|

शेखावटी का गिंदड़ नृत्य
- संकलित
फागुन और गींदड़ का उत्सव
होली का त्योहार हो और शेखावाटी के गींदड़ नृत्य का
उल्लेख न किया जाए, तो बात अधूरी रह जाती है। राजस्थान
की यह प्रसिद्ध लोकनृत्य शैली न केवल देश में, बल्कि
विदेशों में भी अपनी विशिष्ट पहचान रखती है। इसकी
अद्भुत शैली, उल्लासपूर्ण गति और सामूहिकता ही इसे
अन्य फागुनी नृत्यों से अलग बनाती है। फाल्गुन के
महीने में जब शेखावाटी का आकाश अबीर-गुलाल से रंग जाता
है, तब उसकी गलियों में गूंजती ढोल-नगाड़ों की थाप
गींदड़ का आह्वान करती है।
नृत्य की शैली और सौंदर्य
गींदड़ नृत्य के आरंभ में गाँव के लोग मिलकर स्थान की
साफ़-सफ़ाई करते हैं, फिर वहाँ बंदनवारों और
रंग-बिरंगे झंडों से सजावट की जाती है। रंग-बिरंगी
झिलमिल लाइटें वातावरण को और भी आलोकित कर देती हैं।
इस बीच नगाड़ों की थाप और चंग की लय के साथ जब पहली
टोली मंच पर आती है, तो दर्शकों के चेहरे खिल उठते
हैं। पंद्रह फीट ऊँचे बाँसों के सहारे बने मंचों पर
बैठकर वादक नगाड़े और बाँसुरी की धुन बजाते हैं।
नर्तक अपने सिर पर रंगीन पगड़ियाँ, गले में माला, और
चेहरे पर मेकअप कर, हाथों में डंडियाँ थामे गोल घेरे
में प्रवेश करते हैं। किसी का रूप नारी का होता है,
कोई साधु का, तो कोई किसी लोककथा के पात्र का। ये सब
पात्र अपनी अभिनय-शैली और नृत्य-गतियों से दर्शकों को
बाँधे रखते हैं। गींदड़ नृत्य में पुरुष कलाकार चटक
रंगों की वेशभूषा पहनते हैं, पांवों में घुंघरू बांधते
हैं और हाथों में लंबी लकड़ी की डंडियाँ लेकर गोल घेरे
में नाचते हैं। नगाड़े, चंग, ढोल और बांसुरी की संगत
पर जब वे डंडियाँ टकराते हुए ताल से ताल मिलाते हैं,
तो पूरा दृश्य जीवंत हो उठता है। इसे देखकर दर्शक भी
स्वयं को थिरकने से रोक नहीं पाते।
यही कारण है कि गींदड़ नृत्य में भाग लेने के लिए
विभिन्न प्रांतों से प्रवासी बड़ी संख्या में राजलदेसर
लौटते हैं। इसी परंपरा से जुड़ा लोकगीत “आज मान्ह रमता
ने लाडूड़ों सो लाध्यो ये माय, म्हारी गींदड़ रमबा ने
द्गयास्या” अंचलवासियों के गींदड़ प्रेम को प्रकट करता
है। और बताता है कि शेखावटी के निवासियों को गींदड़
लड्डुओ से भी ज्यादा प्रिय है। फागुन के गींदड़ में आज
भी केसरिया मेह बरसता है। केसरिया रंग से जुड़े फागुनी
गीतों से गींदड़ की शामें रंगीन हो उठती हैं।
गींदड़ देखने में गुजरात के गरब और राजस्थान के
डांडिया से मिलता जुलता है लेकिन इसमें तीन विशेष
भिन्नताएँ हैं- पहली तो यह कि गरबा और डांडिया में
स्त्री पुरुष दोनो नृत्य करते हैं जबकि गींदड़ में
पुरुष ही स्त्री और पुरुष दोनो का रूप धरकर नृत्य करते
हैं। दूसरी यह कि गींदड़ में स्वांग की परंपरा है। वे
केवल स्त्री का रुप धारण नहीं करते बल्कि इस नृत्य में
विभिन्न प्रकार के स्वांग बनाये जाते हैं जिनमें साधु,
शिकारी, सेठ-सेठानी, डाकिया, दुल्हा, दुल्हन आदि
