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प्रौद्योगिकी

सावधान ब्लॉगिए आ रहे हैं

डॉ रति सक्सेना

साहित्य वालों सावधान! ब्लॉगिए आ रहे हैं देखिए, देखिए क्या फ़रमा रहे हैं -
अरररररररररररररररर होली है गली मुहल्ले की नहीं पास पड़ोस की नहीं खुले आसमान की होली जाल पर बिखर रही है, विश्व पर निखर रही है। कृपया मुंडी ऊपर न उठाएँ, खिड़की में झाँकें, यह ब्लॉग चर्चा है। हिंदी के ब्लॉग हैं, हिंदुस्तानी त्योहार है और मौसम है फागुन का, तो धमाल तो होगा ही फिर चाहे ब्लॉगिए देस में हों या परदेस में. . .

हाँ ज़रा ध्यान रखें, ब्लाग साहित्य है सही मायने में अंतर्राष्ट्रीय। यह वह खिड़की है जिसे देश से दूर रहने वाले लोगों ने अपने आत्मसम्मान को कायम रखने के लिए खोला। आननफानन में ऐसे तमाम भाषा प्रेमियों का संवाद शुरू हो गया। हरकारे को चिठ्ठा इधर से उधर पहुँचाने में मिनट भर का समय लगता। मज़े की बात ये कि इनमें ना कोई सूदखोर भाषा प्रचारक है न ही डंडाधारी मास्टर। इनमें से अधिकतर तकनीकी ज्ञान से जीविका चलाने वाले हैं। भाषा प्रेम इन्हें आत्मसम्मान की भावना देता है। भाषा किताबों से नहीं, ज़मीन से ली गई है तभी तो एक ओर नई शब्दावली बन रही है तो दूसरी ओर बन रहे हैं भाषा और शैली के नए ताजमहल। विश्वजाल की अधिकतर शब्दावली हिंदी के लिए नई है लेकिन रचनात्मक भाषा का जो नया रूप चिठ्ठों में उभर रहा है वह आकर्षक है।

चिठ्ठा अभिव्यक्ति के साथ-साथ संबंध बनाए रखने का भी माध्यम है। अपने जैसों से संबंध, अपने बीते वक्त से संबंध और अपनी भाषा से संबंध। इसलिए यहाँ सब कुछ सहज है। बिना किसी लागलपेट के, जो कुछ मन में आया कह दिया। बिलकुल वैसे ही जैसे कि एक ज़माने में चौपाल की बातें होती थीं। पीपल के नीचे खटिया बिछा कर गप्प-गोष्ठियों की परंपरा में यह एक वर्चुअल मोड़ है।

भाषा की कलाबाज़ियाँ है, किसिम-किसिम के मिज़ाज़ हैं, तीखे तेवर हैं, खिड़की में ठीक से झाँकें, लिंक को ठीक से मापें, ऐसी है खिड़की कि दुनिया के किसी भी कोने से, किसी भी कोने में खुल रही है। विविधता का अंबार है। जो साहित्यकार इन्हें पढ़ें वो भी घबराएँ जो न पढ़ें वो भी घबराएँ। बेहतर यह ही है कि अब रहस्य रोमांच ज़्यादा न बढ़ाएँ और तुरंत परिचय कराएँ तो देखिए कि हिंदी ब्लागों पर होली कैसे मन रही है-

