 प्रयास करने पड़े। भला कौन माँ ऐसी होगी जो इस विधि से एक बेटी उत्पन्न करने के लिए सैकड़ों भ्रूणों की बलि, वह भी आधे–तीहे भ्रूणीय विकास के बाद, होते देख सके।

इस प्रयोग से उल्टे यह सिद्ध करने में आसानी हो गई है कि प्रकृति ने हम स्तनधारियों में नर तथा मादा का विकास बड़े सोच–समझ कर किया है। एक का काम दूसरे के बिना आसानी से नहीं चल सकता। प्रजनन की तो बात ही दूर है।

24 मई 2005
 
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