प्रमुख हैं। जहाँ एक ओर विभिन्न देवी-देवताओं व
साधु-साध्वियों के स्वांग नृत्य की विभिन्न मुद्राओं
में देखे जाते हैं, वहीं मेमसाहब, अफसर, सेठ-सेठाणी
आदि स्वांगों द्वारा दर्शकों का खूब मनोरंजन होता है।
इस प्रकार ये नर्तक हास्य, रस और भक्ति का अनोखा संगम
रचते हैं। तीसरी भिन्नता यह कि गींदड़ नर्तकों के हाथ
में पकड़ी गयी डंडियाँ, डाँडिया नर्तकों की तुलना में
लंबी होती हैं।
गींदड़ के गीतों में अक्सर शेखावाटी के ग्रामीण जीवन,
प्रेम, हास्य और व्यंग्य की झलक मिलती है। कभी कोई गीत
माँ के स्नेह की याद दिलाता है—
‘म्हारी मायड़ो म्हारो घणो याद आवे...’ तो कभी
कोई गीत प्रेमी की प्रतीक्षा का चित्र खींच देता है।
गींदड़ का हर गीत अपनी मस्ती और लोकगंध से भीगता है।
गींदड़ की एक विशिष्टता यह भी है कि इसमें
नृत्य, नाटक और गायन— तीनों कलाएँ सम्मिलित होती हैं।
नर्तक कभी अभिनय करते हैं, कभी लोकगीत गाते हुए घूमते
हैं, और कभी अचानक किसी चुटकुले या संवाद से हँसी के
फव्वारे छेड़ देते हैं। इसी से यह नृत्य केवल नृत्य
नहीं, बल्कि लोकमंच का जीवंत रूप बन जाता है।
लोक परंपरा और इतिहास
गींदड़ नृत्य की परंपरा लगभग चार सौ वर्षों से भी
पुरानी है। कहा जाता है कि इसका आरंभ 1607 में राव
बीका के पुत्र राजसी द्वारा जागीर प्राप्ति की खुशी
में पहली बार होली के अवसर पर हुआ था। तब से यह नृत्य
शेखावाटी की लोक-आत्मा में बस गया है।
राजलदेसर, झुंझुनूं, फतेहपुर, रामगढ़, मण्डावा,
लक्ष्मणगढ़ और सुजानगढ़ जैसे कस्बे आज भी इस नृत्य की
जीवंत परंपरा को संजोए हुए हैं। चार सौ सालों से अधिक
पुरानी यह परम्परा आज भी राजलदेसर के लोग बड़ी शिद्द्त
से निभा रहे हैं। यहाँ के मुख्य बाजार चौक व गांधी चौक
पर गिंदड़ नृत्य का प्रारंभ होली की पाँच रात्रि पूर्व
फाल्गुनी एकादशी से होता है। गींदड़ स्थलों को
बंदनवारों व विद्युत लडिय़ों से दुल्हन की तरह सजाया
जाता है। स्थलों के बीच पन्द्रह फीट ऊँचे बने मंच की
सजावट देखते ही बनती है। इन पाँच दिनों तक चलने वाले
गींदड़ नृत्य में ग्रामीण परिवेश और राजस्थान की लोक
संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। दुग्ध ध्वल
पूर्णिमा की चाँदनी रात्रि में गिंदड़ रमते रसियों व
दूर-दराज से आए दर्शकों की मौज मस्ती देखते ही बनती
है।
कुछ स्थलों पर तो वसंत पंचमी से ही ढफ बजने लगते हैं
तथा धमालें गाई जाने लगती हैं। कुछ धमाल भक्ति प्रधान
एवं कुछ धमाल शृंगार प्रधान होते हैं। जब होली में
पंद्रह दिन रह जाते हैं तो गाँव-गाँव गींदड़ होने लगते
हैं। इसे गींदड़ खेलना कहते हैं। होलिका दहन से दो दिन
पहले रात भर गींदड़ होते हैं। इन आयोजनों में सैंकड़ों
लोग भाग लेते हैं। इस नृत्य में आयु, वर्ग एवं
जाति-पांति का भेद नहीं रखा जाता है। परम्परागत रूप से
यह नृत्य चांदनी रात में होता था किंतु अब विद्युत
प्रकाश भी किया जाता है।