जितेंद्र चौधरी कानपुर की होली को याद करते हुए गली मुहल्ले की होली संस्कृति को जीवित कर रहे हैं। बचपन की होली उनके लिए गुझिया-सी मीठी है जिसकी मिठास यादों के स्वादकोष से कभी गायब नहीं होती। वे उस मुहल्ले में ले चलते हैं जो भारत के हर कोने में किसी न किसी रूप में है। यह बात अलग है कि महानगरीय संस्कृति ने उसके रूप को ज़रा अलग-सा बना दिया है। बात घटनाओं की नहीं बयानबाज़ी की है। घटनाएँ अपने परिवेश से जुड़ी हैं तो शब्दावली भी पीछे नहीं। वे बेखटके कनपुरिया हिंदी का प्रयोग करते हैं। अब सवाल यह है कि किस श्रेणी में रखा जाए इस हुड़दंग को? इसकी शैली व्यंग्य के नज़दीक है पर घटनाएँ वास्तविक हैं तो क्या इन्हें संस्मरण कहा जाए? यहाँ पर ये लीक से थोड़ा हट कर हैं। संस्मरण तो है पर होली के हुड़दंग जैसा गुदगुदाने वाला।
आप भी मज़ा लें-
"न जाने कितनी टोलियाँ आती जातीं सारे मिलकर डांस करते, खूब मस्ती करते, कभी-कभी झगड़ा भी होता, कभी हम पिटते कभी टोली वाले लेकिन मज़ा बहुत आता था। अगर इसको कांग्रेस और राजद की नज़र से देखा जाए तो ये 'फ्रेंडली फ़ाइट' होती। हर होली में एक रेग्यूलर मामला ज़रूर होता और वो ये कि चमचम रेडियोज़ वाले के साथ पंगा ज़रूर होता। सारे आने जाने वालों के लिए वानर सेना ने गुझिया और नमकीन का प्रबंध भी किया रहता ताकि पुतने के बाद किसी को भी नाराज़गी़ ना हो। सारे लोग रंगे पुते हाथों से खाते, काहे की सफ़ाई और काहे का हाइजीन, कोई चिंता नहीं। स़भी लोग सभी के घर रंग खेलने नहीं जाते थे लेकिन हमारा अपना अनुभव है कि जिस घर में जवान लड़कियाँ होती थीं उस घर में होली खेलने वालों की लाइन ही लग जाती थी। दूर-दूर से लोग हमारी टोली में शामिल हो जाते थे। ख़ैर होली के दिन सब माफ़, उस दिन लोग अपनी अपनी सैटिंग वालों के यहाँ भी पहुँच जाते थे और मौका देखकर अपनी माशूका के साथ होली खेल लेते। फिर माशूक माशूका राज़ी तो हम कौन होते हैं पंगा लेने वाले। औ़र सेंसरशिप भी कोई चीज़ होती है।"

जितेंद्र का यह विवरण पाठक को नेता जी के कार्यक्रम के उस दृश्य में आनंद की चरम सीमा पर पहुँचा देता है जहाँ नेता जी उमराव जान बन कर नाचने लगते हैं।

ब्लॉगियों में खूब विभिन्नता है। साहित्य से भी उन्हें परहेज़ नहीं। फिर चाहे वह उर्दू हो या हिंदी या अन्य भारतीय भाषाएँ। जब रवि रतलामी प्रकृति की होली लिखते हैं तो वे भाषा को साधते हैं, लेकिन हुड़दंग का स्पंदन नहीं प्रकट करते। वे प्रस्तुत करते हैं मौसम के अनुरूप डेस्कटॉप के लिए एक सुंदर वॉल पेपर। यह उनकी सहज सुहानी प्रकृति के कारण हो सकता है या फिर यह भी हो सकता है कि उन्हें भाषा के बिछोह से पाला नहीं पड़ा इसलिए वे साहित्यिक हल्के से जुड़े हुए हैं।

पंकज नरुला कैलिफोर्निया में बैठ कर गाते हैं वसंत आया रे तो होली वाला मूड जग जाता है। कैलिफोर्निया का झक्कास मौसम या बेइमान मौसम आदि मुहावरे चिट्ठा संस्कृति को बनाए रखते हैं। बात कैलिफोर्निया की हो रही है और मन में घुमड़ रही है होली, यहीं पर ताज़गी का झोंका आता है। लीजिए आप भी लुत्फ़ उठाइए-

"कैलिफोर्निया अपने साल भर झक्कास मौसम की वजह से प्रसिद्ध है, पर वसंत में जब कि लगभग सारी धरती ही अपने नए परिधान में आकर इठला रही होती है तो कैलिफोर्निया की छटा देखते ही बनती है। आप सोचिए कि आज रविवार को उठे तो मौसम इतना बेईमान था कि मेरे जैसे आलसी ने भी आननफ़ानन में घूमने का प्रोग्राम बना डाला। अपने हर बार का साथी डिजिटल कैमरा साथ ही था। एक और युगल साथ हो लिया इसलिए 'भाई साहब, ज़रा एक फ़ोटू' की नौबत नहीं आई। केकड़ा मसाला यहाँ की ख़ासियत है। केकड़े मसाले की शक्ल देखकर लगता है कि इसमें मिर्ची खूब प्रयोग होती होगी, भैया को बताता हूँ यहाँ मिर्ची सेठ का धंधा खूब चल सकता है साथ ही देखें मसख़रे दुनिया में हर जगह हैं।"

जहाँ एक ओर पंकज हैं कैलिफोर्निया में वहीं भोला है हैदराबाद में जिसको भोपाल की याद सता रही है। भोला की शैली है भोलीभाली और इसी शैली में उसने 'होली की भनक' शीर्षक से एक छोटी-सी प्रविष्टि चस्पा कर रखी है। यहाँ प्रस्तुत है आप भी मज़ा लें-
"जब से होली की भनक लगी है कुछ करने की इच्छा नहीं हो रही है। मन कर रहा है कि जल्दी से 22 तारीख़ आए, हम हैदराबाद से भोपाल की गाड़ी पकड़ें और वहाँ से कोटा-भोपाल बस पकड़ के जल्दी से अकलेरा पहुँच जाएँ। मुझे पता है इस बार होली में बहुत मज़ा आने वाला है। होली पे मेरी मोटर-साइकिल ख़रीदने की इच्छा भी पूरी हो जाएगी। इस बार मैं अपने पुराने स्कूल भी जाने की सोच रहा हूँ। मुझे अपने पुराने स्कूल गए लगभग पाँच साल हो चुके हैं। जवाहर नवोदय विद्यालय में जो समय निकला उसको मैं कभी नहीं भुला सकता हूँ। अब तो होली से आने के बाद ही लिखूँगा कितना मज़ा आया होली पे।"

पर ठहरिए, हर कोई यहाँ भोला नहीं है और ना ही हर किसी को हुड़दंग सूझ रहा है। कुछ लोग सामाजिक अव्यवस्थाओं से जमकर कर नाराज़ है और खुलकर इसे व्यक्त भी कर रहे हैं। देखिए आशीष गर्ग का ब्लॉग-
"अपने जो त्योहार कभी उमंग और उत्साह का संदेश लाते थे, वो आज समाज के लिए असुविधा का कारण बन कर रह गए हैं। होली की आग के चक्कर में सड़कों पर जगह-जगह लकड़ी के ढेर लगाना और यातायात को अवरुद्ध करना, महिलाओं के साथ बदतमीज़ी, कीचड़ और रसायनों से होली खेलना, शहर या गाँव को खूब गंदा करना, ये कौन सोचता है ख़राब है। हमारे समाज में अगर इनके ख़िलाफ़ बोलेंगे तो मार खा जाएँगे।"

सिर्फ़ गद्य ही नहीं कुछ काव्य चिट्ठे हैं जो फागुन होली और वसंत के रंग में डूबे हैं इन्हीं में 'अनुभूति' के एक परिचित कवि हैं महावीर शर्मा, जिनके चिट्ठे पर विराजमान है यह सुंदर-सी रचना-
"फागुन की मस्त बयार लिए होली का अवसर आया है
हरे वसन के घूँघट से सरसों ने मुख चमकाया है"

ऐसा नहीं है कि होली के रंग में केवल भारतीय मूल के लोग सरोबार हो रहे हीं। जापान के मत्सु जब बुरा न मानो होली है कहते हैं तो लगता है कि होली और हिंदी का संबंध लाल रंग-सा गहरा गया। मत्सु के पास बाँस की बनी पिचकारी है शत प्रतिशत भारतीय। आप में से कितनों ने देखी है असली बाँस की असली पिचकरी? हो गई न ऐसी की तैसी!
जागो जागो मुँह धो लो
टेसू के फूलों का रंग घोलो।
दिन रात जाग-जाग कर अंग्रेज़ी पढ़ने वाले हिंदी के साहित्यकारों अब भी वक्त है हिंदी सुधारो और खुद भी सुधर जाओ। कहीं ऐसा न हो कि तुम दूसरों की खिड़की में झाँकते रहो और दूसरे तुम्हारी गठरी ले उड़ जाएँ।

(यहाँ उद्धृत सभी ब्लॉगों की कड़ियाँ यहाँ मिल जाएँगी)

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