नगाड़ा इस नृत्य का मुख्य वाद्य होता है। नर्तक अपने
हाथों में लिये गए छोटे डण्डों को नगाड़े की ताल के साथ
परस्पर टकराते हुए घूमते हैं तथा आगे बढ़ते हैं। नृत्य
के साथ लोकगीत भी ठेके से मेल खाते हुए गाए जाते हैं।
चार मात्रा का ठेका धीमी गति के नगाड़े पर बजता है।
धीरे-धीरे उसकी गति तेज होती है। जैसे-जैसे नृत्य गति
पकड़ता है, नगाड़े की ध्वनि भी तीव्र होती है।
गींदड़ का समापन आमतौर पर “न्हाण” के साथ होता है — यह
एक सामूहिक स्नान और गीत-गायन की परंपरा है, जिसमें
सभी कलाकार और ग्रामीण साथ मिलकर फागुन के अंतिम दिन
नदियों या तालाबों पर जाते हैं। इस तरह यह नृत्य केवल
कला नहीं, बल्कि आस्था और जीवन-उत्सव का प्रतीक बन
जाता है।
सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व
गींदड़ केवल एक नृत्य नहीं, बल्कि सामुदायिक एकता का
प्रतीक है। इस नृत्य में हर जाति और वर्ग के लोग एक
साथ शामिल होते हैं। यह उत्सव सांप्रदायिक सद्भाव,
समानता और मेल-मिलाप का संदेश देता है।
नर्तकों की वेशभूषा—धोती, कुर्ता, सिर पर साफा—और
चेहरे पर मेकअप, सब कुछ उत्सव की चंचलता से भरपूर होता
है। सामान्य दिनों में पुरुष मेकअप नहीं करते, पर होली
पर वे स्त्री रूप धरकर रंग और अभिनय दोनों का आनंद
लेते हैं।
धमाल, न्हाण और गींदड़ जैसे नृत्य शेखावाटी की पहचान
हैं। यहाँ नृत्य और संगीत के साथ लोकगीतों का अद्भुत
संगम देखने को मिलता है— “कठैं सैं आई सूंठ, कठैं सैं
आयो जीरो, कठैं सैं आयो ए भोळी बाई थारो बीरो।” इन
गीतों की लय पर जब घुंघरुओं की छनक और डंडियों की
टंकार मिलती है, तो वातावरण में उल्लास की तरंगें दौड़
जाती हैं।
आधुनिक समय में गींदड़ की
लोकप्रियता
आज शेखावाटी का गींदड़ नृत्य विश्वभर में अपनी अलग
पहचान बना चुका है। हर वर्ष विदेशों से पर्यटक इस
लोकनृत्य को देखने और होली खेलने यहाँ आते हैं।
मंडावा, डुंडलोद और मलसीसर की होली अब सांप्रदायिक
सौहार्द और पर्यावरण संरक्षण की मिसाल बन चुकी है।
शेखावाटी क्षेत्र में कई स्थानों पर गींदड़ महोत्सव का
आयोजन किया जाता है। बहुत से स्थानों पर गींदड़ खेलने
की प्रतियोगिताएं होती हैं। गींदड़ को कहीं-कहीं गींदड़ी
भी कहा जाता है। इस लोकनृत्य के साथ विभिन्न प्रकार के
लोकगीत गाए जाते हैं- कलाकार अपने नृत्य और गायक फाग
में धमाल की राग को जब अलाप देते हैं तो नगारी की गूँज
और बाँसुरी की धुन पर थिरकते कलाकारों के पाँवों में
घुँघुरुओं की खनत तेज हो जाती है। जो लोग नृत्य में
भाग नहीं लेते वे भी सिर पर साफा बाँधकर शहर की हर
गींदड़ में जाते हैं।
गींदड़ न केवल लोकसंगीत का उत्सव है, बल्कि यह उन
जड़ों से जुड़ने का अवसर भी है, जो हमारी संस्कृति को
जीवित रखे हुए हैं। जब ढोल और नगाड़ों की थाप पर पाँव
थिरकते हैं, तब महसूस होता है कि फाल्गुन का रंग, माटी
की गंध और लोक की लय एकाकार होकर शेखावाटी की आत्मा
में समा गए हैं। |